सुखदेव ने ज़ोर से चिल्ला कर पूछा—'मेरा साबुन कहाँ है?'

श्यामा दूसरे कमरे में थी। साबुनदानी हाथ में लिए लपकी आई, और देवर के पास खड़ी हो कर हौले से बोली—'यह लो।'

सुखदेव ने एक बार अँगुली से साबुन को छू कर देखा, और भँवें चढ़ा कर पूछा—'तुमने लगाया था, क्यों?'

श्यामा हौले से बोली—'ज़रा मुँह पर लगाया था।'

'क्यों तुमने मेरा साबुन लिया? तुमसे हज़ार बार मना कर चुका हूँ। लेकिन तुम तो बेहया हो न!'

'गाली मत दो! समझे?'

श्यामा ने डिब्बी वहीं ज़मीन पर पटक दी, और तेज़ क़दमों से बाहर जाती-जाती बोली—'ज़रा साबुन छू लिया मैंने, तो मानो ग़ज़ब हो गया!' फिर दूसरे कमरे की चौखट पर मुड़ कर, बोली—'मैं क्या चमार हूँ?'

सुखदेव ने वहीं से चिल्ला कर कहा—'हो चमार! तुम चमार हो! ख़बरदार जो अब कभी मेरा साबुन छुआ!'

अँगीठी पर तरकारी पक रही थी। श्यामा भुन-भुन करती, ढक्कन हटा कर, करछुल से उसे लौट-पौट करने लगी, तो देखा तरकारी आधी से ज़ियादा जल गई है। उसने कढ़ाई उठा कर, नीचे ज़मीन पर पटक दी।

'ख़ाक हो गई नासपिटी!' तरकारी को निहारती, नाराज़ हो कर बोली। तभी उधर ठन्न से लोटा गिरने की आवाज़ हुई श्यामा ने चौंक कर देखा, बड़ा लड़का बाल्टी खींच कर बाहर लिए जा रहा था। चिल्ला कर कहा—'कहाँ लिए जा रहा है, अभागे?'

'नहाएँगे,' लड़का शांत भाव से ज़मीन पर बाल्टी घसीटता, बोला—'चाचाजी ने कहा है।'

'चाचाजी के बच्चे! गू-मूतों में डाल दी बाल्टी!'

उसने लड़के के हाथ से बाल्टी छीन ली, और पैरों से धमधम करती ग़ुसलख़ाने के आगे तक आई।

सुखदेव छोटे भतीजे को सामने बिठा कर उसके सिर पर साबुन मल रहा था। भाभी को देख कर बोला—'काला कर दिया साबुन। चेहरे का रंग लग गया इसमें काली माई के!'

श्यामा ने चिल्ला कर पूछा—'मैं काली हूँ?'

सुखदेव बोला। बच्चे के सिर पर साबुन मलता रहा।

श्यामा ने बाल्टी वहीं पटक दी, और चढ़े स्वर में पूछा—'मैं काली हूँ? मैं काली माई हूँ?'

सुखदेव ने घबरा कर कहा—'धीरे बोलो। भाई साहब गए!'

श्यामा ने चौंक कर उधर देखा। कमरे के दरवाज़े पर पति के जूते चमक रहे थे।

ऊपर जो किराएदार रहते थे, उनके यहाँ बड़ी क्लाक-घड़ी थी। टन करके आधा घंटा बजा, तो उसने जल्दी-जल्दी हाथ चलाए। फिर थाली परोस कर पति को आवाज़ दी—'आओ।'

ब्रजलाल ने आसन पर बैठ कर, भोजन पर एक नज़र डाली और पूछा—'आज तरकारी नहीं बनी?'

'नहीं।'

'यहाँ प्याली में क्या है?'

'कदुआ है। लल्ला के लिए रख दिया है। दाल से खाओ।'

पति ने आज्ञा मान कर, एक ग्रास मुख में दिया, और शांत भाव से बोले—'नमक लाओ।'

'क्या कम है?'—श्यामा ने नमक की बुकनी थाली में छोड़ते हुए पूछा।

'बिलकुल नहीं है।'

'क्यों झूठ बोलते हो? मैंने नमक डाला था। शर्त लगाती हूँ।'

पति ने हँस कर कहा—'यही सही। लेकिन अपनी कुशल चाहो, तो पतीली में नमक पीस कर डाल दो। सुखदेव अभी खाने बैठेगा, तो फिर आफ़त जाएगी तुम्हारी।'

श्यामा ने स्वर को चढ़ा कर कहा—'क्या आफ़त आएगी? फाँसी दे देंगे मुझे? मैं दासी हूँ सबकी!'

ब्रजलाल ने हँस कर कहा—'तुम राज़रानी हो। लाओ, रोटी तो दो।'

वे कपड़े पहन कर आफ़िस जाने को तैयार हुए, तो श्यामा ने चौखट पकड़े-पकड़े, कहा—'मुझे साबुन चाहिए।'

'साबुन!'—पति ने अचरज से कहा—'कैसा साबुन? सुखदेव से कहो। छाता लाओ। वह फ़ाइल उठाना।'

तभी रसोईघर से एक पुकार आई—'भाभी, खाना परोसो।'

फिर दो पतली आवाज़ें एक साथ आई—'भाभी, खाना परोसो।'

बड़ा लड़का अलग थाली में खाता है। छोटा अपने चाचाजी के हाथ से खाता है। तीनों पास-पास, नहाए-धोए, आसनों पर बिराजे, भोजन कर रहे थे।

बड़े लड़के ने मुँह बिचका कर कहा—'दाल में इतना नमक है कि पूछो मत!'

श्यामा ने डरते-डरते देवर की ओर देखा। पर सुखदेव ने नमक के बोरे में कुछ शिकायत की, उलटे भतीजे को डाँट कर बोला—'खाओ चुपचाप!' फिर भाभी के आगे प्याली सरका कर बोला—'तरकारी और देना भाभी।'

भाभी ने हँस कर, कहा—'तरकारी अब नहीं है।'

'सब ख़त्म?'

