हत्यारे

Hatyare

अमरकांत

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    क्वार की एक शाम को पान की एक दुकान पर दो युवक मिले। आकाश साफ़, नीला और ख़ुशनुमा था और हवा आने वाले मौसम की स्मृति में चंचल। एक युवक गोरे रंग का, लंबा, तगड़ा और बहुत सुंदर था, यद्यपि उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं। वह सफ़ेद क़मीज़ और आधुनिक फ़ैशन की एक ऐसी तंग पैंट पहने था, जिसको फाड़कर उसके बड़े-बड़े और सुडोल चूतड़ बाहर निकलना चाहते थे। पैरों में जूते थे, किंतु मोज़े नहीं थे और बाल उलटे फिरे थे। दूसरा युवक साँवला, ठिगना और तंदुरुस्त था। उसकी दाढ़ी-मूँछ अपने साथी की तरह ही सफ़ाचट थी, पोशाक भी उसी ढंग की थी, किंतु सिर पर कश्मीरी टोपी थी, पैंट का रंग चाकलेटी होकर भूरा था और क़मीज़ की दो बटनें खुली होने के कारण बनियान साफ़ दिखाई दे रही थी।

    “हलो डियर!”

    “हलो, सना” गोरा पास आकर खड़ा हो गया।

    “इतना लेट क्यों, बेटे?”

    “भई, बोर हो गए।”

    “कोई ख़ास बात?”

    “यही नेहरू है, यार! आज उसका एक और पत्र मिला है।”

    “आई सी!” साँवले की आँखों और होंठों के कोरों में हास्य की हल्की सिकुड़नें पैदा होकर विलीन हो गईं।

    “हाँ, डियर, यह आदमी मुझको परेशान कर रहा है। मैंने बार-बार कहा कि भाई मेरे, भारत की प्राइम मिनिस्ट्री किसी दूसरे व्यक्ति को दो, मेरे पास बड़े-बड़े काम हैं। लेकिन मानता ही नहीं।”

    “क्या कहता है?”

    “वही पुराना राग। इस बार लिखा है—अब मैं थक गया हूँ। गाँधी जी देश का जो भार मुझे सौंप गए, उसको मैं आपके मज़बूत कंधों पर रखना चाहता हूँ। इस अभागे देश में आज आपसे क़ाबिल और समझदार दूसरा कोर्इ भी नहीं है।”

    दो लट्टू तेज़ी से नाचकर सहसा गिर गए हों, इस तरह वे कुछ क्षण हँसकर गंभीर हो गए।

    “और भी तो नेता हैं। साँवले ने पूछा।

    “नेहरू देश के और सभी नेताओं को निकम्मा और बातूनी समझता है। तुमको तो मालूम है कि लास्ट टाइम जब में दिल्ली गया था तो नेहरू ने अशोक होटल में आकर मुझसे मुलाक़ात की थी?”

    “नहीं! तुम हरामी की औलाद हो, कोई बात बताते भी तो नहीं!” साँवले की आँखें बटन की तरह चमकने लगीं।

    नेहरू हाथ पकड़कर रोने लगा। बोला, “आज देश भारी संकट से गुज़र रहा है। सभी नेता और मंत्री बेईमान और संकीर्ण विचारों के हैं। जो ईमानदार हैं, उनके पास अपना दिमाग़ नहीं है। मेरी लीडरशिप भी कमज़ोर है। मेरे अफ़सर मुझको धोखा देते हैं। जनता की भलाई के लिए मैंने पाँच साला योजनाएँ शुरू कीं, लेकिन ब्लाकों के सरकारी कर्मचारी अपने घरों को भरने में लगे हैं। मैं जानता हूँ कि सारे देश में कुछ लोग लूट-खसोट मचाए हुए हैं, लेकिन में उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता।

    “अरे!”

    “किसी से कहना मत, साले!...उसने अंत में कहा—देश को आज केवल आपका ही सहारा है। आप ही पूँजीपतियों, मंत्रियों और अफ़सरों के षड्यंत्र को ख़त्म करके समाजवाद क़ायम कर सकते हैं।”

    “अब तुम क्या सोच रहे हो?”

    ऐसे छोटे-मोटे काम माबदौलत नहीं करते।”

    “प्यार, तुमको देश की ख़ातिर कुछ तो झुकना ही चाहिए!”

