जो देश के लिए लड़े

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मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच शोलोख़ोव

और अधिकमिखाइल अलेक्सान्द्रोविच शोलोख़ोव

    मई बीत चला था, मगर स्त्रेलत्सोव परिवार में सभी कुछ पहले जैसे ही चल रहा था। ओलगा और निकोलाई के दांपत्य जीवन में कोई तार टूट गया था। उनके संबंधों में कोई अदृश्य दरार पड़ गई थी।

    घर में नन्हा कोत्या भी था। बड़ों जैसी सूझ-बूझ से वह माँ-बाप के बीच पैदा हुए मनमुटाव को तुरंत भाँप गया था। कई बार खाना खाते समय निकोलाई उसकी सवालिया नज़रें स्वयं पर टिकी पाता, लेकिन कुछ जवाब दे पाना मुमकिन नहीं था। नन्हा जिज्ञासु व्यक्ति इस उम्र का नहीं था।

    ओलगा, यूरी ओव्रज्नी से स्कूल में ही नहीं मिलती थी। निकोलाई को इसका अनुमान था, लेकिन वह अपने को इस बात के लिए विवश नहीं कर सकता था कि पत्नी पर नज़र रखे। जब वह सहेलियों के यहाँ देर तक रहती, तब भी वह ओसारे से बाहर नहीं निकलता था, चुपचाप अँधेरे में ओसारे पर बैठा सिगरेट पीता हुआ बाट जोहता रहता…गेट के बाहर ओलगा के तेज़ क़दमों की आहट होती। और हर बार एड़ियों की यह जानी-पहचानी टपटप सुनते ही उसे छाती में हल्की-सी घुटन महसूस होती, हृदय की धड़कन मानो धीमी पड़ जाती। वे चुपचाप खाना खाते, कभी-कभार इधर-उधर की निरर्थक बात करके सोने चले जाते, सुबह फिर से वही सिलसिला शुरू हो जाता।

    जून के शुरू में ही सहसा किस्लोवोदस्त से आए निकोलाई के बड़े भाई के तार ने इस निरानंद जीवन को झकझोरा। मशीन-ट्रेक्टर के दफ़्तर में ही निकोलाई को तार मिला था, 'दो तारीख़ को पहुँचूँगा। गाड़ी बाईस, डिब्बा सात, मिलना, प्यार-अलेक्सांद्र’

    मेहमान के आने के साथ दो दिनों में ही स्त्रेलत्सोव परिवार में जीवन एकदम बदल गया। ओलगा खिल गई, ख़ुश नज़र आने लगी, अब वह प्रायः घर से निकलती ही नहीं थी। नन्हें कोत्या में भी अस्थाई तौर पर खो गया बचपना लौट आया, दो दिन तक वह साशा ताऊ से चिपका रहा।

    अलेक्सांद्र मिख़ाईलोविच और निकोलाई नदी पर मछली पकड़ने गए थे। मछली पकड़ने के बाद विशाल छतनार एल्म की शीतल छाया में बैठकर वे नाश्ता करने ही लगे थे कि नदी के उस ओर से मोटरगाड़ी के इंजन का शोर सुनाई दिया और पल-भर को हॉर्न बजा।

    लगता है, मेरा बुलावा गया। तट पर उगती झाड़ियों पर नज़र गड़ाए निकोलाई ने कहा।

    कुछ हो गया क्या?

