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गुंडा

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जयशंकर प्रसाद

अन्य

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और अधिकजयशंकर प्रसाद

    ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वही काशी नहीं रह गई थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्रायः बंद-से हो गए थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव-धर्म भी उस विशृंखलता में, नवागंतुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन संप्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगने वाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वंद्वी पर शस्त्र न उठाना, सताए निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिए घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।

    जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वंचित होकर जैसे प्रायः लोग विरक्त हो जाते हैं, ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल होकर, एक प्रतिष्ठित जमींदार का पुत्र होने पर भी, नन्हकूसिंह गुंडा हो गया था। दोनों हाथों से उसने अपनी संपत्ति लुटाई। नन्हकूसिंह ने बहुत-सा रुपया ख़र्च करके जैसा स्वाँग खेला था, उसे काशी वाले बहुत दिनों तक नहीं भूल सके। वसंत ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के लिए उन दिनों प्रचुर धन, बल, निर्भीकता और उच्छृंखलता की आवश्यकता होती थी। एक बार नन्हकूसिंह ने भी एक पैर में नूपुर, एक हाथ में तोड़ा, एक आँख में काजल, एक कान में हज़ारों के मोती तथा दूसरे कान में फटे हुए जूते का तल्ला लटकाकर, एक जड़ाऊ मूठ की तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभिनय करने वाली प्रेमिका के कंधे पर रखकर गाया था—

    “कहीं बैंगनवाली मिले तो बुला देना।”

    प्रायः बनारस के बाहर की हरियालियों में, अच्छे पानीवाले कुओं पर, गंगा की धारा में मचलती हुई डोंगी पर वह दिखलाई पड़ता था। कभी-कभी जूआख़ाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी की रँगीली वेश्याएँ मुस्कराकर उसका स्वागत करतीं और उसके दृढ़ शरीर को सस्पृह देखतीं। वह तमोली की ही दूकान पर बैठकर उनके गीत सुनता, ऊपर कभी नहीं जाता था। जूए की जीत का रुपया मुठ्ठियों में भर-भरकर, उनकी खिडक़ी में वह इस तरह उछालता कि कभी-कभी समाजी लोग अपना सिर सहलाने लगते, तब वह ठठाकर हँस देता। जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता।

    वह अभी वंशी के जूआख़ानें से निकला था। आज उसकी कौड़ी ने साथ न दिया। सोलह परियों के नृत्य में उसका मन न लगा। मन्नू तमोली की दूकान पर बैठते हुए उसने कहा—“आज सायत अच्छी नहीं रही, मन्नू।”

    “क्यों मालिक! चिंता किस बात की है। हम लोग किस दिन के लिए हैं। सब आप ही का तो है।”

    “अरे, बुद्धू ही रहे तुम! नन्हकूसिंह जिस दिन किसी से लेकर जूआ खेलने लगे उसी दिन समझना वह मर गए। तुम जानते नहीं कि मैं जूआ खेलने कब जाता हूँ। जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता; उसी दिन नाल पर पहुँचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हूँ और फिर वही दाँव आता भी है। बाबा कीनाराम का यह बरदान है।”

    “तब आज क्यों, मालिक?”

    “पहला दाँव तो आया ही, फिर दो-चार हाथ बदने पर सब निकल गया। तब भी लो, यह पाँच रुपए बचे हैं। एक रुपया तो पान के लिए रख लो और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने के लिए कह दे। हाँ, वही एक गीत—

    “विलमि विदेश रहे।”

    नन्हकूसिंह की बात सुनते ही मलूकी, जो अभी गाँजे की चिलम पर रखने के लिए अँगारा चूर कर रहा था, घबराकर उठ खड़ा हुआ। वह सीढिय़ों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया। चिलम को देखता ही ऊपर चढ़ा, इसलिए उसे चोट भी लगी; पर नन्हकूसिंह की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें कहाँ। उसे नन्हकूसिंह की वह मूर्ति न भूली थी, जब इसी पान की दूकान पर जूएख़ाने से जीता हुआ, रुपए से भरा तोड़ा लिए वह बैठा था। दूर से बोधीसिंह की बारात का बाजा बजता हुआ आ रहा था। नन्हकू ने पूछा—“यह किसकी बारात है?”