    “नहीं, बे! मैं सिद्धांतों का आदमी हूँ। नेहरू को ट्रंक कॉल करके रहा है इसीलिए तो देर हुई।”

    “अच्छा?”

    “हो! मैंने साफ़-साफ़ कह दिया—भैया, देश की प्राइम मिनिस्ट्री मुझे मंज़ूर नहीं। मेरे सामने बहुत बड़े-बड़े सवाल हैं। सबसे पहले तो मुझे विश्वशांति क़ायम करनी है”

    दोनों दाँत खोलकर हँसने लगे।

    “तुम्हारा सोचना एक तरह से ठीक ही है। हाँ, मुझको भी एक मामूली-सी बात याद गई। कल मुझको भी अमेरिका के प्रेसीडेंट केनेडी का एक तार मिला था।”

    “क्या लिखता है?” गोरे की आँखें सिकुड़ गईं।

    “मुझको अमेरिका बुला रहा है। उसने लिखा है—आप-जैसा साहसी व्यक्ति आज संसार में कोई दूसरा नहीं। आप जाएँगे तो अमेरिका निश्चित रूप से रूस को युद्ध में हरा देगा।”

    “तुमने कोई जवाब दिया?”

    “मैंने भी कबूल कर दिया कि मैं राष्ट्रीय विचारों का युवक हूँ और इस घोर संकट के समय किसी भी हालत में अपने देश को छोड़कर किसी दूसरी जगह नहीं जा सकता।”

    “अच्छा किया। वैसे वह शख़्स है बहुत सीधा-सादा। मेरी तो बड़ी इज़्ज़त करता है। मैंने ही उससे तुम्हारी सिफ़ारिश कर दी थी!”

    इस पर वे एक ही साथ इस तरह सिर नीचा करके हँसने लगे, जैसे अपनी निकली छातियों को देखकर ख़ुश हो रहे हों। परंतु बग़ल में खड़े एक पटवारी सज्जन की खिलखिलाहट सुनकर फ़ौरन गंभीर हो गए। उनकी आँखें सिकुड़ गई, होंठों में दृढ़ता गई और गर्दन तन गई। इसके बाद गोरे ने अजीब शान से आगे बढ़कर पान वाले से कैप्स्टन का डिब्या ले लिया। फिर दोनों ने एक-एक सिगरेट सुलगाई और अंत में शंटिंग करने वाले रेल के इंजन की तरह लापरवाही से धुआँ छोड़ते हुए वहाँ से चलते बने।

    एक चौड़ी और साफ़-सुथरी तारकोल की सड़क के दोनों ओर भव्य दुकानें थीं। अगल-बग़ल दोनों फ़ुटपाथों पर हर उम्र, पेशा और रंग-रूप के स्त्री-पुरुषों की उत्साही भीड़ें विपरीत दिशाओं को सरक रही थीं। वे बाईं पटरी से आगे बढ़ रहे थे। उनके कूल्हे ख़ूब मटक रहे थे। उनके हाथ कुछ फैलकर इस तरह आगे-पीछे हो रहे थे, जैसे वे खड़े होकर तैर रहे हों। वे अक्सर अपने दाएँ और बाएँ अत्याधिक नाराज़ी से घूरते थे। एक बार जब भड़कीले वस्त्रों से सज्जित कुछ छात्राओं का एक दल सुगंध उड़ाता हुआ बग़ल से गुज़रा तो उन्होंने होंठ सिकोड़कर चुंबन की आवाज़ें पैदा कीं। जब वे बाज़ार के दूसरे छोर पर पहुँच गए तो उन्होंने सरदार की दुकान के सामने खड़े होकर बादाम का शरबत पिया, बनारसी पान वाले के यहाँ जाकर चार-चार बीड़े मगही पान खाए और अंत में बाई पटरी से वापस लौटने लगे।

    “उस लौंडिया को पहचान रहे हो?”

    “नहीं,” साँवले ने पीछे घूमकर एक दुबली-पतली लड़की को जाते हुए देखा।

    “तुम साले गदहे हो। जब प्रधानमंत्री बनूँगा तो तुपको सेक्रेटेरियट का भंगी बनाऊँगा! बेटे, यह है चंदा सिन्हा। एम.ए. इंगलिश टॉप करके अब रिसर्च कर रही है। वह मुझको अपना पति मान चुकी है।”

    “या पुत्र?”

    “मज़ाक़ नहीं, डियर। कई बार चरण पकड़कर रो चुकी है। लेकिन तुम तो जानते ही हो कि मैं बाल-ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।”

    “तुम्हारे बाप भी तो बाल-ब्रह्मचारी ही थे!”

