पगडंडी
Pagdandi
तब मैं ऐसी नहीं थी। लोग समझते हैं मैं सदा की ऐसी ही हूँ—मोटी, चौड़ी, भारी-भरकम, क्षितिज की परिधि को चीरकर अनंत को शांत बनाती, संसार के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक लेटी हुई। वह पुराना इतिहास है। कोई क्या जाने!
तब मैं न तो इतनी लंबी थी, न इतनी चौड़ी। न चेहरे पर ईंटों की सुर्ख़ी की ललाई थी, न शरीर पर कंकड़ों के गहने। मेरे दाएँ-बाएँ वृक्षों की जो ये कतारें देख रहे हो, वे भी नहीं थी, न फुटपाथ था, न बिजली के खंभे। अप्सराओं की-सी सजी न ये दुकानें थीं, न अंगूठी के नगीने की तरह ये पार्क। तब मैं एक छोटी-सी पगडंडी थी—दुबली, पतली, सुकुमार, नटखट!
कब से मैं हूँ, इसकी तो याद नहीं आती; किंतु ऐसा जान पड़ता है कि अमराई के इस पार की कोई तरुणी नदी से जल लाने के लिए उस पार गई होगी; जैसे किसी छोटी-सी नगण्य घटना के बाद किसी प्रथा का जन्म हो जाता है और उसके बाद फिर एक धर्म भी निकल पड़ता है। उसी तरह एक तरुणी के जल भर लाने के बाद गाँव की सारी तरुणियाँ घड़े में जल लेकर भटकती, इठलाती एक ही पथ से आती रही होंगी और फिर वहीं से मेरे जीवन की कहानी बह निकली।
मेरे अतीत के आकाश के दो तारे अब भी मेरे जीवन के सूनेपन की अँधियारी में झलमला रहे हैं। यों तो सारी अमराई, सारा गाँव मेरे परिचितों से भरा था, किंतु घनिष्ठता थी केवल दो जनों से, एक बट दादा और दूसरा था रामी का कुँआ।
बट दादा अमराई के सभी वृक्षों में बूढ़े थे और सभी उन्हें श्रद्धा और आदर से बट दादा कहा करते थे। थे तो वे वृद्ध, लेकिन उनका हृदय बालकों से भी सरल और युवकों से भी सरस था। वे अमराई के कुलपति थे। उनमें तपस्वियों का तेज़ भी था और गृहस्थों की कोमलता भी। उनकी सघन छाया के नीचे लेटकर बीते हुए युगों की वेदना और आह्लाद से भरी कहानियाँ सुनना, रिमझिम-रिमझिम वर्षा में उनकी टहनियों में लुककर बैठ पक्षियों की सरस बरसाती का मज़ा लूटना आज भी याद करके मैं विह्वल हो उठती हूँ।
ठीक इन्हीं से सटा हुआ रामी का कुँआ था—पक्का, ठोस, सजल, स्वच्छ, गंभीर, उदार। साँझ-सबेरे गाँव की स्त्रियाँ झन-झन करती आती और अमराई को अपने कल-कंठ से मुखरित करके कुएँ से पानी भरकर मुझे भिगोती हुई, रौंदती हुई चली जाती।
मेरी चढ़ती हुई जवानी का आदि भी इन्हीं से होता है, मध्य भी इन्हीं से और अंत भी इन्हीं से। भूलने की चेष्टा करने पर भी क्या कभी मैं इन्हें भूल सकती हूँ?