    “ठाकुर बोधीसिंह के लड़के की।—मन्नू के इतना कहते ही नन्हकू के ओठ फड़कने लगे। उसने कहा—मन्नू! यह नहीं हो सकता। आज इधर से बारात न जाएगी बोधीसिंह हमसे निपटकर तब बारात इधर से ले जा सकेंगे।”

    मन्नू ने कहा—“तब मालिक, मैं क्या करूँ?”

    नन्हकू गँड़ासा कंधे पर से और ऊँचा करके मलूकी से बोला—“मलुकिया देखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे, कि बाबू नन्हकूसिंह आज यहीं लगाने के लिए खड़े हैं। समझकर आवें, लड़के की बारात है।” मलुकिया काँपता हुआ ठाकुर बोधीसिंह के पास गया। बोधीसिंह और नन्हकू से पाँच वर्ष से सामना नहीं हुआ है। किसी दिन नाल पर कुछ बातों में ही कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था। फिर सामना नहीं हो सका। आज नन्हकू जान पर खेलकर अकेला खड़ा है। बोधीसिंह भी उस आन को समझते थे। उन्होंने मलूकी से कहा—“जा बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि बाबू साहब वहाँ खड़े हैं। जब वह हैं ही, तो दो समधी जाने का क्या काम है।” बोधीसिंह लौट गए और मलूकी के कंधे पर तोड़ा लादकर बाजे के आगे नन्हकूसिंह बारात लेकर गए। ब्याह में जो कुछ लगा, ख़र्च किया। ब्याह कराकर तब, दूसरे दिन इसी दूकान तक आकर रुक गए। लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया।

    मलूकी को भी दस रुपया मिला था उस दिन। फिर नन्हकूसिंह की बात सुनकर बैठे रहना और यम को न्योता देना एक ही बात थी। उसने जाकर दुलारी से कहा—“हम ठेका लगा रहे हैं, तुम गाओ, तब तक बल्लू सारंगीवाला पानी पीकर आता है।”

    “बाप रे, कोई आफ़त आई है क्या बाबू साहब? सलाम!”—कहकर दुलारी ने खिडक़ी से मुस्कराकर झाँका था कि नन्हकूसिंह उसके सलाम का जवाब देकर, दूसरे एक आने वाले को देखने लगे।

    हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुँह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफ़ेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी, कुव्वेदार टोपी; छकलिया अँगरखा और साथ में लैसदार परतवाले दो सिपाही! कोई मौलवी साहब हैं। नन्हकू हँस पड़ा। नन्हकू की ओर बिना देखे ही मौलवी ने एक सिपाही से कहा—“जाओ, दुलारी से कह दो कि आज रेज़िडेंट साहब की कोठी पर मुजरा करना होगा, अभी चले, देखो तब तक हम जानअली से कुछ इत्र ले रहे हैं। सिपाही ऊपर चढ़ रहा था और मौलवी दूसरी ओर चले थे कि नन्हकू ने ललकारकर कहा—दुलारी! हम कब तक यहाँ बैठे रहें! क्या अभी सरंगिया नहीं आया?”

    दुलारी ने कहा—“वाह बाबू साहब! आप ही के लिए तो मैं यहाँ आ बैठी हूँ, सुनिए न! आप तो कभी ऊपर...” मौलवी जल उठा। उसने कड़ककर कहा—“चोबदार! अभी वह सुअर की बच्ची उतरी नहीं। जाओ, कोतवाल के पास मेरा नाम लेकर कहो कि मौलवी अलाउद्दीन कुबरा ने बुलाया है। आकर उसकी मरम्मत करें। देखता हूँ तो जब से नवाबी गई, इन काफ़िरों की मस्ती बढ़ गई है।”