    दोनों के मुँह कानों तक फैल गए।

    “यार, तुम हर बात को नॉनसीरियस बना देते हो! मैं देश की कोटि-कोटि जनता के कल्याण के लिए अपील करता हूँ कि तुम गंभीर बनो और अनुशासन में रहो!”

    “अच्छा, फ़रमाइए, हुज़ूर शाहंशाह हरामी उल-मुल्क।”

    “तो हे अर्जुन, सुनो! एक रोज़ प्रोफ़ेसर दीक्षित मेरे पास आकर गिड़गिड़ाने लगे।”

    “इंगलिश डिपार्टमेंट के हेड?”

    “हाँ बे, और कौन प्रोफ़ेसर दीक्षित हैं इस अखिल विश्व में?”

    “ग़लती हुई, सरकार!”

    “आते ही हाथ जोड़कर बोले, इस संसार में आप ही मेरी मदद कर सकते है। चंद्रा सिन्हा के बिना मैं एक क्षण भी ज़िंदा नहीं रह सकता। वह मामूली स्टूडेंट थी, लेकिन मैंने ही उसको टॉप कराया। मैंने उससे कई बार कहा है कि तुमको दो वर्ष में ही डाक्टरेट दिला दूँगा। मैंने हर दर्जे के लिए पाठ्य-पुस्तकें और कुंजियाँ लिखकर जो लाखों रुपए कमाए हैं, उनको चंद्रा के चरणों पर न्योछावर करने को तैयार हूँ। लेकिन यह तो मेरी ओर देखती भी नहीं। वह आपके ही नाम की माला जपती रहती है। आप समझा देंगे तो कहना मान जाएगी।”

    “तुम तो, बेटा, फिर हरे होंगे। तुम्हारा एक पीरियड वह लेता जो है!”

    “हुश! सारा देश जिसकी पूजा करता है यह उस पिद्दी से डरेगा? मैंने डॉटकर उससे पूछा—बच्चू, पाठ्य-पुस्तकों का रौब तो बहुत दिखाते हो, लेकिन क्या तुम इससे इंकार कर सकते हो कि तुम्हारी सभी पुस्तकें तुम्हारे शिष्यों की लिखी हुई हैं?”

    “फिर क्या बोलिस?”

    “बोलता क्या? थर-थर काँपने लगा। मेरे चरण पकड़कर प्रार्थना करने लगा कि मैं यह बात किसी से कहूँ। मैंने कड़ककर उत्तर दिया—मैं जानता हूँ कि तुम बड़े-बड़े अफ़सरों और मंत्रियों की चापलूसी करते हो। तुमने अनगिनत लड़कियों की ज़िंदगी इसी तरह चौपट की है। चंदा सती-साध्वी नारी है, अगर आइंदा तुमने उसको बुरी नज़र से देखा तो मुझे बाध्य होकर देश की शिक्षा-पद्धति में आमूल परिवर्तन करना पड़ेगा!”

    सहसा एक बुक-स्टाल ने उनका ध्यान आकर्षित किया, जिसके सामने एक जवान, गोरी और सुंदर महिला खड़ी थी। उसका जूड़ा सर्प की कंडली की तरह पीछे बँधा था और उसके पुष्ट शरीर पर गेरुए रंग की एक रेशमी साड़ी सयत्न लापरवाही के साथ लिपटी थी, जिससे वह कोई बौद्ध भिक्षुणी की तरह दिखाई दे रही थी। वह ‘ईब्स वीकली’ को ध्यानपूर्वक उलट-पुलटकर देख रही थी परंतु उसके मुख पर इस आशा का भाव था कि लोग उसको अत्यधिक आधुनिक और प्रबुद्ध समझें। वे भी मुँह से धीरे-धीरे सीटी की आवाज़ें निकालते हुए निकट आकर खड़े हो गए और कुछ पत्र-पत्रिकाओं को उलटने पुलटने लगे। उन्होंने बारी-बारी से ‘रेखा’, ‘गोरी’, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’, ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’, ‘लाइफ़’, ‘मनोहर कहानियाँ’, ‘फ़िल्म फ़ेयर’,’'जासूस महल’ आदि पत्रिकाएँ देखीं। बीच-बीच में वे उस महिला को धूरते जाते थे और कोई बात कहके ज़ोर से हँस पड़ते थे।

    “यार, लास्को भी अजीब आदमी था,” गोरे ने कहा।

    “क्यों?”