    कोई मीटिंग-वीटिंग होगी शायद, पता नहीं, क्या कुछ हो सकता है। जो भी है, बहुत बेमौक़ा है। भैया, अगर मैं चला गया तो तुम यहीं रहना। कल या तो मैं ख़ुद आऊँगा, खाना-वाना ले आऊँगा या किसी को भेज दूँगा। निकोलाई चुपचाप नाव की ओर चल दिया।

    पिछले साल ही लाल सेना से सेवामुक्त हुआ सीनियर लेफ़्टिनेंट पेत्लिन परेड मार्च करता हुआ अलेक्सांद्र मिख़ाईलोविच के पास गया और फिर टोपी तक हाथ उठाकर उसने सलामी दी।

    “साथी जनरल इजाज़त हो, और उसने लिफ़ाफ़ा आगे बढ़ा दिया, “आपके नाम बीजपत्र है।

    अलेक्सांद्र मिख़ाईलोविच ने बीजपत्र पढ़ा। उसकी बाँछें खिल गईं। बग़ल में खड़े निकोलाई को कसकर बाँहों में भर लिया। उसकी साँस तेज़ चल रही थी, ज़रा रुक-रुककर बोल रहा था, लो, भैया, तुरंत मास्को पहुँचने का आदेश मिला है, नियुक्ति होगी। जनरल हेडक्वार्टर का ऑर्डर है? ठीक है! करेंगे सेवा अपनी जन्मभूमि की और अपनी कम्युनिस्ट पार्टी की। उसने निकोलाई को कसकर छाती से लगा लिया। इन सारे दिनों में पहली बार भाई की धुँधली पड़ गई आँखों में आँसू दिखे।

    निकोलाई पहली कतार में मार्च कर रहा था। टीले के शिखर पर पहुँचकर उसने पीछे नज़र डाली और सुखोई इल्मेन गाँव के लिए लड़ाई के बाद बचे सैनिकों को एक झलक देख लिया। इस नष्ट-भ्रष्ट रेजिमेंट की मंथर गति में कुछ ऐसा था, जो एक साथ ही भव्य भी था और मर्मस्पर्शी भी। निकोलाई ने इन जाने-पहचाने मुरझाए, स्याह पड़े चेहरों पर नज़र दौड़ाई। इन कमबख़्त पाँच दिनों में रेजिमेंट ने कितने लोग गँवाए थे। सहसा पल-भर को उसका गला रुँध आया, उसने अपना सिर झुका लिया और हैल्मेट आँखों पर सरका लिया, ताकि साथी उसके आँसू देख पाएँ।

    बथुए के घने झंखाड़ से भरे चौराहे पर एक बार फिर पैदल सैनिकों के बूटों की धमाधम दब गई। बस, पौधों के भारी लटकते सिरों के चमड़े से रगड़ खाने की आवाज़ रही थी और उनके हरे बीजाणु सैनिकों के बूटों पर गिर रहे थे। धूल की घुटनभरी गंध में अब बथुए की भीनी-भीनी उदासी-भरी महक मिल गई थी।

    दोन के निस्सीम मैदान—स्तेपी में खोए इस छोटे से गाँव तक भी युद्ध पहुँचा। अस्पताल की गाड़ियाँ खड़ी थीं, गलियों में सफ़रमैना आ-जा रहे थे, ऊपर तक लदे तीन टन के ट्रक ताज़े कटे पटरे नदी की ओर ले जा रहे थे। चौक से थोड़ी दूर एक बाग़ में विमानभेदी तोपें लगाई गई थीं। तोपें पेड़ों के पास खड़ी थीं। सबसे नज़दीक खड़ी तोप की ऊँची उठी डरावनी नाल को हल्के हरे, अधपके सेबों से लदी डाल ने अपने आलिंगन में ले रखा था।

    ज्यार्गित्सेव ने निकोलाई की बग़ल में कोहनी मारी और ख़ुशी से चिल्लाया, “अरे निकोलाई, यह तो अपनी किचन है। ख़ुश हो जा प्यारे! पड़ाव भी डलेगा यहाँ और ठंडे पानी की नदी भी है। और क्या ख़ाक चाहिए!

