मुठभेड़

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मुद्राराक्षस

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    कितनी लंबी और तीखी मार होती है फिर वह चाहे मौसम की हो या सिपाही की। चीख़कर उड़ी फड़फड़ाती हुई चील की तरह रज्जन की तकलीफ़ भरी हुई एक सदा-सी सुन पडी...“ओ माँ...”

    नत्थू के हाथ कमर में बँधे कपड़े के छोर से बनाई छोटी-सी पोटली पर इस क़दर ढीले पड़ गए कि पोटली उसके बदन का हिस्सा जैसी बनी होती तो ज़रूर सरक गिरती। आवाज़, बॉस जैसी तुड़कती हुई तकलीफ़ भरी वह चीख़ ज्य़ादा लंबी नहीं थी लेकिन नत्थू की पसलियों के अंदर बहुत दूर तक और देर तक लकीर-सी खींचती चली गई।

    कितनी लंबी और तीखी मार होती है फिर चाहे वह मौसम की हो या सिपाही की।

    जून की इस बहुत तीखी और बहुत ज्य़ादा चढ़े बुख़ार की तरह बेआवाज़ धूप में नत्थू जहाँ ठिठक गया, वहाँ से सिर्फ़ कुछ क़दम आगे ही उसके मकान की पिछली दीवार थी। कच्ची मिट्टी से खड़ी की गई उस दीवार पर सफ़ेद सीपियाँ और घोंघे इस तरह उभर आए थे गया वे वहाँ जड़ दिए गए हों। उस सफ़ेद पच्चीकारी के बीच पानी की धार से कटी मिट्टी की सॅकरी खड़ी धारियाँ ज़ाहिर कर रही थी कि मौसम की अगली मार पड़ते ही दीवार गन कर गिर जाएगी। शायद इस दीवार के गिरने पर भी वैसी ही दहलानेवाली और भद्दी आवाज़ हो जैसी आवाज़ इस बार रज्जन की सुनाई दी थी। नत्थू ठहर गया था। हो सकता है वह अगली चीख़ का इंतज़ार कर रहा हो या फिर पहली ही चीख़ के अपने अंतर मे डूबने का समय लेना चाहता हो। रज्जन की आवाज़ दुबारा नहीं आई। मौसम की मार से छिली हुई दीवार की तरह ही शायद बारिश या डंडे के सिर्फ़ एक और आघात से वह भी गिरा हो तालाब की मिट्टी से बनी काली-भूरी दीवार-सा।

    इतने समय में पोटली उसने दुबारा सावधानी से पकड़ ली थी। पोटली में काफ़ी तादाद में तोड़ी अरहर की फलियाँ थी। इन्हें छिलके सहित उबाल लेने के बाद थोड़े-से नमक की मदद से ख़ासे स्वादिष्ट भोजन के रूप में काम में लाया जा सकता था। खाने के मामले में उसके लिए यह मौसम लगभग समृद्धि काल होता था। हर किसी के लिए यह जानना आसान नहीं होता कि दुनिया का सबसे उम्दा खाना क्या होता है लेकिन नत्थू को यह ज़रूर मालूम था कि मिट्टी और सड़े पत्तों के बीच टपकने वाले महुए के रस भरे हुए सफ़ेद फूलों या फलों के बाद सबसे ज़ायक़ेदार खाना अरहर की उबली हुई फलियाँ होती थी। अरहर एक ऐसी बत्तमीज़ फ़सल है जो बिना किसी खाद या पानी के, बग़ैर किसी सही देख-रेख के खेत में बेतरतीबी से खड़ी रहती है और इतने लंबे अरसे तक खड़ी रहती है कि लगता है वह वहाँ हमेशा ऐसी ही बनी रहेगी। खेत की हिफ़ाजत करनेवाला ही नहीं उसे चर जानेवाला जानवर भी अक्सर उसकी तरफ़ से उदासीन हो जाता था। ऐसे में झुलसाकर सुखाए आदमियों की खड़खड़ाती बेजान भीड़ की तरह खड़े उस खेत से दो पाव फलियाँ तोड़ लेना मामूली बात थी।