    “तुम तो जानते ही हो कि ‘ग्रामर ऑफ़ पॉलिटिक्स लिखने के पहले वह मुझसे मिलने आया था!”

    “कुछ-कुष्ठ याद रहा है,” साँवला महिला की ओर तिरछी दृष्टि से देखकर ज़ोर से हँस पड़ा।”

    “वह एक रात को चुपके से मेरे घर पहुँचा। गिड़गिड़ाकर बोला—जब तक आप मदद करेंगे मेरी किताब लिखी नहीं जाएगी। मुझे दया गई कि आदमी शरीफ़ है और इसके लिए कुछ कर देना चाहिए। मैंने कहा—भाई, मेरे पास इतना समय तो नहीं कि तुम्हारे लिए पूरी पुस्तक लिख दूँ, रोज़ मैं रात को दो घंटे बोल दूँगा और तुम नोट कर लेना।”

    “तैयार हुआ?”

    “अरे, बड़ा ख़ुश हुआ! मैंने दस दिन में ही पूरी किताब डिक्टेट करा दी। वह कहने लगा कि पुस्तक के असली लेखक आप ही हैं और उस पर आपका ही नाम जाना चाहिए, लेकिन मैंने जवाब दिया कि मैं सत्य और अहिंसा के देश का रहने वाला हूँ और मेरी सेवाएँ सदा निःस्वार्थ होती हैं।”

    उस महिला ने शान से गर्दन घुमाकर उनकी ओर घूरती नज़र से देखा। फिर वह ‘ईव्स वीकली’ ख़रीदकर उपेक्षापूर्ण भाव प्रकट करती हुई चली गई। दोनों ने ज़ोर का ठहाका लगाया। फिर साँवला शीघ्र ही गंभीर होकर गुनगुनाने लगा—मुझे पलकों की छाँव में रहने दो।

    उन्होंने बाज़ार के दो और चक्कर लगाए। तब तक अँधेरा छा गया था। सभी दुकानें रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमगाकर रहस्यमय स्वप्नलोक की तरह प्रतीत हो रही थीं। फिर उसी पान की दुकान पर आकर खड़े हो गए। इस बार साँवले ने सिगरेट ख़रीदी।

    “डियर, हम काफ़ी विदेश भ्रमण कर चुके। अब हमको प्यारे स्वदेश की भी सुध लेनी चाहिए।” गोरा जमुहाई लेकर बोला।

    “हाँ। मेरी भी पवित्र आत्मा स्वदेश के लिए छटपटा रही है।”

    “लेट अस गो!”

    कुछ दूर चलकर वे ‘दी प्रिंस' में घुस गए। काउंटर पर बड़ी-बड़ी मूँछों वाला एक अधेड़ व्यक्ति अत्यधिक तटस्थ और विनम्र भाव से बैठा था। उसने झुककर उनको सलाम किया। दाहिनी ओर चार केबिन बने हुए थे। पहले में चार व्यक्ति बैठे हुए थे और ज़ोर-ज़ोर से बातें करके ठहाके लगा रहे थे, जिनको देखते ही वे दोनों अत्यधिक गंभीर हो गए और उनके चेहरों पर उच्चता और उपेक्षा के भाव अंकित हो गए। अंतिम केबिन में जाकर बैठ गए।

    “क्या लोगे” गोरे ने पूछा।

    “देश का सामाजिक और नैतिक स्तर ऊँचा करना है, ब्रांडी ही चलने दो।”

    “एक अद्धा और साथ में अभी...उबले हुए अंडे,” गोरे ने आर्डर दिया।

    जब बैरे ने सामान लाकर मेज़ पर रख दिया तो गोरे ने दो गिलासों में बराबर-बराबर मात्रा में शराब डाली। साँवले ने चुपके से अपने गिलास की कुछ शराब गोरे के गिलास में उँडेल दी और अंत में झेंपकर हँसने लगा।

    “साले! तुम कायर हो।” गोरा बिगड़ गया, “मैंने सोचा था कि प्राइम मिनिस्टर होने पर मैं तुमको भ्रष्टाचार-निवारण-समिति और जातिभेद-उन्मूलन-समिति का अध्यक्ष बना दूँगा। लेकिन जब तुम इतनी पी नहीं सकते तो अवसर आने पर घूस कैसे लोगे, जालसाज़ी कैसे करोगे, झूठ कैसे बोलोगे? फिर देश की सेवा क्या करोगे, ख़ाक?”