    रात उन्होंने उसी बाग़ में बिताई।

    प्रात: निकोलाई शीघ्र ही जाग गया। बग़ीचे में मुरझाती घास की, धुएँ की और जली खिचड़ी की गंध फैल रही थी। फ़ील्ड किचन के पास निकोलाई का दोस्त टैंकमार बंदूक का प्योत्र लोपाखिन अपनी टेढ़ी टाँगें फैलाए खड़ा था। वह सिगरेट पी रहा था और अलसाया-सा बावर्ची लिसीचेचरो से तू-तू मैं-मैं कर रहा था।

    लोपाखिन से निकोलाई की दोस्ती हुए ज़्यादा समय नहीं हुआ था। 'उज्ज्वल पय' नामक राजकीय फ़ार्म के लिए लड़ाई में उनकी खंदकें पास-पास थीं। लोपाखिन एक दिन पहले ही आख़िर कुमक के साथ रेजिमेंट में आया था। निकोलाई उसे लड़ाई में पहली ही बार देख रहा था। उसने यह देखा था कि कैसे टैंक की चक्रपट्टी के नीचे पीली, चिकनी मिट्टी लोपाखिन की खंदक में ढही और उसने सोचा कि टैंकमार बंदूकची मारे गए। लेकिन कुछ क्षण बाद ही अधढही खंदक में से अभी तक बैठ पाई पीली धूल के बादल में से बंदूक की लंबी नली निकली, एक धमाका हुआ और सहसा थम गए टैंक के काले बख़्तर पर आग की लपट छिपकली-सी लपक गई और फिर घना काला धुआँ निकलने लगा। प्राय: उसी क्षण लोपाखिन ने निकोलाई को आवाज़ लगाई, अबे ओ, कलुए मच्छड़ ज़िंदा है? गोली क्यों चलाता बे? देखता नहीं, वो चले रहे हैं!

    पहली बार ज़रा देर को घोड़ा दबाकर निकोलाई ने मेड़ पर उगते डेज़ी के सफ़ेद फूल उड़ा दिए, फिर जब थोड़ा नीचे निशाना लेकर गोली चलाई तो अपनी मशीनगन की ज़ोरदार तड़ातड़ के पीछे दो बार निकली तीखी चीख़ उसने बड़े आनंद से सुनी।

    उसी शाम लड़ाई के बाद लोपाखिन खंदक में बनी कोठरी में आया। उन दोनों में सचमुच ही सैनिकों की सरलता-भरी और गाढ़ी दोस्ती हो गई। दोनों नदी की ओर चल दिए। लोपाखिन ने सुझाया, चल, पुल पार कर लेते हैं, वहाँ पानी ज़्यादा गहरा होगा।

    नहाकर निकोलाई ने ताज़गी महसूस की। सिर का दर्द मिट गया। उसने लोपाखिन से कहा, ऐसे स्नान के बाद एक-एक जाम और घर का बना बढ़िया शोरबा मिल जाए तो बस और क्या चाहिए! मगर इस कमबख़्त लिसीचेंको ने फिर वही खिचड़ी बना रखी है! मर जाए साला खिचड़ी हड़प-हड़प के! इतने में उनकी जान-पहचान के दो सैनिक बाँध के दूसरी ओर से प्रकट हुए। जब वे लोपाखिन के पास पहुँचे तो उसने अपनी गर्दन शिकारी पंछी की तरह तानकर पूछा, “पोटली में क्या है जवानो?

    चिंगट। लंबू ने अनिच्छा से उत्तर दिया।

    हमें भी साथ रख लो, डोल और नमक लाना मेरा काम, उबालेंगे मिलकर, ठीक है?

    निकोलाई ने अपनी खिचड़ी ख़त्म की और अपना बर्तन धोकर पोंछ दिया। लोपाखिन ने अपने हिस्से की खिचड़ी नहीं खाई। वह अलाव के पास पंजों के बल बैठा डोल में डंडी चला रहा था और लालायित नज़रों से चिंगटों को देख रहा था।

    फ़ील्ड अस्पताल की गाड़ियाँ पूरब को जा रही थीं। सबसे आख़िर में नई अमरीकी लारी थी, उसका हरा रोगन धुँधला-सा चमक रहा था, लेकिन उसमें गोलियों से छेद हो चुके थे।

    गाड़ी पर तिरपाल ही तान देते, निकोलाई ने झुँझलाते हुए कहा, ऐसी गर्मी है, भुन जाएँगे बेचारे!

