छुट्टी का दिन

chhutti ka din

शशिभूषण द्विवेदी

शशिभूषण द्विवेदी

छुट्टी का दिन

शशिभूषण द्विवेदी

और अधिकशशिभूषण द्विवेदी

    पूरा हफ़्ता बीत जाता है छुट्टी के दिन का इंतिज़ार करते और जब छुट्टी का दिन आता है तो मन और भी आतंकित हो जाता है। पूरा दिन एक ऊब और बेचैनी के साथ कैसे कटेगा—सोचते ही मन और भी झल्ला उठता है। छुट्टी के दिन की दिनचर्या भी अजीब होती है। देर तक सोने की इच्छा के बावजूद नींद लगभग समय पर ही खुलती है। कुनमुनाया, अलसाया... थोड़ी देर और सो लेने की कोशिश में थोड़ा सा वक़्त और जाया हो जाता है। आख़िर चाहते हुए भी उठना ही पड़ता है। हाथ-मुँह धोकर ट्रैक सूट पहनता हूँ। देखता हूँ पत्नी अभी तक मिट्टी के लोंदे की तरह बिस्तर पर बिखरी पड़ी है। उसे पता है कि आज छुट्टी का दिन है सो वह आज देर तक सोएगी। मन करता है कि उसके फैले हुए नितंबों पर एक ज़ोरदार लात मारूँ मगर फिर ख़ुद को सँभाल लेता हूँ। जानता हूँ कि अब चाहे अनचाहे सारा दिन इसी के साथ गुज़ारना है सो सुबह-सुबह उसे चूमने में ही भलाई है। मैं उसे चूमता हूँ लेकिन सुबह-सुबह उसके मुँह की बास मेरे भीतर एक अजीब तरह की मितली पैदा कर देती है। मन करता है कि उसकी बिखरी हुई देह पर उल्टी कर दूँ लेकिन कर नहीं पाता। बहुत सी चीज़ें हम चाहकर भी नहीं कर पाते। जैसे हम चाहकर भी महँगाई को नहीं रोक पाते। हाँ, महँगाई से याद आया—दो महीने हो गए बिजली का बिल जमा किए। इस महीने जमा किया तो कनेक्शन ही कट जाएगा। सोचा था इस छुट्टी में करा ही दूँगा, हर बार टल जाता है। हालाँकि बिजली पानी का बिल जमा कराना भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। छुट्टीवाले दिन वैसे भी आधे ही दिन बिल जमा होते हैं। फिर इतनी लंबी लाइन लगती है कि पूछो मत। समझिए कि आधा दिन तो इसी में गया। मैं घड़ी देखता हूँ। सुबह के सात बज रहे हैं। मैं पत्नी को घर में सोता छोड़कर बाहर घूमने निकल जाता हूँ। सुबह घूमने के बहाने एक पंथ दो काज हो जाते हैं। दरअसल घर ख़र्च कम करने की कवायद में दो तीन महीने पहले पत्नी ने घर आने वाला अख़बार बंद करा दिया। पत्नी को लगता है कि अख़बार ख़रीदना फ़िज़ूलख़र्ची है और अख़बार पढ़ना समय की बर्बादी। आख़िर होता ही क्या है अख़बारों में आजकल—वही रोज़ की बासी ख़बरें-चोरी, छिनैती, बलात्कार, घोटाले...। लेकिन सुबह-सुबह अख़बार पढ़ने की अपनी बरसों पुरानी आदत मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया। सुबह सुबह अख़बार पढ़ो तो लगता है कि दिन की ठीक से शुरुआत ही नहीं हुई। पहले मैं सुबह सुबह बाथरूम में अख़बार लेकर घुस जाता था और नित्यकर्म करते हुए पूरा अख़बार चाट लेता था। फिर तर-ओ-ताज़ा होकर बाहर आता था। तब तक पत्नी भी चाय बनाकर ले आती थी और हम इत्मीनान से चाय पीते थे। लेकिन अब वे सब बीते दिनों की बातें हो गईं। अब तो सुबह टहलने के बहाने चाय की दुकान पर खड़े खड़े ही अख़बार भी पढ़ लेता हूँ। हालाँकि शुरू शुरू में ख़ाली-पीली अख़बार पढ़ने पर चायवाला भी मुझे बहुत तिरस्कारपूर्ण नज़रों से घूरता था और बार बार आकर पूछ जाता था कि साहब चाय चलेगी। मेरे मना करने पर वह बुरा-सा मुँह बना लेता। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ कि उसने सीधे सीधे मुझसे कह दिया कि साहब गाहकों को बैठने दीजिए। धंधे का टाइम है। आपका क्या है, आप तो मुफ़त में अख़बार पढ़कर चले जाएँगे। धंधा तो हमारा खोटा होगा। उसकी ऐसी बातों का मुझे सचमुच बहुत बुरा लगता था। इस बुरे लगने के चलते ही अब कभी कभी मैं उसे हाफ़ चाय या सिगरेट का आर्डर दे देता हूँ और बदले में वह मुझे चुपचाप अख़बार पढ़ने देता है। हालाँकि हाफ़ कप चाय के बदले घंटे भर उसे मेरा अख़बार पढ़ना अब भी अखरता है लेकिन बेशर्मी से मैंने अब उसकी ओर ध्यान देना छोड़ दिया है।