    कुबरा मौलवी! बाप रे-तमोली अपनी दूकान संभालने लगा। पास ही एक दूकान पर बैठकर ऊँघता हुआ बजाज चौंककर सिर में चोट खा गया! इसी मौलवी ने तो महाराज चेतसिंह से साढ़े तीन सेर चींटी के सिर का तेल माँगा था। मौलवी अलाउद्दीन कुबरा! बाज़ार में हलचल मच गई। नन्हकूसिंह ने मन्नू से कहा—“क्यों, चुपचाप बैठोगे नहीं!” दुलारी से कहा—“वहीं से बाईजी! इधर-उधर हिलने का काम नहीं। तुम गाओ। हमने ऐसे घसियारे बहुत-से देखे हैं। अभी कल रमल के पासे फेंककर अधेला-अधेला माँगता था, आज चला है रोब गाँठने।”

    अब कुबरा ने घूमकर उसकी ओर देखकर कहा—“कौन है यह पाजी।”

    “तुम्हारे चाचा बाबू नन्हकूसिंह!”—के साथ ही पूरा बनारसी झापड़ पड़ा। कुबरा का सिर घूम गया। लैस के परतले वाले सिपाही दूसरी ओर भाग चले और मौलवी साहब चौंधिया कर जानअली की दूकान पर लडख़ड़ाते, गिरते-पड़ते किसी तरह पहुँच गए।

    जानअली ने मौलवी से कहा—“मौलवी साहब! भला आप भी उस गुंडे के मुँह लगने गए। यह तो कहिए कि उसने गँड़ासा नहीं तौल दिया।” कुबरा के मुँह से बोली नहीं निकल रही थी। उधर दुलारी गा रही थी....विलमि विदेस रहे”....गाना पूरा हुआ, कोई आया-गया नहीं। तब नन्हकूसिंह धीरे-धीरे टहलता हुआ, दूसरी ओर चला गया। थोड़ी देर में एक डोली रेशमी परदे से ढँकी हुई आई। साथ में एक चोबदार था। उसने दुलारी को राजमाता पन्ना की आज्ञा सुनाई।

    दुलारी चुपचाप डोली पर जा बैठी। डोली धूल और संध्याकाल के धुएँ से भरी हुई बनारस की तंग गलियों से होकर शिवालय घाट की ओर चली।

     

    (दो)

    श्रावण का अंतिम सोमवार था। राजमाता पन्ना शिवालय में बैठकर पूजन कर रही थी। दुलारी बाहर बैठी कुछ अन्य गानेवालियों के साथ भजन गा रही थी। आरती हो जाने पर, फूलों की अंजलि बिखेरकर पन्ना ने भक्तिभाव से देवता के चरणों में प्रणाम किया। फिर प्रसाद लेकर बाहर आते ही उन्होंने दुलारी को देखा। उसने खड़ी होकर हाथ जोड़ते हुए कहा—“मैं पहले ही पहुँच जाती। क्या करूँ, वह कुबरा मौलवी निगोड़ा आकर रेज़िडेंट की कोठी पर ले जाने लगा। घंटों इसी झंझट में बीत गया, सरकार।”

    “कुबरा मौलवी! जहाँ सुनती हूँ, उसी का नाम। सुना है कि उसने यहाँ भी आकर कुछ....”—फिर न जाने क्या सोचकर बात बदलते हुए पन्ना ने कहा—“हाँ, तब फिर क्या हुआ? तुम कैसे यहाँ आ सकीं?”

    “बाबू नन्हकूसिंह उधर से आ गए।” मैंने कहा—“सरकार की पूजा पर मुझे भजन गाने को जाना है। और यह जाने नहीं दे रहा है। उन्होंने मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया कि उसकी हेकड़ी भूल गई। और तब जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आने की छुट्टी मिली।”

    “कौन बाबू नन्हकूसिंह।”

    दुलारी ने सिर नीचा करके कहा—“अरे, क्या सरकार को नहीं मालूम? बाबू निरंजनसिंह के लड़के! उस दिन, जब मैं बहुत छोटी थी, आपकी बारी में झूला झूल रही थी, जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ गया था, बाबू निरंजनसिंह के कुँवर ने ही तो उस दिन हम लोगों की रक्षा की थी।”

    राजमाता का मुख उस प्राचीन घटना को स्मरण करके न जाने क्यों विवर्ण हो गया। फिर अपने को सँभालकर उन्होंने पूछा—“तो बाबू नन्हकूसिंह उधर कैसे आ गए?”