    निकोलाई कान लगाकर सुनने लगा। गाँव में अशुभ सन्नाटा छाया हुआ था। शीघ्र ही परिचय से तोपों की जानी-पहचानी, कराह-भरी धमाधम कानों में पड़ने लगी।

    'चख लिए चिंगट! हताशा-भरे स्वर में लोपाखिन ने कहा।

    सचमुच वे चिंगट नहीं उबाल पाए। कुछ मिनट बाद ही रेजिमेंट को सावधान किया गया। कप्तान सुस्कोप ने लाइन बनाकर खड़े हो गए सैनिकों पर नज़र दौड़ाई और कहा, साथियो! हमें आदेश मिला है...गाँव के पीछे टीले पर हमें शत्रु का सामना करना है और जब तक एक भी आदमी बचा रहेगा, हम डटे रहेंगे।

    निकोलाई ने कंधे बिचकाए और गोलमटोल-सा जवाब दिया, डटे तो रहना चाहिए। लेकिन मन ही मन उसने सोचा...यह है युद्ध का रोमांच! रेजिमेंट में इने-गिने लोग रह गए हैं, बस ध्वज, कुछ मशीनगनें और टैंकमार बंदूकें, किचन बचा पाए हैं...और अब आड़ बनकर डटने जा रहे हैं।'

    पवनचक्की के पास कोई सात साल का एक लड़का खड़ा था, जिसके पटसनी बाल धूप में सफ़ेद लग रहे थे। निकोलाई ने उसे ध्यान से देखा तो आश्चर्य से उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। हूबहू उसके अपने बेटे जैसा...कहाँ है अब उसका नन्हा, उसके कलेजे का टुकड़ा—कोत्या! निकोलाई का मन हुआ फिर से उस लड़के को एक नज़र देख ले, लेकिन उसने अपना मन मार लिया। आख़िर फिर वह लोभ संवरण कर सका, उसने मुड़कर देख ही लिया। लड़का सारे कालम को गुज़रते देख रहा था। अपना छोटा-सा हाथ सिर के ऊपर उठाकर हिलाते हुए उन्हें विदा कर रहा था। सुबह की ही भाँति निकोलाई के दिल में टीस उठी, कलेजा मुँह को गया और गला रुँध गया।

    सैनिक दबादब खंदकें खोदने में जुटे हुए थे। निकोलाई ने घुटने तक गहरी खंदक खोद ली और तब साँस लेकर कमर सीधी की। थोड़ी ही दूरी पर ग्यार्गिसेव खंदक खोद रहा था। पौने चार बजे थे। तभी दूर से आता इंजनों का शोर सुनाई दिया। टैंक रहे थे। निकोलाई गिनने लगा...चौदह टैंक थे। वे खोह में छिप गए। धावे से पहले आरंभिक स्थिति ग्रहण करते हुए अलग-अलग होने लगे और फिर लड़ाई के पहले के अपार आंतरिक तनाव-भरे अल्प क्षण गए। जब हृदय की धड़कन तेज़ हो जाती है और हर सैनिक को, उसके इर्द-गिर्द चाहे कितने भी साथी क्यों हों, पल-भर को अकेलेपन की तीव्र अनुभूति और कलेजे को चीरती उदासी महसूस होती है।

    खोह में इंजन गुर्राए, टैंक प्रकट हुए। उनके पीछे पैदल सिपाही कमर एकदम सीधी किए चल रहे थे। जब टैंकों ने आधे से अधिक फ़ासला तय कर लिया और झाड़ियों के पास पहुँचकर रफ़्तार बढ़ा ली तो निकोलाई को लंबे स्वर में दिया गया आदेश सुनाई दिया। सब मशीनगनों और टैंकों ने एक साथ तड़ातड़ गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं।