    चाय की दुकान पर सबसे पहले मैं अपना राशिफल देखता हूँ, फिर मौसम का हाल। राशिफल में लिखा है कि आज कोई शुभ सूचना मिलेगी और धनोपर्जन होगा। मैं सोचता हूँ कि आज महीने की बीसवीं तारीख़ है। धनोपर्जन की तो कहीं कोई संभावना नज़र नहीं आती बल्कि ख़र्च ही ख़र्च होना है। यही हाल मौसम के हाल का है। उसमें लिखा है आसमान साफ़ रहेगा लेकिन कहीं कहीं हल्की बूँदाबाँदी हो सकती है। मगर यहाँ तो सुबह से ही ज़बरदस्त बारिश के आसार नज़र रहे हैं। अख़बार में और भी तमाम ख़बरें हैं—मसलन पेट्रोलियम मंत्री ने पेट्रोल और डीज़ल के दामों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी के संकेत दिए हैं और कृषि मंत्री का कहना है कि महँगाई रोकने के लिए उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। केंद्र इसके लिए राज्य सरकारों को दोष दे रहा है और राज्य सरकारें केंद्र को कोस रही हैं। बयान, बयान और बयान। पूरा अख़बार नेताओं और मंत्रियों की बयानबाज़ी से अटा पड़ा है। मैं सिगरेट के साथ हाफ़ चाय सुड़ककर अख़बार रख देता हूँ और सोचता हूँ अब सिगरेट भी छोड़ ही देनी चाहिए। सेहत और ख़र्च दोनों लिहाज़ से यह एक अच्छा विचार है। हालाँकि यह अच्छा विचार इससे पहले भी मुझे सैकड़ों बार आया है लेकिन उस पर अमल करने का विचार रोज़ अगले दिन के लिए टल जाता है।

    मैं देखता हूँ घड़ी में आठ बज रहे हैं और आसमान में बादल घने हो रहे हैं। मुझे जल्द ही नहा-धोकर बिजलीघर जाना होगा वरना बारिश से सब गुड़ गोबर हो सकता है। मैं तेज़ क़दमों से घर की ओर लौट पड़ता हूँ। घर में पत्नी रसोई में उठापटक कर रही है। यह उसकी रोज़ की खीझ है जो रसोई में बर्तनों पर निकलती है जिसे मैं रोज़ की तरह ही सुनकर अनसुना कर देता हूँ। लेकिन तभी उसकी खीझभरी आवाज़ आती है—'गैस ख़त्म हो गई है। कितने दिन से कह रही थी बुक करवा दो... लेकिन कोई सुने तब न...'

    —'गैस के दाम भी बढ़ गए हैं।' मैं कहता हूँ।

    —'तो?'