    दोनों ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाने लगे। फिर उन्होंने सिगरेट सुलगा ली। वे शराब की चुस्की लेने के बाद अंडे खाकर कुछ देर तक अपनी नाक की सीध में महत्वपूर्ण और बुज़ुर्गाना ढंग से देखते थे और बाद में सिगरेट के गहरे कश खींचकर घुआँ छोड़ने लगते थे।

    जब वे बाहर निकले तो उनके चेहरे तमतमा रहे थे। फ़ुटपाथों पर की भीड़ें हल्की पड़ गई थीं। गोरे ने हाथ ऊँचे करके अपने शरीर को तोड़ा।

    “तुम्हारी लीडरशिप का मज़ा आया। आज तो कुछ रचनात्मक कार्य होना चाहिए?”

    “तो तैयार हो जाओ। मैं देश के चौमुखी विकास और विश्वशांति की स्थापना के लिए जो क़दम उठाने जा रहा हूँ, उसमें तुम्हारे जैसे नौजवान की मदद चाहिए। अगर तुम हिम्मत से काम लोगे तो माबदौलत ख़ुश होकर तुमको होम मिनिस्टर बना देंगे!”

    “जो आज्ञा, हुज़ूर!”

    “तो आओ, बेटा, रिक्शे पर बैठो।”

    कुछ देर बाद उनका रिक्शा एक छोटी-सी बस्ती के पास रुका, जिसमें खपड़ैल और फूस के पंद्रह-बीस छोटे-छोटे मकान थे। उस बस्ती में चौका-बर्तन करने वाले कमकर, कुछ रिक्शा-चालक और इसी क़िस्म के मज़दूर रहते थे। वह स्थान विश्वविद्यालय से लगभग एक मील दूर शहर की सीमा पर स्थित था, इसलिए दूर तक कोई अन्य बस्ती नहीं दिखाई देती थी। नुक्कड़ पर पान की एक ऐसी दुकान थी, जिसमें अन्य छोटे-मोटे सामान भी मिलते थे। झोंपड़ियों से मद्धिम मटमैली रौशनियाँ झाँक रही थीं। रात अँधेरी थी, परंतु मौसम बहुत सुहावना था और निःशब्द चलने वाली पवित्र, स्वच्छ और शीतल हवा शरीर और मन को पुलक से भर देती थी।

    वे पहली झोंपड़ी में ही घुसे। बाहर छोटे-से बरामदे में बाईं ओर दीवार से सटकर नाव की तरह गहरी एक पुरानी बँसखट पड़ी हुई थी। दाहिनी तरफ़ एक कोने में एक औरत चूल्हे के सामने बैठी खाना बना रही थी। वह चौंककर खड़ी हो गई, परंतु गोरे को तत्क्षण पहचानकर सज्जनता पूर्वक हँसने भी लगी, जिससे उसके गालों के बीच में गड्ढे पड़ गए। उसकी उम्र चौबीस-पच्चीस की होगी। रंग क़रीब-क़रीब काला था, परंतु शरीर मज़बूत था और वह देखने में बुरी भी नहीं थी। वह एक मैली-कुचेली साड़ी पहने थी और आँचल की अस्त-व्यस्तता के कारण उसके उन्नत और पुष्ट उरोज दिखाई दे रहे थे। वह एक सीधी-सादी और सरल स्वभाव की स्त्री प्रतीत होती थी।

    “बहुत दिन के बाद दरसन दिया? बैठिए।”

    “यहाँ बैठकर क्या होगा, जी?” गोरा हँस पड़ा।

    “तो भीतर चलिए!”...वह भी हँसने लगी।

    “आज तुम्हारी सेवा में विश्व के एक महान नेता को लाया हूँ।”

    “मुझे तो आपकी बात समझ में नहीं आती। कौन हैं ये?” उसने अदा के साथ साँवले की ओर देखा।

    “ये अखिल विश्व लोफ़र संघ के अध्यक्ष हैं। इनको हर तरह से तुम्हे ख़ुश करना है।”

    “मेरे लिए तो सभी बराबर हैं। किसी तरह की शिकायत की बात नहीं मिलेगी।” वह फिर हँसने लगी।

    “तुम्हारा दोपाया जानवर कहाँ है?”