    दुलारी ने मुस्कराकर सिर नीचा कर लिया! दुलारी राजमाता पन्ना के पिता की ज़मींदारी में रहने वाली वेश्या की लडक़ी थी। उसके साथ ही कितनी बार झूले-हिंडोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी। वह बचपन से ही गाने में सुरीली थी। सुंदरी होने पर चंचल भी थी। पन्ना जब काशीराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली थी। राजमहल में उसका गाना-बजाना हुआ ही करता। महाराज बलवंतसिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का आवश्यक अंश था। हाँ, अब प्रेम-दु:ख और दर्द-भरी विरह-कल्पना के गीत की ओर अधिक रुचि न थी। अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था। राजमाता पन्ना का वैधव्य से दीप्त शांत मुखमंडल कुछ मलिन हो गया।

    बड़ी रानी की सापत्न्य ज्वाला बलवंतसिंह के मर जाने पर भी नहीं बुझी। अंतःपुर कलह का रंगमंच बना रहता, इसी से प्रायः पन्ना काशी के राजमंदिर में आकर पूजा-पाठ में अपना मन लगाती। रामनगर में उसको चैन नहीं मिलता। नई रानी होने के कारण बलवंतसिंह की प्रेयसी होने का गौरव तो उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का सौभाग्य भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय को व्यथित किया करता। उसे अपने ब्याह की आरंभिक चर्चा का स्मरण हो आया।

    छोटे-से मंच पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अन्य-मनस्क होकर देखने लगी। उस बात को, जो अतीत में एक बार, हाथ से अनजाने में खिसक जाने वाली वस्तु की तरह गुप्त हो गई हो; सोचने का कोई कारण नहीं। उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं; परंतु मानव-स्वभाव हिसाब रखने की प्रथानुसार कभी-कभी कहीं बैठता है, “कि यदि वह बात हो गई होती तो?” ठीक उसी तरह पन्ना भी राजा बलवंतसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनाई जाने के पहले की एक संभावना को सोचने लगी थी। सो भी बाबू नन्हकूसिंह का नाम सुन लेने पर। गेंदा मुँहलगी दासी थी। वह पन्ना के साथ उसी दिन से है, जिस दिन से पन्ना बलवंतसिंह की प्रेयसी हुई। राज्य-भर का अनुसंधान उसी के द्वारा मिला करता। और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी। उसने दुलारी का रंग उखाड़ने के लिए कुछ कहना आवश्यक समझा।

    “महारानी! नन्हकूसिंह अपनी सब ज़मींदारी स्वाँग, भैंसों की लड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर अब डाकू हो गया है। जितने ख़ून होते हैं, सब में उसी का हाथ रहता है। जितनी....” उसे रोककर दुलारी ने कहा—“यह झूठ है। बाबू साहब के ऐसा धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं। कितनी विधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढँकती हैं। कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है। कितने सताए हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है।”

    रानी पन्ना के हृदय में एक तरलता उद्वेलित हुई। उन्होंने हँसकर कहा—“दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैं न? इसी से तू उनकी बड़ाई....।”

    “नहीं सरकार! शपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्हकूसिंह ने आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा।”

    राजमाता न जाने क्यों इस अद्भुत व्यक्ति को समझने के लिए चंचल हो उठी थीं। तब भी उन्होंने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए तीखी दृष्टि से देखा। वह चुप हो गई। पहले पहर की शहनाई बजने लगी। दुलारी छुट्टी माँगकर डोली पर बैठ गई। तब गेंदा ने कहा—“सरकार! आजकल नगर की दशा बड़ी बुरी है। दिन दहाड़े लोग लूट लिए जाते हैं। सैकड़ों जगह नाला पर जुए में लोग अपना सर्वस्व गँवाते हैं। बच्चे फुसलाए जाते हैं। गलियों में लाठियाँ और छुरा चलने के लिए टेढ़ी भौंहे कारण बन जाती हैं। उधर रेज़िडेंट साहब से महाराजा की अनबन चल रही है।” राजमाता चुप रहीं।

