बाज और साँप

baaj aur saanp

निर्मल वर्मा

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बाज और साँप

निर्मल वर्मा

और अधिकनिर्मल वर्मा

    समुद्र के किनारे ऊँचे पर्वत की अँधेरी गुफ़ा में एक साँप रहता था। समुद्र की तूफ़ानी लहरें धूप में चमकतीं, झिलमिलातीं और दिन भर पर्वत की चट्टानों से टकराती रहती थीं।

    पर्वत की अँधेरी घाटियों में एक नदी भी बहती थी। अपने रास्ते पर बिखरे पत्थरों को तोड़ती, शोर मचाती हुई यह नदी बड़े ज़ोर से समुद्र की ओर लपकती जाती थी। जिस जगह पर नदी और समुद्र का मिलाप होता था, वहाँ लहरें दूध के झाग-सी सफ़ेद दिखाई देती थीं।

    अपनी गुफ़ा में बैठा हुआ साँप सब कुछ देखा करता—लहरों का गर्जन, आकाश में छिपती हुई पहाड़ियाँ, टेढ़ी-मेढ़ी बल खाती हुई नदी की ग़ुस्से से भरी आवाज़ें। वह मन-ही-मन ख़ुश होता था कि इस गर्जन-तर्जन के होते हुए भी वह सुखी और सुरक्षित है। कोई उसे दु:ख नहीं दे सकता। सबसे अलग, सबसे दूर, वह अपनी गुफ़ा का स्वामी है। किसी से लेना, किसी से देना। दुनिया की भाग-दौड़, छीना-झपटी से वह दूर है। साँप के लिए यही सबसे बड़ा सुख था।

    एक दिन एकाएक आकाश में उड़ता हुआ ख़ून से लथपथ एक बाज साँप की उस गुफ़ा में गिरा। उसकी छाती पर कितने ही ज़ख़्मों के निशान थे, पंख ख़ून से सने थे और वह अधमरा-सा ज़ोर-शोर से हाँफ रहा था। ज़मीन पर गिरते ही उसने एक दर्द भरी चीख़ मारी और पंखों को फड़फड़ाता हुआ धरती पर लोटने लगा। डर से साँप अपने कोने में सिकुड़ गया। किंतु दूसरे ही क्षण उसने भाँप लिया कि बाज जीवन की अंतिम साँसें गिन रहा है और उससे डरना बेकार है। यह सोचकर उसकी हिम्मत बँधी और वह रेंगता हुआ उस घायल पक्षी के पास जा पहुँचा। उसकी तरफ़ कुछ देर तक देखता रहा, फिर मन-ही-मन ख़ुश होता हुआ बोला—क्यों भाई, इतनी जल्दी मरने की तैयारी कर ली?

    बाज ने एक लंबी आह भरी ऐसा ही दिखता है कि आख़िरी घड़ी पहुँची है लेकिन मुझे कोई शिकायत नहीं है। मेरी ज़िंदगी भी ख़ूब रही भाई, जी भरकर उसे भोगा है। जब तक शरीर में ताक़त रही, कोई सुख ऐसा नहीं बचा जिसे भोगा हो। दूर-दूर तक उड़ानें भरी हैं, आकाश की असीम ऊँचाइयों को अपने पंखों से नाप आया हूँ। तुम्हारा बड़ा दुर्भाग्य है कि तुम ज़िंदगी भर आकाश में उड़ने का आनंद कभी नहीं उठा पाओगे।

    साँप बोला—आकाश! आकाश को लेकर क्या मैं चाटूँगा! आकाश में आख़िर रखा क्या है? क्या मैं तुम्हारे आकाश में रेंग सकता हूँ। ना भाई, तुम्हारा आकाश तुम्हें ही मुबारक, मेरे लिए तो यह गुफ़ा भली। इतनी आरामदेह और सुरक्षित जगह और कहाँ होगी?