    —'तो... तो कुछ नहीं। आज बिजलीघर जाना है बिल जमा कराने।'

    —'पहले गैस का कुछ इंतिज़ाम करो।'

    मैं नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाता हूँ। पत्नी की बड़बड़ाहट नल के पानी के शोर में गुम हो जाती है। मेरे नहाकर बाथरूम से बाहर आने तक पत्नी ने नाश्ता तैयार कर दिया है। नाश्ता करते हुए मैं गुनगुनाने लगता हूँ—गिलोरी बिना चटनी कैसे बनी...। लेकिन पत्नी मुझे अनसुना करते हुए बड़बड़ा रही है जैसे मैं उसे अनसुना करते हुए गुनगुना रहा हूँ।

    —'सिलेंडर झुकाकर थोड़ी-सी गैस निकल आई लेकिन जैसे भी हो दोपहर तक कहीं से भी गैस का बंद-ओ-बस्त करो वरना खाना भी नहीं बन पाएगा। कितनी बार कहा कि दूसरा सिलेंडर बुक करवा लो। कभी अचानक गैस ख़त्म हो जाए तो ये दिन तो देखना पड़े... मगर सुनता कौन है...'

    —'अब ठीक है... बिजलीघर जाते हुए बुक करवाता आऊँगा।'

    —'बुक वुक नहीं... गैस आज ही आनी चाहिए और अभी।' मैं कोई जवाब नहीं देता और तैयार होकर घर से निकल पड़ता हूँ। दस बज गए हैं। बाहर हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई है। शुक्र है कि मौसम को देखते हुए छतरी साथ लेता आया था। बिजलीघर पहुँचते पहुँचते बारिश और भी तेज़ हो गई लेकिन बिल जमा कराने वालों की लाइन में कहीं कोई कमी नहीं आई। बिल काउंटर के पास कीचड़ ही कीचड़ हो गया है। बारिश की फुहारों से बचने के लिए लोग ठेलमठेल मचाए हैं। लाइन इतनी लंबी है कि लगता नहीं कि दो घंटे बाद भी मेरा नंबर पाएगा। काउंटर क्लर्क इतना सुस्त है कि एक एक आदमी पर दस दस मिनट लगा रहा है। लोग कुनमुना रहे हैं और सरकारी कर्मचारियों की काहिली को कोस रहे हैं। बीच बीच में कोई काउंटर क्लर्क का जान पहचानवाला जाता है तो उसका काम आउट आफ़ वे जाकर भी हो जाता है जिससे लाइन में लगे लोगों का ग़ुस्सा बढ़ जाता है और हल्ला शुरू हो जाता है। हालाँकि इस हल्ले का कोई असर नहीं होता। बस लोग बड़बड़ाते रहते हैं और जान पहचानवाले या दबंग लोग लाइन को धकियाकर अपना काम करा ले जाते हैं। मैं घड़ी देखी साढ़े ग्यारह होने को आए। अब भी पाँच-सात लोग लाइन में हैं। मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। लगता नहीं कि आज मेरा नंबर पाएगा। एक एक पल भारी होता जा रहा है। ग्यारह बजकर पचास मिनट हो गए हैं। दो लोग अब भी मेरे आगे हैं। मैं हड़बड़ी में हूँ—भइया ज़रा जल्दी करो। काउंटर क्लर्क घुड़कर मेरी ओर देखता है। उसकी घुड़की में एक हिक़ारत है।

    —'काम ही कर रहा हूँ। कोई मक्खी तो मार नहीं रहा।' जानता हूँ कि क्लर्क से बहस करने का कोई मतलब नहीं, वरना अभी काउंटर बंद कर देगा। बहरहाल, मेरा नंबर आख़िरकार ही गया। घड़ी में अभी बारह बजने में पाँच मिनट बाक़ी हैं। मैं जैसे ही बिल की रसीद उसकी ओर बढ़ाता हूँ, वह पेशाब का बहाना करके उठ जाता है। मैं उसकी इस हरकत पर खीझ उठता हूँ पर कुछ कह नहीं पाता। पाँच मिनट बाद क्लर्क लघुशंका से निपटकर लौटता है और ऐलान कर देता है कि टाइम ख़त्म हो गया है, अब कल आना। मेरा दिल धक से रह जाता है। दो घंटे की मेहनत पर पानी फिरता नज़र आता है। अब मैं याचना की मुद्रा में गया हूँ।

    —'दो घंटे से खड़ा हूँ सर... प्लीज़ जमा कर लीजिए बिल... वरना...'