मनुष्य के जीवन का इतिहास प्रायः अपने सगों से नहीं परायों से बनता है। ऐसा क्यों होता है समझ में नहीं आता, किंतु देखा जाता है कि अकस्मात कभी की सुनी हुई बोली, किंचितमात्र देखा हुआ स्वरूप, घड़ी-दो-घड़ी का परिचय, जीवन के इतिहास की अमर घटना, स्मृति की अमूल्य निधि बनकर रह जाते हैं और अपने सगों का समस्त समाज अपने जीवन का सारा वातावरण कमल के पत्ते के चारों ओर के पानी की तरह छल-छल करते रह जाते हैं, उछल-उछलकर आते हैं, बह जाते हैं। टिक नहीं पाते। मैं सोचती हूँ ऐसा क्यों होता है? पर समझ नहीं पाती।
जेठ के दिन थे। अलस दुपहरी। गर्म हवा अमराई के वृक्षों में लुढ़कती फिरती थी। बट दादा ऊँघ रहे थे। एक वृक्ष में लिपटी हुई दो लताओं में झगड़ा हो रहा था। मैं तन्मय हो उनका झगड़ा सुन रही थी, इतने में ही कुएँ ने पूछा- पगडंडी, सो गई क्या?
'नहीं तो'—मैंने कहा- इन लताओं का झगड़ा करना सुन रही हूँ।
कुएँ ने हँसकर पूछा- बात क्या है?
मैंने कहा- कुछ नहीं, नाहक़ का झगड़ा है—दोनों मूर्ख हैं।
कुएँ ने हँसकर कहा- संसार में मूर्ख कोई नहीं होता, परिस्थिति सबको मूर्ख बनाती है। इस अमराई में तुम अकेली हो, कल एक और पगडंडी बन जाए तो क्या यह संभव नहीं कि फिर तुम दोनों झगड़ने लग जाओ?
मैं तिनक गई। बोली- साधारण बात में भी मेरा ज़िक्र खींच लाने का तुम्हें क्या अधिकार है?
कुएँ ने पूछा- उन्हें मूर्ख कहने का तुम्हें क्या अधिकार है?
मैंने कहा- मैं सौ बार कहूँगी, हज़ार बार कहूँगी, वे दोनों मूर्ख हैं, तुम भी मूर्ख हो, सब मूर्ख हैं?
इतने में ही बट दादा भी जग पड़े, बोले- किसको मूर्ख बना रही है? बात रुक गई, कुआँ चुप हो गया। दो दिन तक बोल-चाल बंद रही। मैंने जान-बूझकर उससे झगड़ा क्यों किया, इसे वह समझ नहीं पाया। इसलिए मुझे संताप भी हुआ और ग्लानि भी। स्त्री प्रेम से विह्वल हो जाती है और अपने उच्छ्वासित हृदय के उद्गारों को जब निरुद्ध नहीं कर पाती, तब वह झगड़ा करती है। स्त्री का सबसे बड़ा बल है रोना, उसकी सबसे बड़ी कला है झगड़ा करना। झगड़ा करके तिनकना, रूठकर रोना, फिर दूसरे को रुलाकर मान जाना, नारी-हृदय का प्रियतम विषय है। पुरुष चाहे कितना भी पढ़ा-लिखा हो, साहित्यिक हो, दार्शनिक हो, तत्वज्ञानी हो, यदि वह इतनी सीधी-सीधी बात नहीं समझ पाता तो सचमुच मूर्ख है।
यह घटना कुछ नई नहीं थी, नित्य की थी। कोई छोटी-सी बात लेकर हम झगड़ पड़ते, आपस में कुछ कह-सुन देते, फिर हफ़्तों एक-दूसरे से नहीं बोलते। किंतु वह बात जिसके लिए मैं सब कुछ करती, सारा झगड़ा खड़ा करती, कभी नहीं होती। कुआँ मुझे कभी नहीं मनाता था। अंत में हारकर मुझे ही बोलना पड़ता, तब वह बोलने लगता मानो कुछ हुआ ही नहीं। मैं मन ही मन सोचती यह कैसा विचित्र जीव है कि न तो इसे रूठने से कोई वेदना होती है और न मनाने से कोई आह्लाद। स्वयं भी नहीं रूठता, केवल चुप हो रहता है। बोलती हूँ तो फिर बोलने लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। हे ईश्वर! अपनी रचना की हृदयहीनता की सारी थैली क्या