    “कहीं पास चरने गया होगा।” वह खिलखिला पड़ी।

    “तो क्या देर है?”

    “कुछ नहीं। दाल चुरती रहेगी।”

    वह सहसा व्यस्त होकर चूल्हे के सामने बैठ गई। उसके होंठ अनजान में ही एक शिष्ट, हल्की मुस्कुराहट से फैल गए थे। उसने एक लकड़ी निकालकर आँच धीमी कर दी, बटलोई की दाल को करछुल से चलाया और अंत में आश्वस्त होकर उठ खड़ी हुई।

    गोरा बाहर बँसखर पर बैठा ऊँघता-सा रहा। थोड़ी देर बाद औरत तेज़ी से बाहर आई और बटलाई को चूल्हे पर से उतारकर पुनः कोठरी में चली गई। अब बाहर बैठने की बारी साँवले की थी। इस बीच बरामदे के ताक पर रखी ढिबरी की रौशनी किसी बीमार की फीकी मुस्कराहट की तरह टिमटिमाती रही।

    “दो-दो रुपए हुए न?” बाहर निकलकर गोरे ने हँसकर पूछा।

    “आज तो चार-चार लूँगी! बड़ा परेशान किया है आप लोगों ने!” वह आँखें मटकाकर बोली।

    “तुम तो पूँजीपति हो! तुमको किस बात की कमी है? अच्छा, आठ-आठ आना और। लेकिन दस रुपए का नोट है।”

    “रुपए तो मेरे पास नहीं हैं।”

    “पान वाले से भुना लेते हैं।”

    “लाइए, मैं ले आती हूँ।”

    “अरे, तुम देश की महान कार्यकर्त्री हो, तुम कहाँ कष्ट करोगी? अभी आते हैं।”

    “अच्छी बात है,” वह हँसने लगी।

    वे झोंपड़ी से बाहर निकलकर पान की दुकान की ओर बढ़े। वह औरत बरामदे में खड़ी उनको देख रही थी।

    “साले, जूते निकालकर हाथ में ले लो।” गोरे ने दुकान के निकट पहुँचकर फुसफुसाहट के स्वर में कहा।

    “क्यों?” साँवला चौंक उठा।

    “मेरे आदेश का चुपचाप पालन कर। आज समय गया है कि हमारे नवयुवक बुद्धिमानी, मौलिकता, साहस और कर्मठता से काम लें। मैं पूर्ण अहिंसात्मक तरीक़ें से उनका पथ-प्रदर्शन करना चाहता हूँ।”

    दोनों ने झटपट अपने जूते उतारकर अपने हाथों में ले लिए।

    “भाग साले! आर्थिक और सामाजिक क्रांति करने का समय गया है।”

    वे सरपट भाग चले। साथ में वह ही-ही हँसते भी जा रहे थे। वह औरत झोंपड़ी के बाहर निकल आई थी और छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगी थी, “अरे, लूट लिया हरामी के बच्चों ने। उन पर बज्जर गिरे...

    झोंपड़ियों से कुछ व्यक्ति निकलकर युवकों के पीछे दौड़े। तारकोल की सड़कें जन-शून्य थीं। दोनों युवक अरबी घोड़ों की तरह दौड़ रहे थे। वे कभी बाएँ घूम जाते और कभी दाएँ। पीछा करने वालों में से एक फ़ुर्तीबाज़ व्यक्ति तीर की तरह उनकी ओर बढ़ा जा रहा था। वह समीप आता गया। अब वह समय दूर नहीं था जब वह आगे लपककर साँबले रंग के युवक को पकड़ लेता, जो पीछे पड़ गया था। परंतु सहसा गोरा रुककर एक ओर खड़ा हो गया। उसने पेंट की जेब में से एक छुरा निकालकर खोल लिया, जो उसके हाथ में चमक उठा। फिर फुर्ती से आगे बढ़कर उसने छुरा उस व्यक्ति के पेट में भोंक दिवा जो “हाय मार डाला' कहके लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

    इसके बाद दोनों पुनः तेज़ी से भाग चले। जब बिजली का खंभा आया तो रौशनी में उनके पसीने से लथपथ ताक़तवर शरीर बहुत सुंदर दिखाई देने लगे। फिर वे मालूम किधर अँधेरे में खो गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कहानियाँ (पृष्ठ 105)
    • संपादक : मोहन राकेश
    • रचनाकार : अमरकांत
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
    • संस्करण : 2007

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