अकबरी लोटा

akbari lota

अन्नपूर्णानंद वर्मा

और अधिकअन्नपूर्णानंद वर्मा

    लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाज़ार में मकान था। नीचे की दुकानों से एक सौ रुपए मासिक के क़रीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी मिलते थे।

    इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन एकाएक ढाई सौ रुपए की माँग पेश की, तब उनका जी एक बार ज़ोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर पत्नी ने कहा—डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ?

    लाला झाऊलाल तिलमिला उठे। उन्होंने रोब के साथ कहा—अजी हटो, ढाई सौ रुपए के लिए भाई से भीख माँगोगी, मुझसे ले लेना।

    लेकिन मुझे इसी ज़िंदगी में चाहिए।

    अजी इसी सप्ताह में ले लेना।

    सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?

    लाला झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा—आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपए ले लेना।

    लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्का वादा करके अगर अब दे सके तो अपने मन में वह क्या सोचेगी? उसकी नज़रों में उसका क्या मूल्य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएँ सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों ख़ाने चित हो रहे। यह पहली बार उसने मुँह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्या मुँह दिखलाएँगे?

    ख़ैर, एक दिन और बीता। पाँचवे दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्होंने कहा—मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से माँग-जाँचकर लाने की कोशिश करूँगा और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूँगा।

    वही शाम आज थी। हफ़्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपए या तो गिन देना है या सारी हेंकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया आने पर उनकी स्त्री उन्हें डामलफाँसी कर देगी—केवल ज़रा-सा हँस देगी। पर वह कैसी हँसी होगी, कल्पना मात्र से झाऊलाल में मरोड़ पैदा हो जाती थी।

    आज शाम को पं. बिलवासी मिश्र को आना था। यदि आए तो? या कहीं रुपए का प्रबंध वे कर सके?

    इसी उधेड़-बुन में पड़े लाला झाऊलाल छत पर टहल रहे थे। कुछ प्यास मालूम हुई। उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। नौकर नहीं था, ख़ुद उनकी पत्नी पानी लेकर आईं।

    वह पानी तो ज़रूर लाई पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए वह प्रकट हुई। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा से नापसंद था। था तो नया, साल दो साल का ही बना पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि उसका बाप डमरू, माँ चिलम रही हो।

    लाला ने लोटा ले लिया, बोले कुछ नहीं, अपनी पत्नी का अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी को सभ्यता कहते हैं। जो पति अपनी पत्नी का हुआ, वह पति कैसा? फिर उन्होंने यह भी सोचा कि लोटे में पानी दे, तब भी ग़नीमत है, अभी अगर चूँ कर देता हूँ तो बालटी में भोजन मिलेगा। तब क्या करना बाक़ी रह जाएगा?

    लाला अपना ग़ुस्सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुँडेर के पास ही खड़े थे। जिन बुज़ुर्गों ने पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी पियो, सोते समय पानी पियो, दौड़ने के बाद पानी पियो, उन्होंने पता नहीं कभी यह भी नियम बनाया या नहीं कि छत की मुँडेर के पास खड़े होकर पानी पियो। जान पड़ता है कि इस महत्वपूर्ण विषय पर उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।

    लाला झाऊलाल मुश्किल से दो-एक घूँट पी पाए होंगे कि जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा छूट गया।

    लोटे ने दाएँ देखा बाएँ, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्का को लजाता हुआ वह आँखों से ओझल हो गया। किसी ज़माने में न्यूटन नाम के किसी ख़ुराफ़ाती ने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति नाम की एक चीज़ ईजाद को थी। कहना होगा कि यह सारी शक्ति इस समय लोटे के पक्ष में थी।

    लाला को काटो तो बदन में ख़ून नहीं। ऐसो चलती हुई गली में ऊँचे तिमंज़ले से भरे हुए लोटे का गिरना हँसी-खेल नहीं। यह लोटा जाने किस अनाधिकारी के झोंपड़े पर काशीवास का संदेश लेकर पहुँचेगा।

    कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में ज़ोर का हल्ला उठा। लाला झाऊलाल जब तब दौड़कर नीचे उतरे तब तक एक भारी भीड़ उनके आँगन में घुस आई।

    लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अँग्रेज़ है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पैर पर नाच रहा है। उसी के पास अपराधी लोटे को भी देखकर लाला झाऊलाल जी ने फ़ौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया।

    गिरने के पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकराया। वहाँ टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अँग्रेज़ को उसने सांगोपांग स्नान कराया और फिर उसी के बूट पर गिरा।

    उस अँग्रेज़ को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुँह को खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अँग्रेज़ी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोष है।

    इसी समय पं. बिलवासी मित्र भीड़ को चीरते हुए आँगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि उस अँग्रेज़ को छोड़कर और जितने आदमी आँगन में घुस आए थे, सबको बाहर निकाल दिया। फिर आँगन में कुर्सी रखकर उन्होंने साहब से कहा—“आपके पैर में शायद कुछ चोट गई है। अब आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।

    साहब बिलवासी जी को धन्यवाद देते हुए बैठ गए और लाला झाऊलाल की और इशारा करके बोले—आप इस शख़्स को जानते हैं?

    बिलकुल नहीं। और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह चलतों पर लोटे के वार करे।

    मेरी समझ में 'ही इज़ डेंजरस ल्यूनाटिक' (यानी, यह ख़तरनाक पागल है)।

    नहीं, मेरी समझ में 'ही इज़ डेंजरस क्रिमिनल' (नहीं, यह ख़तरनाक मुजरिम है)।

    परमात्मा ने लाला झाऊलाल की आँखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दे दी होती तो यह निश्चय है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आँखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी जी को इस समय क्या हो गया है।

    साहब ने बिलवासी जी से पूछा तो क्या करना चाहिए?

    पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए जिससे यह आदमी फ़ौरन हिरासत में ले लिया जाए।

    पुलिस स्टेशन है कहाँ?

    पास ही है, चलिए मैं बताऊँ

    चलिए।

    अभी चला। आपकी इजाज़त हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से ख़रीद लूँ। क्यों जी बेचोगे? मैं पचास रुपए तक इसके दाम दे सकता हूँ।

    लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा—इस रद्दी लोटे के आप पचास रुपए क्यों दे रहे हैं?

    आप इस लोटे को रद्दी बताते हैं? आश्चर्य! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।

    आख़िर बात क्या है, कुछ बताइए भी।

    जनाब यह एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। जान क्या पड़ता है, मुझे पूरा विश्वास है। यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है जिसकी तलाश में संसार-भर के म्यूज़ियम परेशान हैं।

    यह बात?

    जी, जनाब। सोलहवीं शताब्दी की बात है। बादशाह हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूँ के बाद अकबर ने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा। वह बराबर इसी से वजू करता था। सन् 57 तक इसके शाही घराने में रहने का पता है। पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ता के म्यूज़ियम में इसका प्लास्टर का मॉडल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया? म्यूज़ियमवालों को पता चले तो फ़ैंसी दाम देकर ख़रीद ले जाएँ।

    इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आँखों पर लोभ और आश्चर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से बढ़कर पकौड़ी के आकार की हो गईं। उसने बिलवासी जी से पूछा—तो आप इस लोटे का क्या करिएगा?

    मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक़ है।

    मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह करने का शौक़ है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा था, उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियाँ ख़रीद रहा था।

    जो कुछ हो, लोटा मैं ही ख़रीदूँगा।

    वाह, आप कैसे ख़रीदेंगे, मैं ख़रीदूँगा, यह मेरा हक़ है।

    हक़ है?

    ज़रूर हक़ है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्नान किया या मैंने?

    आपने।

    वह आपके पैरों पर गिरा या मेरे?

    आपके।

    अँगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?

    आपका।

    इसलिए उसे ख़रीदने का हक़ मेरा है।

    यह सब बकवास है। दाम लगाइए, जो अधिक दे, वह ले जाए।

    यही सही। आप इसका पचास रुपया लगा रहे थे, मैं सौ देता हूँ।

    मैं डेढ़ सौ देता हूँ।

    मैं दो सौ देता हूँ।

    अजी मैं ढाई सौ देता हूँ। यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।

    साहब को भी ताव गया। उसने कहा—आप ढाई सौ देते हैं, तो मैं पाँच सौ देता हूँ। अब चलिए।

    बिलवासी जी अफ़सोस के साथ अपने रुपए उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्होंने कहा लोटा आपका हुआ, ले जाइए, मेरे पास ढाई सौ से अधिक नहीं है।

    यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्नता की कुँची गिर गई। उसने झपटकर लोटा लिया और बोला—अब मैं हँसता हुआ अपने देश लौटूँगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।

    मेजर डगलस कौन हैं?

    मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीज़ों के संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्तान आए थे और यहाँ से जहाँगीरी अंडा ले गए थे।

    जहाँगीरी अंडा?

    हाँ, जहाँगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तान से वे ही अच्छी चीज़ें ले सकते हैं।

    पर जहाँगीरी अंडा है क्या?

    आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहाँ से जहाँगीर का प्रेम कराया था। जहाँगीर के पूछने पर कि, मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहाँ ने उसके दूसरे कबूतर को उड़ाकर बताया था, कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहाँगीर दिलोजान से निछावर हो गया। उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहाँ के हाथ कर दिया। कबूतर का यह एहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्लोर की हाँडी में वह उसके सामने टँगा रहता था। बाद में वही अंडा जहाँगीरी अंडा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने पारसाल दिल्ली में एक मुसलमान सज्जन से तीन सौ रुपए में ख़रीदा।

    यह बात?

    हाँ, पर अब मेरे आगे दून की नहीं ले सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहाँगीरी अंडे से भी एक पुश्त पुराना है।

    इस रिश्ते से तो आपका लोटा उस अंडे का बाप हुआ।

    साहब ने लाला झाऊलाल को पाँच सौ रुपए देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता था। जान पड़ता था कि मुँह पर छह दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी का एक-एक बाल मारे प्रसन्नता के लहरा रहा है। उन्होंने पूछा—बिलवासी जी! मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर आए! पर आपके पास तो थे नहीं।

    इस भेद को मेरे सिवाए मेरा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए, मैं नहीं बताऊँगा।

    पर आप चले कहाँ? अभी मुझे आपसे काम है दो घंटे तक।

    दो घंटे तक?

    हाँ, और क्या, अभी मैं आपकी पीठ ठोककर शाबाशी दूँगा, एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्यवाद दूँगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।

    अच्छा पहले पाँच सौ रुपए गिनकर सहेज लीजिए।

    रुपया अगर अपना हो, तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद मनमोहक कार्य है कि मनुष्य उस समय सहज में ही तन्मयता प्राप्त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए।

    उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे, बहुत धीरे से अपनी सोई हुई पत्नी के गले से उन्होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बँधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंने उस ताली से संदूक़ खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्यों-के-त्यों रखकर उन्होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पाँव लौटकर ताली को उन्होंने पूर्ववत अपनी पत्नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्होंने हँसकर अँगड़ाई ली। दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक चैन की नींद सोए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत (भाग-3) (पृष्ठ 55)
    • रचनाकार : अन्नपूर्णानंद वर्मा
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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