    मशीनगनों की बौछार तले ज़मीन से सटे पैदल सिपाहियों ने कुछेक बार उठने की कोशिश की, मगर हर बार उन्हें नीचे गिरना पड़ा। आख़िर वे उठे, तेज़ी से थोड़ी-थोड़ी दूर तक दौड़कर खंदका के पास आने लगे, लेकिन तभी टैंक एकदम घूम गए और वापस चल दिए, ढलान पर छह जलते और टूटे टैंक रह गए।

    निकोलाई ने पानी का घूँट भरकर अफ़सोस के साथ बोतल सूखे होंठों से अलग की, सावधानी से खंदक के बाहर झाँककर देखा।

    एक बार फिर गोलियों की बौछार के कारण टैंकों से पीछे छूटे पैदल सैनिक बूची ढलान पर लेट गए और फिर आगे निकल आए टैंक पूरी रफ़्तार से रक्षा लाइन की ओर बढ़ चले।

    चारों ओर घमासान लड़ाई हो रही थी। रेजिमेंट के गिने-चुने सैनिक अपनी अंतिम शक्ति बटोरकर डटे हुए थे। उनकी गोलाबारी क्षीण पड़ती जा रही थी; लड़ने में समर्थ लोग थोडे से ही बचे थे। ज़िंदा बचे सैनिक संगीनों से जर्मनों का सामना करने को तैयार हो रहे थे। उधर निकोलाई मिट्टी तले अधदबा-सा अभी भी खंदक के तले पर पड़ा हुआ था, सिसकियों के साथ लंबी-लंबी साँसों से फेफड़ों में हवा खींच रहा था। उसकी नाक में से ख़ून बह रहा था, गरम गुदगुदाता हुआ ख़ून! उसे बड़ी ज़ोर से कै हुई और वह ज़मीन पर गिर पड़ा। कुछ देर में ठीक हो गया।

    निकोलाई ने हौले-हौले सिर उठाया और अपनी धुँधलाई नज़र इधर-उधर दौड़ाते ही सब कुछ समझ गया, जर्मन बिलकुल पास ही थे।

    इस तरह मिनट बीत रहे थे, जो उसके लिए घंटों के समान थे।

    जर्मन बमों से खेतों में आग लग गई थी और दूर-दूर तक अनाज की तैयार खड़ी फ़सल सारी रात जलती रही थी। सारी रात आधे दहकते आकाश में दहकती, काँपती सुर्ख़ी छाई रही। जलते अनाज की गंध हवा के साथ पूरब की ओर रही थी।

    विस्फोटों की धूल अभी बैठी भी थी कि क्षितिज पर जर्मन विमानों की दूसरी लहर उभरी। कोई तीस बमवर्षक विमान थे। चार विमान अलग होकर रक्षा लाइन की ओर बढ़ चले।

    लोपाखिन ने मानो नींद में लेफ़्टिनेंट की तीखी ऊँची आवाज़ सुनी, दुश्मन के विमानों पर फ़ायर! पलांश में ही उसने फ़ायर किया, कंधे सारे शरीर में झटका महसूस किया। दूसरे वार में लोपाखिन ने टैंक का काम तमाम कर दिया। प्रायः उसी समय दो और टैंक भी जल गए।

    आधे घंटे के बाद जर्मनों ने दुबारा हमला किया। इस बार जलते टैंक का इंजन मानो असह्य पीड़ा से गुर्रा उठा। टैंक सीधा समकोण पर पहुँचकर घूम गया, बाग़ में घुस गया और वहाँ गोलाबारी से टूटे चेरी के घने पेड़ों की टहनियों से आग बुझाने की कोशिश करने लगा।