    —'वरना क्या? हम भी दो घंटे से काम ही कर रहे हैं, कोई झख तो नहीं मार रहे। इतनी ही जल्दी थी तो समय पर क्यों नहीं आए?'

    —'प्लीज़ सर... बड़ी मुश्किल से पाया हूँ... मेहरबानी होगी...' मेरे चेहरे पर जाने कैसा तो दीनता का भाव है कि क्लर्क थोड़ा पसीजने लगता है।

    —'अच्छा लाओ... लेकिन बाक़ी सब कल आएँ।' मेरी जान में थोड़ी जान आती है। आख़िरकार मेरा बिल जमा हो जाता है मगर पीछे से फिर वही शोर शुरू हो जाता है—प्लीज़ सर... प्लीज़ सर... लेकिन तब तक खिड़की बड़ी बेरहमी से बंद हो जाती है। मैं ख़ुश हूँ कि आख़िरकार मेरा बिल जमा हो गया। मुझमें एक विजेता का सा भाव घर करने लगता है।

    बाहर बारिश और भी तेज़ हो गई है। घड़ी साढ़े बारह बजा रही है। अब मुझे फ़ौरन गैस स्टेशन की ओर भागना होगा वरना घर में खाना नहीं बनेगा। गैस स्टेशन पहुँचते पहुँचते एक डेढ़ बज जाते हैं मगर बारिश थमने का नाम नहीं लेती। मैं लगभग आधे से ज़ियादा भींग चुका हूँ। स्टेशन पहुँचने पर पता चलता है कि आज तो छुट्टी का दिन है। 'हे भगवान, अब क्या होगा?' मेरे हाथ-पाँव फूलने लगते हैं। मैं आस-पास लोगों से पूछता हूँ। रिरियाता हूँ। घर में गैस ख़त्म होने का हवाला देता हूँ। मेरे पेट में चूहे भी कूदने लगे हैं। घर में पत्नी भी भूखी होगी, मैं सोचता हूँ। तभी बीड़ी का सुट्टा लगाता हुआ एक दलाल टाइप आदमी मेरे पास आता है। वह घूरकर एक नज़र मेरी ओर देखता है।

    —'गैस चाहिए?'

    —'हाँ।'

    —'ब्लैक में मिलेगा। तीस परसेंट एक्स्ट्रा।'

    —'ये तो बहुत ज़ियादा है। कुछ कम में नहीं होगा?'

    —'लेना है तो बोलो वरना रास्ता नापो।' मुझे पत्नी का खीझ और हताशा से भरा चेहरा याद जाता है। मैं फ़ौरन हाँ कह देता हूँ।

    —'कितना लगेगा?'

    —'सात सौ रुपए।' मैं पर्स टटोलता हूँ। पर्स में सिर्फ़ पाँच सौ रुपए हैं। मैं पाँच सौ रुपए उसे सौंप देता हूँ।

    —'सिलेंडर घर पहुँचाओ। बाक़ी के पैसे घर पर दूँगा।'

    —'सिलेंडर घर पहुँचाने के पचास रुपए एक्स्ट्रा लगेंगे।' वह मेरी मजबूरी का फ़ायदा उठा रहा है। मैं कहता हूँ—'ये तो ज़ियादती है।'

    —'ज़ियादती वादती कुछ नहीं। एक तो छुट्टी का दिन, ऊपर से मौसम देख रहे हैं।' मैं झल्लाता हूँ मगर कुछ नहीं कर पाता। फ़ौरन सिलेंडर घर पहुँचाने को कहकर उसके साथ चल देता हूँ। घड़ी में दो बज रहे हैं। बारिश अब भी रुकने का नाम नहीं ले रही। हालाँकि गैस मिल जाने से मेरे भीतर एक सुकून-सा गया है। अब बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध मुझे अच्छी लगने लगी है।