    रज्जनलाल की उस कातर चीख़ के बाद सब ख़ामोश हो गया। सिर्फ़ एक ऐसे परिंदे की आवाज़ आती रही जिसके बारे में नत्थू ने ही नहीं, गाँव के हर आदमी ने एक ही वीभत्स और जुगुप्साजनक कहानी सुनी थी। सच तो यह है कि बहुत स्वादिष्ट महुए एकत्र करते हुए अक्सर वह परिंदा बोलता ज़रुर था और उसे वही कहानी याद भी आती थी। कहते हैं कभी एक बूढ़ी औरत ने घर के बाहर धूप मे महुए फैलाए और लकड़ी बीनने जाते वक़्त अपने एकमात्र पोते से कह गई कि वह महुओं की हिफ़ाज़त करे। धूप से सूखकर महुए बहुत कम हो गए। बुढ़िया ने वापस लौटकर समझा कि बच्चा चोरी से महुए खा गया। बुढ़िया ने बच्चे को सिल के पत्थर से मारा। बच्चा मर गया। लोगों ने बुढ़िया को बताया कि महुए चोरी नहीं गए थे, सूखकर कम हो गए थे, इसके बाद बुढ़िया एक चिड़िया बन गई और हर दोपहर आवाज़ लगाने लगी— उठो पुत्तू, पूर, पूर, पूर—

    रज्जन को वे लोग सुबह कोई आठ बजे ले गए थे। उनमें से एक छोटा थानेदार था, बाक़ी सिपाही थे। रज्जन से उन्हें क्या जानना था यह शायद ही किसी को मालूम रहा हो।

    रज्जन को जिस वक़्त पुलिस ले चली, उसके पीछे बच्चों की ख़ासी ही भीड़ थी लेकिन मर्द या औरत कोई नहीं था। बच्चे शायद वहाँ बहुत देर तक रहे हों। गाँव के बाहर प्रधान के खेतों से कटकर आने वाले अनाज के इकट्ठा करने की जगह और छोटे से एक कमरे के स्कूल के पीछे से होकर रास्ता कुछ बेढंगी क़ब्रों के बीच से गुज़रता हुआ एक टीले जैसी जगह की तरफ़ निकल जाता था। इस टीले पर पलाश की धूल से अँटी झाड़ियाँ और मकड़ी के जाले जैसे फूल उगानेवाली लंबी सूखी घास थी।

    बच्चों और रज्जन को उधर जाते देखनेवालों में नत्थू भी था। जाने कैसे उसे लगा था कि उसे वहाँ उस वक़्त दिखाई नहीं देना चाहिए। शायद उसी अपरिभाषेय आशंका के कारण उसने सोचा था कि फलियाँ तोड़ने में ज्य़ादा वक़्त लगाना चाहिए और फिर जहाँ तक बने, सीधे रास्ते घर नहीं लौटना चाहिए।

    लंबा रास्ता तय करके गाँव के क़रीब आते-आते उसने यह आवाज़ सुनी, बहुत दूर से और बहुत ज्य़ादा तकलीफ़ में छटपटाती आवाज़। वह रज्जन की आवाज़ थी। कुछ ऐसी जैसे कीचड़ के बीच नोकदार लकड़ी से छेद दी गई मछली हो। रज्जन की उस चीख़ के साथ ही बबूल के झीने बेडौल दरख्त़ों के बीच से कही से उस परिंदे की आवाज़ आने लगी— उठो पुत्तू, पूर, पूर, पूर। जैसे वह कह रहा हो— बेटा उठ जाओ, महुआ कम नहीं हुआ है, पूरा है। यह चिड़िया बोलना शुरू करती है तो बोलती ही जाती है, तीखी दर्दभरी आवाज़ में, अक्सर घंटों— उठो पुत्तू, पूरे, पूर, पूर,—

    रज्जन की आवाज़ के साथ बच्चों का वह हुजूम भागता हुआ स्कूल नाम के उस अधगिरे सायबान के पास गया। शायद उन्हें पुलिस वालों ने धमकाकर भगा दिया था। बच्चों के उस हुजूम मे ही रज्जन का बेटा भी था। स्कूल के पास ठहरकर बच्चों ने उसकी तरफ़ देखा। उनकी निगाहों में कोई कुतूहल था करुणा, उसे देखकर वे अपनी-अपनी व्यस्तता का साधन खोजने लगे। रज्जन का बेटा अभी तक सामान्य दिख रहा था पर वह यकायक कमज़ोर और बीमार दिखने लगा। उसका साँवला चेहरा ऐसा हो आया जैसे उस पर राख की एक परत जमी हो। वह धीरे से सूखे हुए गोबर के एक ढेर पर बैठ गया। बच्चों को अपनी व्यस्तता खोजने में ज्य़ादा देर नहीं लगी। एक बहुत ऊँचे बीमार आम के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर लटके हुए सूखे-से कच्चे आम को तोड़ने के लिए वे मिट्टी और पत्थर के ढेले उछालने लगे।