'यह देखो,' कढ़ाई आगे खींच कर, हँस कर कहा—'जल गई सब। यही इतनी बची थी, सो तुम्हारे लिए छाँट कर निकाल ली थी।'

'देखें, जली हुई का स्वाद देखें।'

श्यामा ने कढ़ाई पीछे को करके कहा—'यह तुम्हारे खाने के क़ाबिल नहीं है। लो, दाल और ले लो।'

बड़े लड़के ने कहा—'मैं भी दाल और लूँगा।'

श्यामा ने उसके आगे सरका कर कहा—'ले, दाल ले।'

लड़का पतीली में झाँक कर बोला—'कहाँ है इसमें दाल?'

'दाल नहीं है। अब तू मेरा सिर खा ले, पेटू!'…

छोटे भतीजे के जूठे हाथ धो कर, सुखदेव कॉलेज के कपड़े पहनने लगा तो, क़मीज़ में एक ही बटन बचा पाया।

सुई-डोरा और बटन हाथ में लिए, भाभी के आगे खड़ा हुआ। श्यामा थाली परोस कर खाना शुरू ही कर रही थी। सुखदेव ने क़मीज़ उसकी गोदी में रख कर कहा—'जल्दी, भाभी, जल्दी!'

भाभी जल्दी-जल्दी बटन टाँकने लगी और तब सुखदेव की नज़र भाभी के परोसे हुए भोजन पर गई। तरकारी, जो जल कर काली हो गई थी, अकेली-अकेली थाली में सजी थी।

तभी भाभी ने क़मीज़ ऊपर को करके कहा—'लो, थामो! अब मुझे भी पेट में कुछ डाल लेने दो।'

बड़ा भतीजा बाहर दरवाज़े पर खड़ा था। उसके स्कूल की आज छुट्टी थी। कॉलेज जाने लगा, तो सुखदेव उसका हाथ पकड़ कर, खींचता हुआ ले गया जल्दा-जल्दी बड़ी दूर तक।

चार मिनट बाद लड़के ने दही का कुल्हड़ माँ के आगे ला धरा।

श्यामा उसी जली तरकारी से रोटी खाए जा रही थी! दही देख कर अचरज से पूछा—'कहाँ से ले आया, रे?'

लड़का बाहर को भागता-भागता बोला—'चाचाजी ने दिया है।'

(दो)

पड़ोस में रहनेवाली पंजाबिन बच्चों के कपड़े बहुत सस्ते सीती थी। उसके आदमी को श्यामा ने पति से आग्रह कर-कर के, उन्हीं के आफ़िस में लगवा दिया था। सुखदेव अपने सब कपड़े जे.बी. दत्ता कंपनी में सिलवाता था। बच्चों की क़मीज़ें भी पिछली बार, उसने वहीं सिलवाईं। वे सब क़मीज़ें पहनने पर बच्चों की छोटी हुईं, और सिलाई लगी इतनी। देवर-भाभी में एक द्वंद्व युद्ध हो गया। फलतः इस बार बच्चों की क़मीज़ें पंजाबिन को दीं श्यामा ने। सिलाई ऐसी सुघड़ हुई, कि देख कर दिल ख़ुश हो गया। ख़ुश हो कर, उसके आगे एक रुपया धरा, और हँस कर बोली—'अबकी बार मुन्ना के बाबू की क़मीज़ें भी तुम्हीं से सिलवाऊँगी बहिन।'

'ज़रूर-ज़रूर बहिन जी! मुझी से सिलवाना बाबूजी की क़मीज़ें। यह रुपया रख लो, बहिन जी, यह रुपया रख लो।'

श्यामा ने कहा—'नहीं, बहिन, सिलाई तो तुम्हें लेनी ही होगी।'

पंजाबिन बोली—'मुझ पर ज़ुल्म करो, बहिन जी!' आँखों में आँसू भर कर बोली—'ज़ुल्म करो मुझ पर। मुझे इतना जुदा करो, रानी जी! मुन्ना क्या मेरा बेटा नहीं है? तुम्हें मेरे सिर की क़सम बहिन जी, यह रुपया उठा लो।

वही एक रुपया था श्यामा के पास, और उसी रुपए को लिए-लिए सारे दिन घूमती रही कि आज साबुन मँगा कर छोड़ूँगी। पर ऐसी तक़दीर फिरी, कि कोई मिला साबुन लानेवाला। तब खीझ कर, बड़े लड़के को समझा-बुझा कर गली के मोड़वाली दुकान पर भेजा साबुन लाने और संतोष की साँस ले कर, बोली मन-ही-मन कि 'सुबह अपनी नई टिक्की से जब नहाऊँगी, तो देखूँगी! रोज़ लगाऊँगी साबुन!'

पर लड़के की अक़्ल पर पत्थर पड़ गए। दो आने का कपड़े धोने का बदबूदार साबुन और चौदह आने पैसे माँ के सामने रख कर भाग गया।

श्यामा ने वह दो आने का साबुन उठा कर कोने में फेंक दिया, और लड़के को कोसती रसोई बनाने लगी।

आध घंटे बाद पति पहुँचे, और उसके आध घंटा बाद देवर। खाना तैयार हो चुका था। पति के कोई मित्र गए थे, और बातों की झड़ी लगाए थे। श्यामा दस बार उस कमरे के दरवाज़े पर झाँक कर लौट आई, और दो बार लड़के को भी बाप के पास भेजा। ब्रजलाल ने कहा—'आते हैं।' पर वह बातूनी भला आदमी उठा, उठा।

हार कर श्यामा ने देवर से कहा—'लल्ला, तुम तो खाओ। वे तो आज बातों से ही पेट भरेंगे!'

सुखदेव ने हौले से कहा—'कहो, तो मैं जाऊँ और उनसे हाथ जोड़ कर कहूँ अब तशरीफ़ ले जाइए, श्रीमान्!'

श्यामा ने हँस कर कहा—'गोली मारो श्रीमान को! लो, मैंने थाली परोस दी।'

सुखदेव ने चारों ओर नज़र दौड़ा कर पूछा—'बच्चे कहाँ हैं?'