    दूसरे दिन राजा चेतसिंह के पास रेज़िडेंट मार्कहेम की चिठ्ठी आई, जिसमें नगर की दुव्र्यवस्था की कड़ी आलोचना थी। डाकुओं और गुंडों को पकड़ने के लिए, उन पर कड़ा नियंत्रण रखने की सम्मति भी थी। कुबरा मौलवी वाली घटना का भी उल्लेख था। उधर हेंस्टिग्स के आने की भी सूचना थी। शिवालयघाट और रामनगर में हलचल मच गई! कोतवाल हिम्मतसिंह, पागल की तरह, जिसके हाथ में लाठी, लोहाँगी, गड़ाँसा, बिछुआ और करौली देखते, उसी को पकड़ने लगे।

    एक दिन नन्हकूसिंह सुंभा के नाले के संगम पर, ऊँचे-से टीले की घनी हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ दूधिया छान रहे थे। गंगा में, उनकी पतली डोंगी बड़ की जटा से बँधी थी। कथकों का गाना हो रहा था। चार उलाँकी इक्के कसे-कसाए खड़े थे।

    नन्हकूसिंह ने अकस्मात् कहा—“मलूकी!” गाना जमता नहीं है। उलाँकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ। मलूकी वहाँ मजीरा बजा रहा था। दौड़कर इक्के पर जा बैठा। आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ा था। बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं। एक घंटे में दुलारी सामने आ गई। उसने मुस्कराकर कहा—“क्या हुक्म है बाबू साहब?”

    “दुलारी! आज गाना सुनने का मन कर रहा है।”

    “इस जंगल में क्यों?”—उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा।

    “तुम किसी तरह का खटका न करो।”—नन्हकूसिंह ने हँसकर कहा।

    “यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आई हूँ।”

    “क्या, किससे?”

    “राजमाता पन्नादेवी से”—फिर उस दिन गाना नहीं जमा। दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों में नन्हकू की आँखे तर हो जाती हैं। गाना-बजाना समाप्त हो गया था। वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा था। मंदिर के समीप ही छोटे-से कमरे में नन्हकूसिंह चिंता में निमग्न बैठा था। आँखों में नींद नहीं। और सब लोग तो सोने लगे थे, दुलारी जाग रही थी। वह भी कुछ सोच रही थी। आज उसे, अपने को रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किंतु असफल होकर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरे चली आई। कुछ आहट पाते ही चौंककर नन्हकूसिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली। तब तक हँसकर दुलारी ने कहा—“बाबू साहब, यह क्या? स्त्रियों पर भी तलवार चलाई जाती है।”

    छोटे-से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी का मुख देखकर नन्हकू हँस पड़ा। उसने कहा—“क्यों बाईजी! क्या इसी समय जाने की पड़ी है। मौलवी ने फिर बुलाया है क्या?” दुलारी नन्हकू के पास बैठ गई। नन्हकू ने कहा—“क्या तुमको डर लग रहा है?”

    “नहीं, मैं कुछ पूछने आई हूँ।”

    “क्या?”

    “क्या,......यही कि......कभी तुम्हारे हृदय में....”

    “उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझ कर तो उसे हाथ में लिए फिर रहा हूँ। कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछालता! मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मरने नहीं पाता।”

    “मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है। आपको काशी का हाल क्या मालूम! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाए। उलट-पलट होने वाला है क्या, बनारस की गलियाँ जैसे काटने को दौड़ती हैं।”

    “कोई नई बात इधर हुई है क्या?”

    “कोई हेंस्टिग्ज आया है। सुना है उसने शिवालयघाट पर तिलंगों की कंपनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना वहीं हैं। कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर कलकत्ता भेजने....”