    वह आम शायद बहुत दिनों से वही था। या फिर एक गिर जाने पर दूसरा प्रकट हो जाता था। बच्चे लंबे अरसे से उस पर ढेले चला रहे थे। किसी को पता नहीं वह आम कभी गिरा भी था या नहीं। हाँ, बच्चों की इस कोशिश पर उस स्कूल के ऊपर रखी गई टिन की चादरें गिरते हुए ढेलों की वजह से ख़ासा शोर करती थीं। काफ़ी पत्थर गिर चुकने के बाद अंदर से स्कूल के एकमात्र अध्यापक किशन बाबू की आवाजें सुनाई देती थीं, “ठहर जाओ सालो।”

    इस ललकार के बाद बच्चे ईंटें फेंकना बंद करके किसी और काम में लग जाते थे।

    आम के उस दरख़त पर फेंके गए दो-तीन ढेलों के बाद ही इस बार अध्यापक किशन बाबू की आवाज़ नहीं, आकृति बाहर गई। यह काफ़ी अनहोनी घटना थी। बच्चे सहमकर खड़े हो गए।

    “भाग जाओ...” किशन बाबू भरी आवाज़ में बोले। बच्चे भाग गए। किशन बाबू स्कूल के अंदर नहीं गए। गर्द और धूप से पीलिया के रोगी जैसे दिखते क्षितिज पर आँखें गड़ाकर उस तरफ़ देखने लगे जिधर से रज्जन के चीख़ने की आवाजें रही थीं। अब वे चीख़ने की आवाजें नहीं कुछ ऐसी ध्वनियाँ थीं जैसे वे गले से नहीं, सीधे फेफड़े से उबलकर बाहर रही हों।

    स्कूल के आसपास एक़दम सन्नाटा था। वह स्कूल था, इस बात पर शायद ही कोई विश्वास कर सके। कच्चे फ़र्श और टीन की छत वाले उस लंबोतरे कमरे में दूसरे से चौथे दर्जे तक की कक्षाएँ एक साथ लगती थीं, कमरे के तीन कोनों में। और चौथे कोने में एक मेज़ के सहारे किशन बाबू बैठते थे। वे इस स्कूल के अध्यापक भी थे और पोस्टमास्टर भी। कुछ गालियों के साथ बच्चों को लगातार लिखते रहने का कोई काम देने के बाद वे सो जाते थे। कभी-कभी खीझ के साथ एक पोस्टकार्ड देने या ख़त लिखने के लिए उन्हें जागना होता था।

    जागने पर किशन बाबू बहुत ज़ोर से खीझते थे। लेकिन बहुत थोड़े समय के लिए। जगानेवाला उनकी खीझ से परेशान होने के बजाए हँसता था। वे अजीब चरित्र थे। उनकी चरित्रगत विशिष्टता ही थी कि वे या तो सिर्फ़ अध्यापक के रूप में जाने जाते थे या डाकख़ाना के नाम से। पोस्टमास्टर शब्द वैसे भी सहज नहीं था पर उनके स्वभाव के कारण लोगों को उन्हें डाकख़ाना कहना अच्छा लगता था। इसकी वजह थी। ख़ासी मसख़री वजह। गांववालों का विश्वास था कि ख़त ही नहीं तार से भी ज्य़ादा जल्दी पहुँचती हैं, वे बातें जोकि किशन बाबू को बता दी जाती हैं। इसीलिए वे डाकबाबू नहीं डाकख़ाना माने जाते थे।