श्यामा हँस कर बोली—'चाचा की ससुराल गए हैं। प्रियंवदा का नौकर आया था। उनके यहाँ आज कथा है। तुम नहीं जाओगे?'

'बको मत!' सुखदेव ने जल्दी से कौर मुँह में दे कर कहा—'पानी दो गिलास में!'

ऊपर पानी बंद हो गया था। ऊपरवाली सेठानी यहाँ बाल्टी लगाए खड़ी थी। हँस कर बोली—'म्हाने भर लेने दो, जी!'

पर सुखदेव ने जल्दी-जल्दी पानी पिया, और जल्दी-जल्दी क़मीज़ पहन कर पैरों में चप्पलें डाल कर खड़ा हो गया रसोई-घर के सामने।

श्यामा जूठी थाली ले कर, बाहर निकली, और उसे यूँ खड़ा देखा, तो रुक गई।

सुखदेव ने हौले से कहा—'भाभी!'

भाभी हौले से बोलीं—'क्यों, क्या है?'

'भाभी, आज बड़ी अच्छी फिल्म है।'

'तुम जा रहे हो?'

'पैसे नहीं हैं!'

भाभी ने सोच कर कहा—'चौदह आने से काम चल जाएगा? चौदह आने हैं मेरे पास।'

'लाओ, लाओ!'

श्यामा ने थाली वहीं रख दी, और दौड़ी, जा कर बक्स में से चौदह आने निकाल लाई और देवर की जेब में वे चौदह आने डाल कर, बोली हौले से—'वह उधरवाली कुंडी खटखटाना, मैं जागती रहूँगी।'

सुखदेव ने हौले से कहा—'अच्छा। भाई साहब पूछेंगे तो क्या कहोगी?'

श्यामा ने हौले से कहा—'कह दूँगी, कि प्रोफेसर शर्मा के यहाँ गए हैं!'

सुखदेव ने प्रसन्न हो कर कहा—'बस-बस, यही कह देना।' और दरवाज़े की ओर दबे पाँव बढ़ा, और चौखट के पार हो गया। फिर किवाड़े पर मुँह रख कर, हौले से पुकारा—'भाभी!'

भाभी लपक कर आगे आईं। हौले से बोलीं—'हाँ।'

सुखदेव ने हौले से कहा—'नमस्ते!'

तभी ब्रजलाल ने पीछे से आवाज़ दी—'खाना परोसो!'

(तीन)

प्रियंवदा से सुखदेव का परिचय था। दो साल पहले वह एक लड़की को पढ़ाने जाता था। वहीं अपनी शिष्या की सहेली के रूप में प्रथम साक्षात्कार हुआ था। फिर वह परिचय प्रगाढ़ हो कर, जब रूप बदलने लगा और स्नेह की वर्षा होने लगी, तो दोनों ओर से भाग्यदेवता बहुत हँसे। किसी को कानों-कान ख़बर हुई, और स्नेह का रंग प्रणय में परिणत हो गया। उस लड़की की पढ़ाई बंद हो गई, तो और उपाय पा कर, काग़ज़ के टुकड़ों पर मन के अंतराल की बातें अंकित हो कर आने लगीं। भाग्य के देवता हँसते रहे।

श्यामा एक दिन धोबी को मैले कपड़े दे रही थी। जेबें ख़ाली करके देवर का कोट डालने लगी धोबी के आगे, तो उनमें एक पत्र पाया, जिसमें लिखा था—'प्राणों के स्वामी हृदयेश्वर...।'

ख़ूब ख़ुश हुई वह, और सुखदेव को ख़ूब डराया-धमकाया। तुच्छ-सा हो गया वह भाभी के आगे। सिर झुका लिया, और बार-बार उस चिट्ठी को लौटाने की ज़िद करने लगा। श्यामा ने हँसी रोक कर कहा—'नहीं, यह चिट्ठी तुम्हें नहीं, तुम्हारे भैया को दूँगी। ज़रा आटे-दाल का भाव मालूम हो तुम्हें!'

सुखदेव से और कुछ बन पड़ा। भाभी के पैरों पर अपना सिर रख कर रोने लगा। ऐसा कायर निकला प्रेमी!...

उसी दिन से भाभी 'नर्म-सचिव' हो गईं। उन्हीं की सलाह से सब काम होने लगा। एक दिन नुमाइश में दूर से प्रियंवदा के दर्शन भी करा दिए भाभी को। घर लौटने लगे, तो राह में भाभी चलती-चलती बोलीं—'हे भगवान, यही तुम्हारी प्रियंवदा है! रूप की जोत लिए सारी नुमाइश को चकाचौंध किए थी। हाय राम, मैं तो उसके पैरों के धोवन भी नहीं हूँ। कैसे उसकी जिठानी बन पाऊँगी? मुझे 'जीजी' कहते भी वह घिनाएगी, मुझे देख कर हँसेगी।'

सुखदेव सुन कर, हौले से बोला—'गला काट लूँगा!'

भाभी बोली—'किसका गला काट लोगे? मेरा?'

पर सुखदेव और कुछ बोला।...

दूसरे दिन प्रियंवदा का नौकर श्यामा को एक छोटी-सी 'पाती' दे गया, जिसमें 'जीजी' के चरण कमलों में 'दासी' प्रियंवदा के प्रणाम की बात लिखी थी, और लिखा था कि 'अभागिन से ऐसा क्या अपराध हो गया, जो इतने निकट कर भी राजराजेश्वरी माता बिना दर्शन दिए चली गईं? एक बार चरणों की रज अपने माथे पर लगा लेती। जीवन कृतार्थ कर लेती अपना...

