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भिखारिन

bhikharin

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    जाह्नवी अपने बालू के कंबल में ठिठुरकर सो रही थी। शीत कुहासा बनकर प्रत्यक्ष हो रहा था। दो-चार लाल धाराएँ प्राची के क्षितिज में बहना चाहती थीं। धार्मिक लोग स्नान करने के लिए आने लगे थे।

    निर्मल की माँ स्नान कर रही थी, और वह पंडे के पास बैठा हुआ बड़े कुतूहल से धर्म-भीरु लोगों की स्नान-क्रिया देखकर मुस्करा रहा था। उसकी माँ स्नान करके ऊपर आई। अपनी चादर ओढ़ते हुए स्नेह से उसने निर्मल से पूछा—“क्या तू स्नान करेगा?”

    निर्मल ने कहा—“नहीं माँ, मैं तो धूप निकलने पर घर पर ही स्नान करूँगा।”

    पंडाजी ने हँसते हुए कहा—“माता, अबके लड़के पुण्य-धर्म क्या जानें? यह सब तो जब तक आप लोग हैं, तभी तक है।”

    निर्मल का मुँह लाल हो गया। फिर भी वह चुप रहा। उसकी माँ संकल्प लेकर कुछ दान करने लगी। सहसा जैसे उजाला हो गया—एक धवल दाँतों की श्रेणी अपना भोलापन बिखेर गई—“कुछ हमको दे दो, रानी माँ!”

    निर्मल ने देखा, एक चौदह बरस की भिखारिन भीख माँग रही है। पंडाजी झल्लाए, बीच ही में संकल्प अधूरा छोड़कर बोल उठे—“चल हट!”

    निर्मल ने कहा—“माँ! कुछ इसे भी दे दो।”

    माता ने उधर देखा भी नहीं, परंतु निर्मल ने उस जीर्ण मलिन वसन में एक दरिद्र हृदय की हँसी को रोते हुए देखा। उस बालिका की आँखों में एक अधूरी कहानी थी। रूखी लटों में सादी उलझन थी, और बरौनियों के अग्रभाग में संकल्प के जलबिंदु लटक रहे थे, करुणा का दान जैसे होने ही वाला था।

    धर्म-परायण निर्मल की माँ स्नान करके निर्मल के साथ चली। भिखारिन को अभी आशा थी, वह भी उन लोगों के साथ चली।

    निर्मल एक भावुक युवक था। उसने पूछा—“तुम भीख क्यों माँगती हो?”

    भिखारिन की पोटली के चावल फटे कपड़े के छिद्र से गिर रहे थे। उन्हें सँभालते हुए उसने कहा—“बाबूजी, पेट के लिए।”

    निर्मल ने कहा—“नौकरी क्यों नहीं करतीं? माँ, इसे अपने यहाँ रख क्यों नहीं लेती हो? धनिया तो प्रायः आती भी नहीं।”

    माता ने गंभीरता से कहा—“रख लो! कौन जाति है, कैसी है, जाना सुना; बस रख लो।”

    निर्मल ने कहा—“माँ, दरिद्रों की तो एक ही जाति होती है।”

    माँ झल्ला उठी, और भिखारिन लौट चली। निर्मल ने देखा, जैसे उमड़ी हुई मेघमाला बिना बरसे हुए लौट गई। उसका जी कचोट उठा। विवश था, माता के साथ चला गया।

    “सुने री निर्धन के धन राम! सुने री”

    भैरवी के स्वर पवन में आंदोलन कर रहे थे। धूप गंगा के वक्ष पर उजली होकर नाच रही थी। भिखारिन पत्थर की सीढ़ियों पर सूर्य की ओर मुँह किए गुनगुना रही थी। निर्मल आज अपनी भाभी, के संग स्नान करने के लिए आया है। गोद में अपने चार बरस के भतीजे को लिए वह भी सीढ़ियों से उतरा। भाभी ने पूछा—“निर्मल! आज क्या तुम भी पुण्य-संचय करोगे?”

    “क्यों भाभी! जब तुम इस छोटे से बच्चे को इस सर्दी में नहला देना धर्म समझती हो, तो मैं ही क्यों वंचित रह जाऊँ?”

    सहसा निर्मल चौंक उठा। उसने देखा, बग़ल में वही भिखारिन बैठी गुनगुना रही है। निर्मल को देखते ही उसने कहा—बाबूजी, तुम्हारा बच्चा फले-फूले, बहू का सोहाग बना रहे! आज तो मुझे कुछ मिले।”

    निर्मल अप्रतिभ हो गया। उसकी भाभी हँसती हुई बोली—“दुर पगली!”

    भिखारिन सहम गई। उसके दाँतो का भोलापन गंभीरता के परदे में छिप गया। वह चुप हो गई।

    निर्मल ने स्नान किया। सब ऊपर चलने के लिए प्रस्तुत थे। सहसा बादल हट गए, उन्हीं अमल-धवल दाँतो की श्रेणी ने फिर याचना की—“बाबूजी, कुछ मिलेगा?”

    “अरे, अभी बाबूजी का ब्याह नहीं हुआ। जब होगा, तब तुझे न्योता देकर बुलावेंगे। तब तक संतोष करके बैठी रह।” भाभी ने हँसकर कहा।

    “तुम लोग बड़ी निष्ठुर हो, भाभी! उस दिन माँ से कहा कि इसे नौकर रख लो, तो वह इसकी जाति पूछने लगी; और आज तुम भी हँसी ही कर रही हो!”

    निर्मल की बात काटते हुए भिखारिन ने कहा—“बहूजी, तुम्हें देखकर मैं तो यही जानती हूँ कि ब्याह हो गया है। मुझे कुछ देने के लिए बहाना कर रही हो!”

    “मर पगली! बड़ी ढीठ है!” भाभी ने कहा।

    “भाभी! उस पर क्रोध करो। वह क्या जाने, उसकी दृष्टि में सब अमीर और सुखी लोग विवाहित हैं। जाने दो, घर चलें!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 145)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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