    लेकिन इसमें क़सूर किशन बाबू का नहीं था। वे ज़िंदगी में शायद ही कभी किसी ऐसी जगह गए होंगे जहाँ कोई मनोरंजन कर सकता हो मन लगाने के लिए उम्र बढ़ने के साथ-साथ उन्होंने वह तरीक़ा खोज लिया था, जिसे भद्दी भाषा में अक्सर लोग चुगलीख़ाना कह लेते हैं।

    उस छोटे-से गाँव में यह एकमात्र सबसे सुलभ और लोकप्रिय मनोरंजन था। इस मनोरंजन की खूबी यह थी कि यह अक्सर कई रोज़ निरंतर मन बहला सकता था। पड़ोस के गाँव में नौटंकी होती थी। उससे आगे एक क़स्बा पड़ता था जिसमें एक अदद सिनेमा था। मगर ये दोनों ही बहुत सीमित मनोरंजन थे। अक्सर सिनेमा या नौटंकी देखनेवाले को बाद में मनोविनोद ज़ारी रखने के लिए ख़ासे झठ बोलने होते थे जो कभी-कभी पकड़े भी जाते थे। मसलन एक बार पंडित राधेश्याम ने एक सिनेमा देखा और वापस लौटकर बताया, “बड़ी गंदी तस्वीर है। उसमें खुलेआम औरत-मर्द गड़बड़ करते हैं।”

    “खुलेआम गड़बड़ करते हैं?” पड़ोसियों में अचानक उत्सुकता जाग पड़ी।

    “अरे बड़े गंदे होते हैं ये, मत पूछो।” पंडित ने थूका भी।

    “मगर होता क्या है?” उत्सुक पड़ोसियों ने सहसा कल्पनाएँ करनी शुरू कर दी।

    “अरे क्या नहीं होता, पूछो। रंडियाँ होती हैं, कुछ भी कर सकती हैं।”

    “मतलब कपड़े-वपड़े सब उतारकर?”

    “लो, इस लल्लू की सुनो।”

    सबने विश्वास कर लिया कि परदे पर पंडित राधेश्याम वह कुछ देखकर आए हैं, जो दुर्लभ होता है और वह भी इतने सुंदर सजे-धजे लोगों के बीच होता हुआ।

    एक-दूसरे को बग़ैर बताए यकायक कई लोग अगले दिन गाँव से ग़ायब हुए और जब वापस लौटे तब पंडित राधेश्याम को उससे भी ज्य़ादा गंदी गालियाँ दे रहे थे, क्योंकि परदे पर उन्होंने जो देखा था उसमें बिस्तर पर जाने से पहले नायक और नायिका कपडे उतारते ज़रूर दिखे लेकिन सिर्फ़ कपड़े ही। नायक-नायिका नहीं दिखे। उनके उतारे कपड़ो का ढेर बन गया तो गाँववालों ने उत्सुकता से साँस रोक ली। वे समझे कि अब बिस्तर पर दोनों दिखाई देंगे लेकिन परदे पर तुरंत अँधेरा हो गया और जब उजाला हुआ तो लोग नायिका के बाप से शिकायत करने जाते दिखे।

    ऐसे माहौल में बेहतरीन मनोरंजन किशन बाबू दे सकते थे, “अरे भई सुना? नहीं सुना? छोड़ो, तब तुम्हे बताने से क्या फ़ायदा।”

    किशन बाबू के इस संवाद को सुननेवाला उत्सुक से ज्य़ादा शर्मिंदा होता था क्योंकि किशन बाबू तुरंत यह भी कह देते थे, “सारा गाँव जानता है। तुम्ही कैसे अनजान बने हो? मुझे तो स्कूल को देर हो रही है।”

    यह संवाद बोलने के बाद किशन बाबू स्कूल की तरफ़ चल भी पड़ते थे। ऐसी हालत में वह वाक्य सुनने वाला इसे आशंका से लगभग बौखला जाता था कि किसी बेहद रोचक प्रसंग की हिस्सेदारी से वह वंचित रह जाएगा। तब वह यकायक प्रार्थी हो जाता था बल्कि चापलूस। कुतूहल से चिकनाई आँखों से इधर-उधर ताकता हुआ किशन बाबू से सट जाता था। “क़सम से डाकख़ाना बाबू, इधर हम ऐसे फँसे रहे कि पूछो मत।”

    “तो फिर फँसे रहो बच्चू। मैं तो प्रपंच में पड़ता नहीं। सारा गाँव जानता है। नंदू की घरवाली का क़िस्सा...”