पर 'राजराजेश्वरी' का यहाँ हाल था कि तन पर कभी पूरे कपड़े भी नहीं हो पाते हैं।

ठंड पड़ने लगी, और सुबह तड़के-तड़के नहा कर रसोई चढ़ाते जब श्यामा को कँपकँपी लगने लगी, तो उसने याद करके देवर का बक्स खोल कर वह पुराना स्वेटर निकाल लिया, जिसे कीड़ों ने जगह-जगह काट कर तरह-तरह के वातायन और गवाक्ष बना दिए थे, हवा के आने-जाने के लिए।

उसी स्वेटर को रोज़ सुबह पहन लेती, और गर्मी पा कर कहती, कि 'चलो अच्छा है। यह जाड़ा मज़े में काट देगा।'

रात को सिनेमा देखा सुखदेव ने, और सुबह सूरज चढ़े तक गहरी नींद ली। फिर भी देह का आलस्य गया। एक जमाई ले कर छोटे भतीजे से बोला—'चलो बेटा, चाय पी आएँ।'

लड़का कूद कर बोला—'चाचाजी, बिस्कुट भी खाएँगे न?'

सहसा सुखदेव को याद आया कि चायवाले के नौकर को उसने अपना स्वेटर देने का वादा किया था। वह बक्स खोल कर, पुराना स्वेटर खोजने लगा। पर स्वेटर मिला। एक-एक करके, सारे कपड़े बाहर निकाल कर फेंक दिए। पर स्वेटर के दर्शन हुए। कहाँ गया?

भाभी रसोईघर में बैठी, दाल बीन रही थीं—उनसे कर पूछा—'मेरा स्वेटर था एक पुराना।'

'मैंने ले लिया!'

'तुमने कैसे ले लिया?'—सुखदेव ने माथे पर बल डाल कर कहा, 'तुमने क्यों मेरा बक्स खोला? क्यों ले लिया मेरा स्वेटर?'

भाभी ने शांत स्वर में कहा—'बेकार पड़ा था, इसलिए निकाल लिया।'

सुखदेव ने स्वर को तीव्र करके कहा—'मुझसे बिना पूछे तुमने कैसे ले लिया? तुम मेरी चीज़ क्यों छूती हो?'

भाभी सुन कर चुप रहीं।

सुखदेव ने उसी स्वर में कहा—'कहाँ है स्वेटर, लाओ दो!'

भाभी ने शांत स्वर में कहा—'चलो अपने कमरे में। लाए देती हूँ स्वेटर।'

'यहीं ला कर दो। अभी फ़ौरन!'

भाभी ने इधर को पीठ करके स्वेटर उतारा, फिर उधर को मुँह करके शांत स्वर में कहा—'यह लो!' और नतमुख किए हौले से कहा—'बाक़ी कपड़े भी उतरवा लो तन के!'

सुखदेव क्षण भर भौचक्का-सा खड़ा रहा। स्वेटर सामने पड़ा था, और भाभी सिर झुकाए फिर दाल बीनने लगी थीं। सुखदेव वह स्वेटर उठाने लगा, तो एक बार भाभी के झुके मुख की ओर देखा। आँखों से आँसू टपक रहे थे भाभी के।

वही कलवाला बातूनी आदमी सुबह होते ही फिर धमका था। ब्रजलाल को अपने साथ ले गया। सड़क तक बातें करते-करते। साढ़े नौ बजे उधर से लौटे तो हँस रहे थे। खाने बैठे, तब भी हँस रहे थे। हँसते गए, और खाते गए। और खाते-खाते ही बोले, हँस कर—'तुम्हारी देवरानी को देख आए।'

श्यामा तब से गुम-सुम बैठी थी। वह सुन कर, कुछ बोली। पति ने हँस कर कहा—'लड़की ज़रा उठते क़द की है। सुखदेव के कंधे तक समझो।'

श्यामा ने फिर भी कुछ कहा। पति हँस कर बोले—'पैसा बहुत है उसके पास। सुखदेव को विलायत भेजने को तैयार है। एक मकान दहेज में देने को कह रहा है।'

श्यामा फिर चुप रही।

ब्रजलाल ने खाना समाप्त करके पानी पिया, और उठ गए। घड़ी की ओर देखते गए, और कपड़े पहनते गए। फ़ाइल सँभाली, और शीशे में अपना मुँह देखा और बाहर को बढ़े कि श्यामा ने रास्ता रोक कर कहा—'मेरे लिए एक स्वेटर ला दो।'

'स्वेटर!'—पति ने झिड़की दे कर कहा—'क्या कह रही हो? मुझे आफ़िस की देरी हो रही है। और तुम स्वेटर की फ़र्माइश कर रही हो। सुखदेव से कहो।'

श्यामा ने सिर झुका कर कहा—'तो मुझे कुछ रुपए दो आज। मैं मँगवा लूँगी किसी से।'

'किसी से क्यों?'—ब्रजलाल ने जल्दी से एक रुपए का नोट निकाल कर कहा—'सुखदेव ले आएगा। लो, थामो। है कहाँ सुखदेव?'

पर सुखदेव का पता था। घंटे पर घंटा बीतता गया। सुखदेव जाने कहाँ जा कर बैठ गया था। खाना ठंडा होने लगा। श्यामा बार-बार दरवाज़े तक कर, दूर तक नज़र दौड़ाने लगी। दोनों लड़के एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर चाय वाले की दुकान पर जा कर, चाचाजी को खोज आए, और उदास हो कर भूखे-प्यासे लेटे रहे चाजाजी के पलंग पर।

दूर गली के छोर पर एक संगी लड़का रहता था। श्यामा ने घबरा कर बड़े मुन्ना से कहा—'जा तो, विद्याभूषण के यहाँ चला जा, भैया! कहियो कि हमारे चाचाजी अभी तक घर नहीं लौटे। तुमको मिले थे? कहाँ गए हैं चाचाजी? कहियो कि हमारी माँ बहुत घबरा रही हैं।'

तभी खट से किसी के जूतों की आवाज़ हुई। श्यामा ने चौंक कर देखा तो सुखदेव सिर झुकाए फीते खोल रहा था।...