    “क्या पन्ना भी....रनिवास भी वहीं है”—नन्हकू अधीर हो उठा था।

    “क्यों बाबू साहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखों में आँसू क्यों आ गए?”

    सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा! उसने कहा—“चुप रहो, तुम उसको जानकर क्या करोगी?” वह उठ खड़ा हुआ। उद्विग्न की तरह न जाने क्या खोजने लगा। फिर स्थिर होकर उसने कहा—“दुलारी! जीवन में आज यह पहला ही दिन है कि एकांत रात में एक स्त्री मेरे पलँग पर आकर बैठ गई है, मैं चिरकुमार! अपनी एक प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए सैकड़ों असत्य, अपराध करता फिर रहा हूँ। क्यों? तुम जानती हो? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना!....किंतु उसका क्या अपराध! अत्याचारी बलवंतसिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका। किंतु पन्ना! उसे पकड़कर गोरे कलकत्ते भेज देंगे! वही...।”

    नन्हकूसिंह उन्मत्त हो उठा था। दुलारी ने देखा, नन्हकू अंधकार में ही वट वृक्ष के नीचे पहुँचा और गंगा की उमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी—उसी घने अंधकार में। दुलारी का हृदय काँप उठा।

     

    (तीन)

    16 अगस्त सन् 1781 को काशी डाँवाडोल हो रही थी। शिवालयघाट में राजा चेतसिंह लेफ़्टिनेंट इस्टाकर के पहरे में थे। नगर में आतंक था। दूकानें बंद थीं। घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते थे—“माँ, आज हलुए वाला नहीं आया।” वह कहती—“चुप बेटे!” सडकें सूनी पड़ी थीं। तिलंगों की कंपनी के आगे-आगे कुबरा मौलवी कभी-कभी, आता-जाता दिखाई पड़ता था। उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बंद हो जाती थीं। भय और सन्नाटे का राज्य था। चौक में चिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बंद किए कोतवाल का अभिनय कर रही थी। इसी समय किसी ने पुकारा—“हिम्मतसिंह।”

    खिडक़ी में से सिर निकाल कर हिम्मतसिंह ने पूछा—“कौन?”

    “बाबू नन्हकूसिंह।”

    “अच्छा, तुम अब तक बाहर ही हो?”

    “पागल! राजा क़ैद हो गए हैं। छोड़ दो इन सब बहादुरों को! हम एक बार इनको लेकर शिवालयघाट पर जाएँ।”

    “ठहरो”—कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले। नन्हकू की तलवार चमक उठी। सिपाही भीतर भागे। नन्हकू ने कहा—“नमकहरामों! चूड़ियाँ पहन लो।” लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया। कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया।

    नन्हकू उन्मत्त था। उसके थोड़े-से साथी उसकी आज्ञा पर जान देने के लिए तुले थे। वह नहीं जानता था कि राजा चेतसिंह का क्या राजनैतिक अपराध है? उसने कुछ सोचकर अपने थोड़े-से साथियों को फाटक पर गड़बड़ मचाने के लिए भेज दिया। इधर अपनी डोंगी लेकर शिवालय की खिडक़ी के नीचे धारा काटता हुआ पहुँचा। किसी तरह निकले हुए पत्थर में रस्सी अटकाकर, उस चंचल डोंगी को उसने स्थिर किया और बंदर की तरह उछलकर खिडक़ी के भीतर हो रहा। उस समय वहाँ राजमाता पन्ना और राजा चेतसिंह से बाबू मनिहारसिंह कह रहे थे—“आपके यहाँ रहने से, हम लोग क्या करें, यह समझ में नहीं आता। पूजा-पाठ समाप्त करके आप रामनगर चली गई होतीं, तो यह....”

    तेजस्विनी पन्ना ने कहा—“अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊँ?”