    साँप मन-ही-मन बाज की मूर्खता पर हँस रहा था। वह सोचने लगा कि आख़िर उड़ने और रेंगने के बीच कौन-सा भारी अंतर है। अंत में तो सबके भाग्य में मरना ही लिखा है—शरीर मिट्टी का है, मिट्टी में ही मिल जाएगा।

    अचानक बाज ने अपना झुका हुआ सिर ऊपर उठाया और उसकी दृष्टि साँप को गुफ़ा के चारों ओर घूमने लगी। चट्टानों में पड़ी दरारों से पानी गुफ़ा में टपक रहा था। सीलन और अँधेरे में डूबी गुफ़ा में एक भयानक दुर्गंध फैली हुई थी, मानो कोई चीज़ वर्षों से पड़ी-पड़ी सड़ गई हो।

    बाज के मुँह से एक बड़ी ज़ोर की करुण चीख़ फूटी पड़ी—आह! काश, मैं सिर्फ़ एक बार आकाश में उड़ पाता।

    बाज की ऐसी करुण चीख़ सुनकर साँप कुछ सिटपिटा-सा गया। एक क्षण के लिए उसके मन में उस आकाश के प्रति इच्छा पैदा हो गई जिसके वियोग में बाज इतना व्याकुल होकर छटपटा रहा था। उसने बाज से कहा—यदि तुम्हें स्वतंत्रता इतनी प्यारी है तो इस चट्टान के किनारे से ऊपर क्यों नहीं उड़ जाने की कोशिश करते। हो सकता है कि तुम्हारे पैरों में अभी इतनी ताक़त बाक़ी हो कि तुम आकाश में उड़ सको। कोशिश करने में क्या हर्ज़ है?

    बाज में एक नई आशा जग उठी। वह दूने उत्साह से अपने घायल शरीर को घसीटता हुआ चट्टान के किनारे तक खींच लाया। खुले आकाश को देखकर उसकी आँखें चमक उठीं। उसने एक गहरी, लंबी साँस ली और अपने पंख फैलाकर हवा में कूद पड़ा।

    किंतु उसके टूटे पंखों में इतनी शक्ति नहीं थी कि उसके शरीर का बोझ सँभाल सकें। पत्थर-सा उसका शरीर लुढ़कता हुआ नदी में जा गिरा। एक लहर ने उठकर उसके पंखों पर जमे ख़ून को धो दिया, उसके थके-माँदे शरीर को सफ़ेद फेन से ढक दिया, फिर अपनी गोद में समेटकर उसे अपने साथ सागर की ओर ले चली।

    लहरें चट्टानों पर सिर धुनने लगीं मानो बाज की मृत्यु पर आँसू बहा रही हों। धीरे-धीरे समुद्र के असीम विस्तार में बाज आँखों से ओझल हो गया।

    चट्टान की खोखल में बैठा हुआ साँप बड़ी देर तक बाज की मृत्यु और आकाश के लिए उसके प्रेम के विषय में सोचता रहा।

    आकाश की असीम शून्यता में क्या ऐसा आकर्षण छिपा है जिसके लिए बाज ने अपने प्राण गँवा दिए? वह ख़ुद तो मर गया लेकिन मेरे दिल का चैन अपने साथ ले गया। जाने आकाश में क्या ख़ज़ाना रखा है? एक बार तो मैं भी वहाँ जाकर उसके रहस्य का पता लगाऊँगा चाहे कुछ देर के लिए ही हो। कम-से-कम उस आकाश का स्वाद तो चख लूँगा।

    यह कहकर साँप ने अपने शरीर को सिकोड़ा और आगे रेंगकर अपने को आकाश की शून्यता में छोड़ दिया। धूप में क्षण भर के लिए साँप का शरीर बिजली की लकीर-सा चमक गया।