खाते समय बिल्कुल सन्नाटा रहा। लड़के भी इशारे से एक-दूसरे से बातें करते रहे। सुखदेव ने तो एक बार भी थाली से सिर उठाया।

तीनों जने खा कर कमरे में लौट गए, और लड़कों की धूम-धड़ाक सुनाई देने लगी, तो श्यामा ने एक संतोष की साँस ली।

सहसा बड़े लड़के ने हाँफते हुए कर, माँ को एक काग़ज़ दिया, और बोला—'ले, पढ़ ले। चाचाजी ने दिया है। ले, पेंसिल ले यह! जवाब लिख।'

श्यामा ने हाथ का काम रोक कर, अचरज से वह काग़ज़ पढ़ा। सुखदेव ने लिखा था—

'मुझसे प्रोफेसर शर्मा की एक किताब खो गई है। आज उन्होंने अपनी किताब माँगी है। बाज़ार से ख़रीद कर ले जाऊँगा। साढ़े दस रुपए चाहिए। आप किसी से उधार दिलवा दीजिए। मैं सुबह से रुपयों की कोशिश करता रहा, पर कहीं नहीं मिले। आप कहीं से दिलवा दीजिए। भाई साहब से कहिएगा आपको मेरे सिर की क़सम है। इति'

श्यामा ने उसी काग़ज़ की पीठ पर लिखा—

'मेरे पास दस रुपए हैं। आप चाहें तो ले सकते हैं। आठ आने का इन्तिज़ाम कर लीजिए। इति'

ज़रा देर के बाद लड़का फिर दूसरा काग़ज़ ले आया। सुखदेव ने लिखा था—

'दस रुपए ही सही। दीजिए। भाई साहब से कहिएगा। मैं अगले महीने में आपको रुपए लौटा दूँगा। इति'

श्यामा ने दूसरी ओर लिखा—

'मैं आपके भाई साहब से नहीं कहूँगी। आप ये रुपए मुझे अब लौटाइएगा नहीं, आपको मेरे सिर की क़सम है। इति'

(चार)

शाम को सुखदेव कॉलेज से लौटा, तो घर में कुहराम मचा था। बड़ा लड़का मुन्ना बाहर आँगन में खड़ा रो रहा था। और भाभीवाले कमरे से छोटे की चीख-पुकार सुनाई दे रही थी—'हाय, चाचाजी! हाय चाचाजी!'

सुखदेव ने घबरा कर मुन्ना से पूछा—'क्या हुआ रे?'

मुन्ना रोता-रोता बोला—'अम्माँ ने उसे बहुत मारा है। अब रस्सी से बाँध रही है।'

सुखदेव ने जल्दी से किताबें आलमारी में फेंकीं, और जूता बिना उतारे फड़ाक से किवाड़ खोल कर, भीतर जा खड़ा हुआ, जहाँ भाभी छोटे भतीजे के दोनों कोमल हाथ रस्सी से बाँध रही थीं, और मुख से कहती जा रही थीं—'बुला चाचाजी को! देखूँ कौन तुझे बचाता है? और चिल्ला, और पुकार चाचाजी को!...

सुखदेव ने धक्का दे कर, श्यामा को पीछे ढकेल दिया, और जल्दी-जल्दी बच्चे के हाथ खोल कर, उसे कलेजे से लगा लिया। बच्चा चाचाजी से लिपट कर ख़ूब फूट-फूट कर रोने लगा।

आँखों में आँसू भरे, सुखदेव ने भाभी की ओर निहार कर पूछा—'क्यों मारा तुमने इसे?'

भाभी बोलीं। हाथ पर हाथ धरे, बैठी रहें।

'क्यों मारा तुमने इसे?'

भाभी ने हाथ उठा कर कहा—'ज़रा अपने कमरे में तो जा कर देखो! तुम्हारी भरी दावात उलट दी नासपीटे ने। एक रुपए का नुकसान कर दिया।'

सुखदेव ने कहा—'इसलिए तुमने मारा, क्यों?'

भाभी चुप रहीं।

सुखदेव ने कहा—'आज माफ़ करता हूँ। आइंदा जो तुमने बच्चे पर हाथ चलाया, तो मैं खाना छोड़ दूँगा समझीं?'

भाभी बोलीं।

सुखदेव ने बाहर जाते-जाते कहा—'हत्यारिन ने ज़रा-सी दावात के पीछे अधमरा कर दिया मेरे लड़के को।'

और वह बच्चे को पुचकारता, बाहर आँगन तक आया, तो एक किनारे हाथ में ढका थाल लिए, प्रियंवदा के नौकर को खड़ा पाया। तब वह भाभी को एक आवाज़ दे कर, भतीजे को लिए-लिए अपने कमरे में कर टहलने लगा।

प्रियंवदा के यहाँ भोज हुआ था। बच्चों को बुलाया था, पुरुषों का बुलाया था, स्त्रियों को बुलाया था। बच्चे, पुरुष, स्त्री, कोई भी गया यहाँ से। दुखी हो कर, प्रियंवदा ने स्वयं भोजन किया। फिर उदास हो कर, नौकर के हाथ बच्चों के लिए मीठा भिजवाया, अपनी माँ से कह कर।

नौकर थाल ख़ाली करके, हाथ जोड़ कर, विनय के स्वर में श्यामा से बोला—'माँ जी, आपको बीबीजी ने बुलाया है। जब कहें, मैं आपको लिवा ले चलूँ। एक दिन चल कर हमारी झोपड़ी पवित्र कर आइए, माँ जी!'

श्यामा को बहुत अच्छा लगा। प्रसन्न हो कर बोली—'वह तो मेरा अपना ही घर है। तू ऐसी बातें मत कह।'

नौकर हाथ जोड़े बोला—'तो कब चलेंगी माँ जी?'

श्यामा ने अधीर भाव से कहा—'कल इतवार है। इन लोगों की छुट्टी होगी। कल ही चलूँगी। तू दोपहर को जाना। खा-पी कर चलूँगी।'

नौकर सिर हिला कर बोला—'तो नहीं होगा, माँ जी! वहीं जीमियेगा। रूखा-सूखा जो कुछ हम ग़रीबों के घर बने...'

श्यामा ने हँस कर कहा—'अच्छा, यही सही।'

5

उस शाम को ब्रजलाल देर से घर लौटे। वह बातूनी फिर मिल गया क्या रास्ते में?