    सूरज डूबने से थोड़ी देर पहले पुल पर क़ब्ज़ा करने की अपनी नाकाम कोशिशों से पस्त जर्मनों ने हमले बंद कर दिए, टीलों पर खंदकें खोदकर जम गए और धावा बोलना छोड़कर पुल पर और कछार के सूने रास्तों पर विधिवत् गोलाबारी करने लगे। शाम को पुल के रास्ते की रक्षा कर रही टुकड़ियों को दोन के बाएँ पट पर हटने का आदेश मिला। और जब अँधेरा घिर आया तो टुकड़ियाँ ज़रा भी आहट किए बिना जले हुए गाँव के खंडहरों के पार जंगल से होते हुए दोन की ओर जाने लगीं।

    रात को बारिश होती रही। पौ फटते ही थम गई। सूबेदार ने सबको नींद से उठाया और खाँसी से बैठे गले से कहा, हमें लेफ़्टिनेंट को ढंग से दफ़नाकर आगे चलना चाहिए।

    अभी कल ही तो लोपाखिन ने लेफ़्टिनेंट की खंदक में वोदका पी थी, अभी कुछ घंटे पहले तक तो पिस्तौल केस की यह तनियाँ और यह बैग उसकी सुघड़, गरम देह पर अच्छी तरह बैठे हुए थे। अब यही देह क़ब्र के पास निश्चल रखी हुई है, मृत्यु ने इसे छोटा कर दिया है। ख़ून से सनी बरसाती में लिपटा लेफ़्टिनेंट गोलोश्चेकोव यहाँ लेटा हुआ है और उसके पीले चेहरे पर वर्षा की बूँदें ज्यों की त्यों पड़ी हुई हैं!...और अब विदाई का अंतिम क्षण गया है!

    दो सैनिक क़ब्र में कूद गए। बड़े ध्यान से उन्होंने लेफ़्टिनेंट का शव क़ब्र में उतारा। सलामी में तीन बार बंदूकें दाग़ी गईं। लोपाखिन का दिल कभी भी इतना भारी, इतना उदास नहीं हुआ था, जितना इस समय।

    रात की हुई वर्षा के बाद जंगल जवान हो उठा था। उसे निहारते हुए स्त्रेलत्सोव ने विचारमग्न स्वर में कहा, कितना सुंदर है! है न?”

    लोपाखिन ने कनखी से अपने दोस्त को देखा, लेकिन बोला कुछ नहीं। लोपाखिन को भी प्रकृति से प्रेम था, किंतु इस समय वह कुछ नहीं देख रहा था, सिवाय शत्रु के वाहनों से उठती धूल के, जो धीरे-धीरे पश्चिम की ओर बढ़ रही थी। वहाँ पश्चिम में, नीली धुँध में डूबी दोन-तटीय स्तेपियों में लड़ाइयों में मारे गए उसके साथी रह गए थे; और भी दूर पश्चिम में उसका शहर रह गया था, जहाँ वह जन्मा था, जहाँ उसका परिवार था, उसके पिता का बनाया छोटा-सा मकान था और मकान के सामने पिता के लगाए छोटे से मेपल वृक्ष थे, जिन पर बारहों महीने कोयले की धूल जमी रहती थी और इसलिए वे बढ़ नहीं पाए थे, बौने ही रह गए थे। फिर भी सुबह पिता के साथ खान में जाते समय उन्हें एक नज़र देख लेने से ही दिल खिल उठता था।

    डिवीजन कमांडर कर्नल मार्चेको शहर के पास लड़ाई में घायल हुआ था। सुबह पट्टियाँ बदलने के बाद कर्नल मार्चेको ने चाय का गिलास पिया और आराम करने लेट गया। उसे झपकी आई ही थी कि किसी ने दरवाज़े पर हौले से दस्तक दी। इजाज़त पाने की प्रतीक्षा किए बिना, स्टाफ़-चीफ़ मेजर गोलोव्कोव अँधेरे कमरे में घुस आया और भर्राए स्वर बोला, अड़तीसवीं रेजिमेंट आई है।

    उसने सारी शक्ति जुटाकर बेगानी-सी आवाज़ में पूछा, कैसे हैं?