    मनिहारसिंह दुखी होकर बोले—“कैसे बताऊँ? मेरे सिपाही तो बंदी हैं।” इतने में फाटक पर कोलाहल मचा। राज-परिवार अपनी मन्त्रणा में डूबा था कि नन्हकूसिंह का आना उन्हें मालूम हुआ। सामने का द्वार बंद था। नन्हकूसिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा-उसमें एक नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी। वह प्रसन्न हो उठा। इसी की प्रतीक्षा में वह रुका था। उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा—“महारानी कहाँ है?”

    सबने घूम कर देखा-एक अपरिचित वीर-मूर्ति! शस्त्रों से लदा हुआ पूरा देव!

    चेतसिंह ने पूछा—“तुम कौन हो?”

    “राज-परिवार का एक बिना दाम का सेवक।”

    पन्ना के मुँह से हलकी-सी एक साँस निकल रह गई। उसने पहचान लिया। इतने वर्षों के बाद! वही नन्हकूसिंह।

    मनिहारसिंह ने पूछा—“तुम क्या कर सकते हो?”

    “मैं मर सकता हूँ! पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए। नीचे दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं। फिर बात कीजिए।”—मनिहारसिंह ने देखा, जनानी ड्योढ़ी का दरोगा राज की एक डोंगी पर चार मल्लाहों के साथ खिडक़ी से नाव सटाकर प्रतीक्षा में है। उन्होंने पन्ना से कहा—“चलिए, मैं साथ चलता हूँ।”

    “और...”—चेतसिंह को देखकर, पुत्रवत्सला ने संकेत से एक प्रश्न किया, उसका उत्तर किसी के पास न था। मनिहारसिंह ने कहा—“तब मैं यहीं?” नन्हकू ने हँसकर कहा—“मेरे मालिक, आप नाव पर बैठें। जब तक राजा भी नाव पर न बैठ जाएँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकूसिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है।”

    पन्ना ने नन्हकू को देखा। एक क्षण के लिए चारों आँखे मिली, जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था। फाटक बलपूर्वक खोला जा रहा था। नन्हकू ने उन्मत्त होकर कहा—“मालिक! जल्दी कीजिए।”

    दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और नन्हकूसिंह फाटक पर इस्टाकर के साथ। चेतराम ने आकर एक चिठ्ठी मनिहारसिंह को हाथ में दी। लेफ़्टिनेंट ने कहा—“आप के आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं। अब मै अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता।”

    “मेरे सिपाही यहाँ कहाँ हैं, साहब?”—मनिहारसिंह ने हँसकर कहा। बाहर कोलाहल बढऩे लगा।

    चेतराम ने कहा—“पहले चेतसिंह को क़ैद कीजिए।”

    “कौन ऐसी हिम्मत करता है?” कड़ककर कहते हुए बाबू मनिहारसिंह ने तलवार खींच ली। अभी बात पूरी न हो सकी थी कि कुबरा मौलवी वहाँ पहुँचा! यहाँ मौलवी साहब की कलम नहीं चल सकती थी, और न ये बाहर ही जा सकते थे। उन्होंने कहा—“देखते क्या हो चेतराम।”

    चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही थी कि नन्हकू के सधे हुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी। इस्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहब चिल्लाने लगे। नन्हकूसिंह ने देखते-देखते इस्टाकर और उसके कई साथियों को धराशायी किया। फिर मौलवी साहब कैसे बचते!

    नन्हकूसिंह ने कहा—“क्यों, उस दिन के झापड़ ने तुमको समझाया नहीं? पाजी!”—कहकर ऐसा साफ जनेवा मारा कि कुबरा ढेर हो गया। कुछ ही क्षणों में यह भीषण घटना हो गई, जिसके लिए अभी कोई प्रस्तुत न था।

    नन्हकूसिंह ने ललकार कर चेतसिंह से कहा—“आप क्या देखते हैं? उतरिए डोंगी पर!”—उसके घावों से रक्त के फुहारे छूट रहे थे। उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेतसिंह ने खिडक़ी से उतरते हुए देखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा है। नन्हकू के चट्टान-सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारा बह रही है। गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा। वह काशी का गुंडा था!

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी समय
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद

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