ख़ूब भुखा गए थे। आते ही बोले—'खाना लाओ। यहीं कमरे में ले आओ।'

श्यामा ने दृढ़ स्वर में कहा—'खाना नहीं है।'

पति ने अचरज से पूछा—'क्यों, अभी तक नहीं बना क्या?'

'बना है', श्यामा ने दृढ़ स्वर में कहा—'लेकिन तुम्हारे लिए नहीं!'

ब्रजलाल ने खीझ कर कहा—'क्या बक रही हो? जाओ, थाली परोस कर लाओ।'

श्यामा पासवाली कुरसी पर धम्म से बैठ गई और हाथ उठा कर बोली—'पहले एक बात का फ़ैसला कर दो, तब खाना लाऊँगी।'

'बोलो क्या है?'

श्यामा ने आगे को झुक कर कहा—'इस घर की मालकिन कौन है?'

ब्रजलाल ने हँस कर कहा—'तुम!'

श्यामा ने कहा—'उस बातूनी आदमी से तुमने यह बात कही या नहीं?' 'तब वह मेरे देवर से अपनी लड़की ब्याहनेवाला कौन होता है? और तुम्हीं क्या हक़ रखते हो इस तरह मुझसे बिना पूछे कोई बात कहने का?'

'मैं उसका बड़ा भाई हूँ।' पति ने हँस कर कहा।

'और मैं कौन हूँ?'—श्यमा ने आँखें सिकोड़ कर पूछा।

'तुम भाभी हो उसकी।'

'सिर्फ़ भाभी?'

ब्रजलाल चुप रह गए।

श्यामा ने सिर तान कर कहा—'जनाब, मैं ही उसकी माँ हूँ। मैं उसकी बहिन हूँ। मैं ही सब कुछ हूँ उसकी। समझे? मेरी आज्ञा के ख़िलाफ़ वह एक क़दम नहीं रख सकता। विश्वास हो, तो करके देख लो कुछ। तुम यह शादी ठहराओ, मैं कल ही उसे ले कर यहाँ से चली जाऊँगी। बहुतेरा कमा लेगा। तुम समझते क्या हो मुझे?'

ब्रजलाल ने कहा—'तुम क्या कहलवाना चाहती हो मुझसे? जल्दी से बतला दो। मैं कहने को तैयार हूँ। खाना ला दो फिर।'

श्यामा ने कहा—'अब आए ठिकाने पर! अच्छा, कहो, तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध...?'

ब्रजलाल ने जल्दी से कहा—'तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध... '

श्यामा ने आगे कहलवाया—'कहो—कुछ होगा।'

'कुछ होगा।'—ब्रजलाल ने जल्दी से दोहरा कर कहा—'अब खाना ले आओ।'

पर श्यामा उठी। बोली—'कहो, मुझसे आज ग़लती हुई है, यानी...' और अचानक सुखदेव को सामने खड़ा देख कर, चुप रह गई वह।

देवर ने शायद वह उतनी आधी बात सुन ली। ब्रजलाल ने सिर उठाया, तो वे भी छोटे भाई को देख कर सकपका गए। श्यामा सिर पर आँचल खींच कर भागी।...

खाना प्रायः समाप्त हो चुका था। ब्रजलाल ने पानी पी कर एक डकार ली, फिर पत्नी के शांत, सौम्य मुख की ओर क्षण भर निहार कर बोले—'तो यहाँ अपने देवर की शादी करोगी।'

'हरगिज नहीं।'—श्यामा सिर हिला कर बोली।

पति ने हँस कर कहा—'वह मुझे सौ रुपए भेंट कर गया है।'

'लौटा दो।' श्यामा ने फ़ौरन कहा।

पति बोले—'लौटा दूँगा। लेकिन परसों सुखदेव को अपनी परीक्षा की फ़ीस दाख़िल करनी है। कल इतवार है। कहो एक सप्ताह के लिए ये रुपए रख लूँ। पहली तारीख़ को शाम को वेतन मिल जाएगा। उसी दिन दे आऊँगा।'

'जी नहीं।'

'तब उसकी फ़ीस का क्या इन्तिज़ाम करूँ?'

'मैं कर दूँगी इन्तिज़ाम। ऊपरवाली मारवाड़िन लोगों के ज़ेवर गिरवी रखती है। मैं अपनी लाकेट गिरवी रख कर तुम्हें रुपए दूँगी। अभी ला दूँ? संतोष हो तो ला दूँ अभी। तुमने समझा क्या है?'

ब्रजलाल ने दोनों हाथ जोड़ कर सिर से लगाया और मुँह से कहा—'नमस्कार शत बार!'

श्यामा ने घबरा कर कहा—'अरे, लल्ला रहे हैं! हाथ नीचे करो, हाथ नीचे करो!'

पर सुखदेव इधर आया। वहीं आँगन में खड़ा-खड़ा बोला—'भाभी, भूख लगी है।'

(छः)

रविवार को दोनों भाइयों का नियम-सा था कि सुबह नाश्ता करके निकल जाते यार-दोस्तों में और दोपहर को बारह-एक बजे तक लौटने का नाम लेते। वही आज भी हुआ।

श्यामा को प्रियंवदा के घर जाना था। उसने जल्दी-जल्दी रसोई बनाई, फिर सब सँभाल-सुधार वहाँ जाने की तैयारी करने लगी। शीशे के सामने जा खड़ी हुई। भौंहों के नीचे से गाल तक कालिख लगी दीखी। हथेली रगड़ कर उस कालिख को मिटाने लगी, आँखें मींच कर। काफ़ी देर तक रगड़ा। फिर जो आँखें उघारकर शीशे में देखा तो सनाका हो गया। सारा चेहरा काला हो गया था। सारे चेहरे पर कालिख फैल गई थी।

श्यामा ने घबरा कर चारों ओर नज़र दौड़ाई कि कोई देख तो नहीं रहा है। फिर जल्दी से साबुनदानी उठा कर ग़ुसलख़ाने की ओर भाग गई।

मुख धोया साबुन से, हाथ धोए साबुन से। फिर पैरों की ओर नज़र गई तो पैर भी बहुत गंदे दीखे। तब फिर पैरों पर भी साबुन मलने लगी।

सहसा बाईं ओर किसी की परछाईं देख कर श्यामा ने साबुन मलते-मलते उधर को मुँह किया तो हाथ जहाँ के तहाँ रुक गए और आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा।

सामने नंगे बदन, कंधे पर धोती-तौलिया डाले, सुखदेव खड़ा था निश्चल, निर्वाक।

श्यामा से कुछ बन रहा था। यूँही पैर पर साबुन लगाए बैठी रही।

आख़िर सुखदेव ने ही वह निस्तब्धता तोड़ी। मुस्करा कर मुँह खोल कर बोला—'बैठी क्यों हो? पैर धो कर हटो न!'