    सिलेंडर के साथ जैसे-तैसे मैं घर पहुँचता हूँ। ढाई बज चुके हैं। पत्नी का पारा सातवें आसमान पर है। मैं उसकी ओर ध्यान नहीं देता और गैस वाले का बक़ाया भुगतान कर उसे रवाना कर देता हूँ। पत्नी भी बिना मुझसे कुछ कहे सिलेंडर रसोई में रखवा लेती है और खाना बनाने जुट जाती है। कुकर की सीटी और खाने की ख़ुश्बू से मेरी भूख और भी बढ़ जाती है। इस बीच मैं रूठी पत्नी को मनाने की योजना बनाने लगता हूँ। साढ़े तीन तक खाना बनकर तैयार हो जाता है और मैं झटपट खाने बैठ जाता हूँ। खाना आज कुछ ज़ियादा ही स्वादिष्ट लग रहा है। मैं भरपेट खाकर एक ज़ोरदार डकार लेता हूँ। पत्नी भी चुपचाप खाना खाकर बर्तन समेटकर रसोई में चली जाती है। मैं आराम की मुद्रा में थोड़ी देर टीवी देखने के लिए टीवी ऑन करता हूँ मगर बिजली गुल है। कमबख़्त बिजली में भी इन दिनों सात-आठ घंटे की कटौती होने लगी है। रोज़ रोज़ के धरना प्रदर्शन के बावजूद बिजली की हालत इन दिनों बद से बदतर होती जा रही है। अभी चार दिन पहले ग़ुस्साए लोगों ने बिजली विभाग के एसडीओ की उसके दफ़्तर में सरेआम पिटाई ही कर दी। मगर सरकार के कान पर जूँ रेंगने का नाम नहीं लेती। हारकर मैं बिस्तर पर लौटकर लेट जाता हूँ। हालाँकि नींद फिर भी नहीं आती। मैं बार-बार घड़ी देखता हूँ। साढ़े चार बज चुके हैं। मैं पत्नी को मनाने की तरकीबें सोचता हूँ और उठकर रसोई में चला आता हूँ जहाँ पत्नी चाय बना रही है। इस बेचारी को छुट्टी के दिन भी आराम नहीं सिवाय सुबह थोड़ी देर ज़ियादा सो लेने के। मैं उसे पीछे से अपनी बाँहों में भर लेता हूँ। वह झुँझला जाती है।

    —'क्या कर रहे हो... छोड़ो... खिड़की खुली है कोई देख लेगा।'

    —'देखता है तो देखे... अब तो खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों।' मैं रोमांटिक मूड में गुनगुनाने लगता हूँ।

    —'क्या बात है... बड़ी मस्ती के मूड में हो।' पत्नी की आँखों में शरारत है। उसका ग़ुस्सा काफ़ूर हो उठा है। मैं उसके इसी अंदाज़ पर रीझ उठता हूँ। तमाम परेशानियाँ उसकी एक मुस्कान के आगे बौनी हो जाती हैं। मैं झट से उसके होठों को चूम लेता हूँ और उसे बाँहों में भरे भरे नाचने लगता हूँ—'छुट्टी का दिन है कि मस्ती में हैं हम... मस्त मस्त मस्ती... याहू्...' पत्नी प्यार से मुझे झिड़क देती है, 'अब बचपना छोड़ो और चलो चाय पियो।' मैं चाय का कप लिए उसके साथ ड्राइंगरूम में जाता हूँ। अब तक बिजली भी गई है। हम टीवी देखते हुए चाय पीने लगते हैं। शाम के साढ़े पाँच बज चुके हैं। पत्नी बाज़ार चलने की फ़रमाइश करने लगती है। मैं उसका मूड ख़राब करना नहीं चाहता। हालाँकि मन ही मन आज हुए ख़र्च का हिसाब लगाने लगता हूँ। एक ही दिन में कुल चार हज़ार की चपत लग चुकी है। 'ख़ैर... मौसम ख़ुशनुमा है और छुट्टी का दिन ख़राब नहीं करना है।' मैं सोचता हूँ और फ़ौरन बाज़ार के लिए तैयार होने लगता हूँ।