    किंतु जिसने जीवन भर रेंगना सीखा था, वह भला क्या उड़ पाता? नीचे छोटी-छोटी चट्टानों पर धप्प से साँप जा गिरा। ईश्वर की कृपा से बेचारा बच गया, नहीं तो मरने में क्या कसर बाक़ी रही थी। साँप हँसते हुए कहने लगा—

    सो उड़ने का यही आनंद है—भर पाया मैं तो! पक्षी भी कितने मूर्ख हैं। धरती के सुख से अनजान रहकर आकाश की ऊँचाइयों को नापना चाहते थे। किंतु अब मैंने जान लिया कि आकाश में कुछ नहीं रखा। केवल ढेर-सी रोशनी के सिवा वहाँ कुछ भी नहीं, शरीर को सँभालने के लिए कोई स्थान नहीं, कोई सहारा नहीं। फिर वे पक्षी किस बूते पर इतनी डींगें हाँकते हैं, किसलिए धरती के प्राणियों को इतना छोटा समझते हैं। अब मैं कभी धोखा नहीं खाऊँगा, मैंने आकाश देख लिया और ख़ूब देख लिया। बाज तो बड़ी-बड़ी बातें बनाता था, आकाश के गुण गाते थकता नहीं था। उसी की बातों में आकर मैं आकाश में कूदा था। ईश्वर भला करे, मरते-मरते बच गया। अब तो मेरी यह बात और भी पक्की हो गई है कि अपनी खोखल से बड़ा सुख और कहीं नहीं है। धरती पर रेंग लेता हूँ, मेरे लिए यह बहुत कुछ है। मुझे आकाश की स्वच्छंदता से क्या लेना-देना? वहाँ छत है, दीवारें हैं, रेंगने के लिए ज़मीन है। मेरा तो सिर चकराने लगता है। दिल काँप-काँप जाता है। अपने प्राणों को ख़तरे में डालना कहाँ की चतुराई है?

    साँप सोचने लगा कि बाज अभागा था जिसने आकाश की आज़ादी को प्राप्त करने में अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी।

    किंतु कुछ देर बाद साँप के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने सुना, चट्टानों के नीचे से एक मधुर, रहस्यमय गीत की आवाज़ उठ रही है। पहले उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। किंतु कुछ देर बाद गीत के स्वर अधिक साफ़ सुनाई देने लगे। वह अपनी गुफ़ा से बाहर आया और चट्टान से नीचे झाँकने लगा। सूरज की सुनहरी किरणों में समुद्र का नीला जल झिलमिला रहा था। चट्टानों को भिगोती हुई समुद्र की लहरों में गीत के स्वर फूट रहे थे। लहरों का यह गीत दूर-दूर तक गूँज रहा था।

    साँप ने सुना, लहरें मधुर स्वर में गा रही हैं।

    हमारा यह गीत उन साहसी लोगों के लिए है जो अपने प्राणों को हथेली पर रखे हुए घूमते हैं।

    चतुर वही है जो प्राणों की बाज़ी लगाकर ज़िंदगी के हर ख़तरे का बहादुरी से सामना करे।

    निडर बाज! शत्रुओं से लड़ते हुए तुमने अपना क़ीमती रक्त बहाया है। पर वह समय दूर नहीं है, जब तुम्हारे ख़ून की एक-एक बूँद ज़िंदगी के अँधेरे में प्रकाश फैलाएगी और साहसी, बहादुर दिलों में स्वतंत्रता और प्रकाश के लिए प्रेम पैदा करेगी।

    तुमने अपना जीवन बलिदान कर दिया किंतु फिर भी तुम अमर हो। जब कभी साहस और वीरता के गीत गाए जाएँगे, तुम्हारा नाम बड़े गर्व और श्रद्धा से लिया जाएगा।

    हमारा गीत ज़िंदगी के उन दीवानों के लिए है जो मर कर भी मृत्यु से नहीं डरते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत (भाग-3) (पृष्ठ 84)
    • रचनाकार : निर्मल वर्मा
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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