    “सत्ताईस सैनिक हैं, उनमें पाँच घायल हैं। रेजिमेंट का ध्वज उन्होंने बचाए रखा है। जवान बाहर लाइन में खड़े हैं, और फिर कर्नल से मुँह सटाकर कहा, वसीली, तुम उठो नहीं, भैया, मैं सलामी लूँगा, तुम्हारी हालत इतनी ख़राब है।

    कुछ क्षण मार्चेको खाट पर बैठा पट्टी से बँधे सिर पर हाथ रखे हौले-हौले डोलता रहा। पुनः आत्मबल के अंतिम प्रयास से दृढ़ स्वर में बोला, मैं उनके पास जाऊँगा। तुम्हें पता है, क्योदोर, इस ध्वज तले लड़ाई से पहले आठ साल तक मैंने सैनिक सेवा की है...मैं ख़ुद उनकी सलामी लूँगा!

    मकान के ओसारे से मोर्च को धीरे-धीरे सावधानी से उतरा, हाथ से रेलिंग का सहारा लेकर। जब उसने ज़मीन पर पाँव रखा तो सत्ताईस जोड़ी घिसी एड़ियाँ एक साथ चटखीं। कर्नल ने रुककर अपनी एक खुली आँख से, जो काले मनके की तरह चमक रही थी, सैनिकों पर नज़र दौड़ाई और फिर सहसा उसकी ज़ोरदार आवाज़ गूँजी, ‘‘जवानो! मातृभूमि कभी भी तुम्हारा पराक्रम नहीं भूलेगी और ही तुम्हारी यातनाएँ!

    धन्य हो तुम कि तुमने रेजिमेंट का ध्वज बचाए रखा। दुश्मन भले ही अभी आगे बढ़ रहा है, लेकिन विजय हमारी ही होगी। तुम लोग जर्मनी तक अपनी यह ध्वज ले के जाओगे और तब उस अभिशप्त देश में हाहाकार मचेगा जिसने लुटेरे, आततायियों और हत्यारों के झुंडों को जन्म दिया है। जर्मन धरती पर अंतिम लड़ाइयों में तब हमारी सेना...हमारी महान् मुक्तिवाहिनी सेना के लाल ध्वज लहराएँगे। धन्यवाद तुम्हारा सैनिको!

    भारी, ढलवाँ तहों में दंड से लटकते लाल ध्वज का धुँधला सुनहरा झब्बा हवा से हिल रहा था। धीमे क़दमों से ध्वज के पास आकर कर्नल ने एक घुटना टेका। पट्टी बँधा सिर श्रद्धा से झुकाकर काँपते होंठों से मखमली ध्वज चूमा, जिससे बारूद और लंबे मार्चों की धूल की गंध तथा स्तेपी की नागदौन की अमिट गंध रही थी।

    लोपाखिन अपने जबड़े भींचे और बिना हिले-डुले खड़ा था। दाहिनी ओर से रुँधी सिसकी सुनाई देने पर ही उसने सिर ज़रा-सा घुमाया। सूबेदार योप्रिश्चेंकी के, चौथे युद्ध में लड़ रहे बूढ़े सैनिक योप्रिश्चेंकी के, कंधे काँप रहे थे और बग़लों से सटी बाँहें हिल रही थीं, झुकी पलकों तले से झुर्रीदार गालों पर छोटे-छोटे चमकते आँसू बहते जा रहे थे। लेकिन कायदे का पालन करता सूबेदार आँसू पोंछने के लिए हाथ नहीं उठा रहा था, बस उसका सफ़ेद बालों वाला सिर नीचे ही नीचे झुकता जा रहा था...

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 254-262)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच शोलोख़ोव
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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