    हम बाज़ार में हैं। शाम के सात बज रहे हैं। अँधेरा घिरने लगा है। बाज़ार में चारों ओर जगमगाहट है। लगता है जैसे मौसम का लुत्फ़ लेने पूरा शहर घरों से बाहर निकल आया है। नए-नए जोड़े हाथों में हाथ में डाले इत्मीनान से टहल रहे हैं या आइसक्रीम खा रहे हैं।

    —'कितने दिन हुए इतने अच्छे मौसम में हमें बाजार आए... न।' पत्नी कहती है और मैं उसकी हाँ में हाँ मिला देता हूँ। टहलते-टहलते हम एक शापिंग मॉल के सामने जाते हैं। मॉल रंग बिरंगी रोशनियों में जगमगा रहा है और अपनी भव्यता और वैभव से पूरे शहर को मुँह चिढ़ा रहा है। शहर में पिछले दो साल में पाँच मॉल और मल्टीप्लैक्स खुले हैं और सब एक से बढ़कर एक। इस बीच रेहड़ी और खोमचे वालों की एक पूरी दुनिया ही उजड़ गई है और साप्ताहिक हाट बाज़ार का हाल बद से बदतर हो गया है। मॉल के आस पास रेहड़ी और खोमचे लगाने की सख़्त मनाही है और कभी भूल से भी किसी ने ऐसा दुस्साहस कर लिया तो उसके लिए पुलिस का ज़ालिम डंडा तो है ही। बहरहाल, मॉल के आगे लंबी लंबी गाड़ियों की लाइन लगी है और उसमें चढ़ते उतरते लोग मुझमें बेतरह हीनभावना पैदा कर रहे हैं। वे किसी दूसरी दुनिया से आए हुए लगते हैं जिनकी जेबें नोटों से भरी हुई हैं और जिनके चेहरे पर कहीं किसी दुःख, परेशानी या मुश्किल के निशान नहीं हैं।

    मॉल के भीतर जगमग रोशनियों के बीच वस्तुओं का पूरा बाज़ार है जिनके ऊपर उनकी क़ीमतों के टैग लगे हैं। यहाँ हर चीज़ ब्रांडेड है और ब्रांड की ही क़ीमत है। लोग यहाँ चीज़ें अपनी ज़रूरत के हिसाब से नहीं, ब्रांड के हिसाब से लेते हैं। एक ब्रांडेड जींस की क़ीमत चार हज़ार, जूता सात हज़ार और बित्ते भर टॉप दो हज़ार। मेरे बग़ल में खड़ी एक अल्ट्रा मॉड लड़की झटपट एक जींस और टॉप उठाती है और उन्हें आज़माने के लिए ट्रायल रूम में घुस जाती है। दो मिनट बाद जब वह बाहर आती है तो मैं देखता हूँ उन कसे हुए कपड़ों में उसका शरीर जैसे फट पड़ने का आतुर है। डीप नेक टॉप और लो हिप जींस में उसका शरीर और भी दिलकश हो उठा है। मैं पत्नी से नज़रें बचाकर उसके शरीर के खुले गोपन अंगों को घूरने लगता हूँ और वह क्रेडिट कार्ड से पेमेंट कर बेपरवाही से टहलते हुए मॉल से बाहर निकल जाती है। पत्नी वहाँ तमाम चीज़ों को ललचाई निगाहों से उठा उठाकर देख रही है फिर उनकी क़ीमतें पढ़कर मायूस हो जाती है और चुपचाप उन्हें यथास्थान रख देती है। कुछ ज़रूरी चीज़ों की ख़रीदारी के बाद हम जगमग रौशनियों के उस संसार से बाहर जाते हैं। घड़ी में साढ़े आठ बज रहे हैं। रास्ते में गोलगप्पे खाने के बाद अपनी तमाम तमाम अधूरी इच्छाओं के साथ हम घर की ओर लौट पड़ते हैं। आख़िर सुबह दफ़्तर के लिए जल्दी उठना भी तो है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कहीं कुछ नहीं (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : शशिभूषण द्विवेदी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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