तब मानो श्यामा की चेतना लौटी। ओठों में तनिक मुस्कुराई और जल्दी-जल्दी पैर धो कर उठ आई वहाँ से। कमरे में कर शीघ्रता से साबुन की टिक्की एक कपड़े पर दबा-दबा कर सुखाई, फिर बड़े जतन से उसे साबुनदानी में रख कर ले आई।

सुखदेव पाइप खोल कर खड़ा था और जाने क्या सोचता पानी की धार को देख रहा था। खट से भाभी ने पैरों के पास वह साबुनदानी रख दी और लौट चली लंबे डग भरती।

सुखदेव क्षण भर साबुनदानी को निहारता रहा। फिर उसने नीचे झुक कर साबुन की टिक्की उठा ली और फिर तड़ित-वेग से दूर जाती भाभी की ओर वह साबुन फेंक दिया ज़ोर से।

पर साबुन भाभी के लगा। जाने कैसे उसी क्षण ऊपरवाले मारवाड़ी सेठ सामने पहुँचे और जाने कैसे वह साबुन सेठजी की तोंद पर फटाक से लगा।

'अरे, मार डाला रे!' सेठजी वहीं पेट पकड़ कर बैठ गए।

श्यामा ने पीछे घूम कर देखा और सुखदेव ने भी देखा। घबरा कर वह सेठ जी के पास दौड़ा आया और दोनों हाथों से उसकी वज़नी देह उठाता बोला—'अभी इधर एक बंदर कूदा था। मैंने देखा था, उसके हाथ में यह साबुन था।'

सेठजी ने एक हाथ की टेक ज़मीन पर लगाई और दूसरे हाथ में वह सामने पड़ा साबुन ले कर उठ बैठे किसी तरह। फिर उस साबुन को लौट-पौट कर निहारा और सुखदेव की ओर तिरछी नज़र से ताक कर बोले—'साबण तो नयो है! छै आणे को माल दे गयो हनूमान!'

सेठजी साबुन ले कर चल दिए। सुखदेव और श्यामा देखते रह गए। आख़िर प्रियंवदा का नौकर गया बुलाने। श्यामा ने दोनों लड़कों को सजा-सजू कर बाहर खड़ा किया। फिर डरती-डरती देवर के पास कर बोली—'ज़रा अपना रूमाल दे दोगे?'

'क्यों, तुम्हारा रूमाल क्या हुआ?'

'मेरे पास कब था रूमाल?'

'तो यूँही जाओ।'

श्यामा ने अनुनय करके कहा—'दे दो ज़रा देर के लिए।'

सुखदेव ने चिल्ला कर कहा—'नहीं दूँगा रूमाल! चलो जाओ सामने से।'

श्यामा ने मुँह पर हाथ रख कर कहा—'अरे, धीरे बोलो! बाहर नौकर खड़ा है!'

सुखदेव ने और चिल्ला कर कहा—'नौकर की ऐसी-तैसी!'

श्यामा घबरा कर बाहर निकल आई।

(सात)

प्रियंवदा ने उसी विनम्र टोन में कहा—'मैं सच कह रही हूँ दीदी, जाने कितनी बार उनके मुँह से यह बात सुन चुकी हूँ कि मेरी भाभी के सामने लक्ष्मण की सीता भी तुच्छ हैं। कितनी ही बार तुम्हारी बड़ाई करते-करते, तुम्हारी बातें सुनाते-सुनाते आँखों में आँसू भर लाए हैं, और भरे गले से कहा है कि भाभी मेरी इस धरती माता की तरह है। ऐसी ही सहनशील, ऐसी ही विशाल, ऐसी ही महान। मुझे कहते थे कि उनकी सेविका बन कर जीवन सफल कर लेना अपना! तुम्हारे जन्म-जन्मांतर के पाप धुल जाएँगे।'—कहते-कहते प्रियंवदा का स्वर करुण हो उठा और नयन गीले हो गए।

श्यामा बोली। बोल नहीं पा रही थी। उसके कंठ में जाने क्या कर अटक गया था। फिर रुक-रुक कर भरे गले से बोली—'मैंने जाने कितने पुण्य किए थे उस जन्म में, जो ऐसे पति और देवर पाए। सच मानो बहिन, वे लोग देव-योनि के हैं। राह की धूल उड़ कर राज-मुकुट से जा लगी। पर मुकुट तो मुकुट ही है सखी, और धूल धूल!'

प्रियंवदा की आँखें सजल हो गई थीं। उन्हीं सजल आँखों से दीदी का सौम्य मुख निहार कर बोली—'दीदी, तुम देवता के कंठ की वरमाला हो। राह की धूल तो मैं हूँ, जो चरणों से लग कर पवित्र हो गई!' कह कर उसने श्यामा के पैरों से अँगुलियाँ लगा कर माथे से छुआ लीं।...

तभी छोटा लड़का घर की पालतू बिल्ली को गोद में लिए खड़ा हुआ। प्रियंवदा ने दोनों हाथ बढ़ा कर उसे गोदी में खींच लिया, फिर दो बार उसके शुभ्र सुंदर कपोलों का चुंबन करके बोली—'तुम्हारा क्या नाम है भैया?'

लड़के ने ऊपर मुँह करके कहा—'पहले तुम अपना नाम बतलाओ!'

प्रियंवदा हँसने लगी।

श्यामा ने हौले से कहा—'ये तुम्हारी चाचीजी हैं। समझे?' फिर प्रियंवदा की स्वच्छ साड़ी की ओर देख कर बोली—'बे-शऊर, चमार कहीं का! सारी साड़ी गंदी कर दी पैरों से। उतार दो बहिन इसे।'

लड़का प्रियंवदा के गले से लिपट कर बोला—'नहीं उतरूँगा। ऐं चाचीजी?'

प्रियंवदा ने पुलकित हो कर बच्चे को फिर चूम लिया और हौले-हौले कहने लगी—'मेरा राजा भैया विलायत जाएगा पढ़ने। बैरिस्टर बनेगा न?'

लड़के ने कहा—'मैं तो प्रेसीडेंट बनूँगा!'

श्यामा हँसने लगी। हँसते-हँसते बोली—'यही सब रटा दिया है चाचाजी ने!'

प्रियंवदा पुलकित हो कर बोली—'कहते हैं कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी साध यही है कि इन दोनों को बड़ा आदमी बना दूँ। भैया ने आधे पेट रह कर, पसीना बहा कर मुझे आदमी बनाया है। मैं अपने तन का रक्त दे कर बच्चों के व्यक्तित्व को महान कर सका तो जीवन सफल समझूँगा। क्यों रे, विलायत जाएगा न?'

लड़के ने प्रियंवदा की गोदी में सिर छिपा कर कहा—'नहीं चाचीजी, मुझे तो चाचाजी अमेरिका भेजेंगे पढ़ने को। हवाई जहाज़ से जाऊँगा। तुम कभी बैठी हो चाचीजी हवाई जहाज़ में?'

तभी सहसा प्रियंवदा की माँ ने कर कहा—'बेटी, चलो खाना खाओ।'

रामाशंकर प्रियंवदा का बड़ा भाई था। उसकी चौक में बहुत-सी दुकानें थीं। पत्नी उसकी मर गई थी। घर का कर्ता-धर्ता वही था।

रामाशंकर व्यस्त हो कर, श्यामा के लिए स्वयं थाली लगा रहा था कि वह पहुँची। अम्माजी भीतर जाने क्या लेने गईं कि चट-से श्यामा कढ़ाई के पास बैठी और एक पूरी बेल कर गर्म घी में छोड़ दी और प्रसन्न मुद्रा से बोली—'आज भैया को मैं बना कर खिलाऊँगी!'

उसी सजी थाली में रामाशंकर भैया को खिला कर श्यामा चूल्हे के पास से उठ आई। फिर पास खड़ी प्रियंवदा का हाथ पकड़ कर खींचती हुई बोली—'आओ सखी! मुझे तो बड़ी भूख लगी है।' और वही भैया की जूठी थाली आगे को खींच ली और पुकार कर कहा—'अम्मा, हम लोगों को खाना परोस जाओ!'

अम्मा ने धड़कता कलेजा लिए पूछा—'तो फिर, बेटी, मैं कल रामा को भेजूँ बड़े दामाद के पास?'

श्यामा ने भौंहें सिकोड़ कर कहा—'बड़े दामाद कौन खेत की मूली हैं अम्मा, तुम बड़ी बेटी की इज़्ज़त गिराओगी क्या?' तुम्हारी बड़ी बेटी ने जो कुछ कह दिया, उसे पत्थर की लकीर समझो।'

अम्मा मुँह देखने लगीं बड़ी बेटी का।

बड़ी बेटी ने तब तनिक नाराज़-सी हो कर कहा—'तुम्हें यक़ीन नहीं हुआ क्या अम्मा? अरे, मैं कहती हूँ, सुखदेव के साथ प्रियंवदा की शादी होगी, होगी, होगी। बस!'

रामाशंकर भी पास खड़ा हुआ था। श्यामा ने उसकी ओर देख कर पूछा—'भैया, अपनी दुकान पर साबुन भी बिकता है न?'

'बहुतेरा साबुन है तुम्हारी दुकान में। साबुन की तो एजेंसी तक है।'

'तब एक शर्त है,' श्यामा ने अँगुली उठा कर कहा।

अम्मा का दिल धड़कने लगा। रामाशंकर भी घबराया कि भगवान, क्या शर्त है इसकी?

श्यामा अँगुली उठा कर बोली—'भैया, तुम्हें हर महीना मुझे एक साबुन की टिक्की देनी होगी। बोलो, हामी भरते हो?'

रामाशंकर ठहाका मार कर हँस पड़ा।

अम्मा ने आँखों में आँसू भर कर कहा—'हाय पगली!'

पर श्यामा हँसी। बल्कि स्वर में दुख भर कर बोली—'तुम्हें क्या मालूम अम्मा कि मैं साबुन के लिए कितनी परेशान रहती हूँ!'

रामाशंकर ने गद्गद् कंठ से कहा—'बहिन, आज ही तुम्हारे पास एक पेटी साबुन भिजवा दूँगा।'

नौकर पीछे से बोला—'मैं दे आऊँगा शाम को।'

जाने किधर से बड़े लड़के ने सब सुन लिया। वह रामाशंकर के आगे कर बोला—'मामाजी, आज अम्मा से और चाचाजी से साबुन के पीछे ख़ूब लड़ाई हुई थी।'

श्यामा ने चिल्ला कर कहा—'चुप रह चुग़लख़ोर!'

पर लड़का माना। उसी दृढ़ स्वर में बोला—'सच, मामाजी, इसने चाचाजी का साबुन ले लिया था। सो चाचाजी ने...'

श्यामा ने लपक कर उसका मुँह बंद कर दिया।

सारा घर हँस रहा था।

स्रोत :
  • पुस्तक : हिंदी कहानियाँ (पृष्ठ 243)
  • संपादक : जैनेंद्र कुमार
  • रचनाकार : द्विजेंद्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’
  • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
  • संस्करण : 1977

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