    इसके बाद किशन बाबू वहाँ ठहरते नहीं थे। धीरे-धीरे अगले दिन तक गाँव का हर मर्द छोटा-मोटा किशन बाबू बन जाता था। वह यह सिद्ध करना चाहता था कि नंदू की घरवाली के कांड का प्रथम उद्घाटनकर्ता वही है। यह सिद्ध करने में वह क़िस्से को अपनी कल्पना के पूरे कौशल से गढ़ने की कोशिश करता था। इस क़िस्से को सुननेवाला इसे अपना मौलिक उद्घाटन मनवाने के लिए अगले आदमी को अपनी तरफ़ से ख़ासा नमक-मिर्च लगाकर सुनाता था। इस तरह वह क़िस्सा जो भी रहा हो, कई रोज़ तक तरह-तरह के रूप लेता हुआ लगभग समूचे गाँव का मनोरंजन बना रहता था।

    इस मनोरंजन में लोगों का मन रमाने की ख़ासी ही शक्ति थी लेकिन यही गाँव की गड़बड़ी की जड़ भी था। गड़बड़ी कहीं राधे की साली की हो नाम रघुनंदन की बहू का चल पड़ता था और इस तरह जो झगड़ा उठ खड़ा होता था वह अक्सर और ज्य़ादातर रोचक होता था। मनोरंजन का चक्र पूरा होते होते मालूम होता था कि रघुनंदन ने मंसा को पीट दिया और मंसा नंदू को गाली दे आया या नंदू ने राधे पर ईंट फेंक मारी। यह झगड़ा जल्दी शांत नहीं होता था क्योंकि झगड़ा ठंडा जल्दी पड़ जाय तो उसमें भी मनोरंजन भाव को ही व्याघात होता था। जब नंदू राधे को ईंट मारता था तो राधे गोपाल की चाची का भेद खोल देता था और रघुनंदन से पिटनेवाला मंसा टिंगू के घर का परदा उघाड़ देता था। इस तरह जितनी देर ये झगड़े चलते थे मनोरंजन रस के परिपाक की संभावनाएँ बढ़ती ही जाती थीं। इसीलिए लोग एक तरफ़ तो दो आदमियों को समझा-बुझाकर चुप कराते थे पर कोई ऐसा सूत्र भी छोड़ देते थे जिससे अगले चार के बीच शाम तक दुबारा फ़साद खड़ा हो जाए।

    उस गाँव में बेहद लापरवाही लेकिन रुचि के साथ खेले जा रहे इस खेल में कुछ ऐसी रहस्यजनक शक्ति भी थी कि लगता था यह खेल ख़ुद गाँव को खेल रहा है, डोरी से बँधी उस गरारी की तरह जो धागे से खुलती हुई जितनी तेजी से नीचे उतरती है उतनी ही फुर्ती से धागे को लपेटती हुई दुबारा ऊपर चढ़ जाती है।

    गाँव का दिन अपनी तमाम बदहाली के बावजूद उतना बुरा नहीं होता, बल्कि उसमें कुछ ऐसा होता है जो आदमी को अपनी तरफ़ खींचता है, अपने से जोड़ता है चाहे वह तालाब में सड़ने के इंतज़ार में छोड़े सन के पौधों का गट्ठर हो या पानी माँगता हुआ तंबाकू का पौधा, लेकिन रात वैसी नहीं होती है। गाँव की रात में एक अनाम दहशत होती है। अँधेरे के साथ खौफ़ सख़्त रोएँ आदमी से ऐसे सटने लगते हैं जैसे कोई आदमखोर सूँघने की कोशिश कर रहा हो। ऐसे में आदमी या तो आग के इर्द-गिर्द आदिम कबीले की तरह वक़्त गुज़ारता है या मिट्टी के घरों की गुफाओं में सिमट जाता है।

    गाँव के दिन और रात का यही फ़र्क़ इस मनोरंजक खेल के दो पहलुओं के बीच भी थी— एक पहलू लोगों की रुचि का और दूसरा उससे उपजनेवाली सामाजिक उलझन का। बड़े अनजाने और अनचाहे ही इसे दूसरे पहलू की गाँठे बढ़ती गई थी। कभी-कभी वे गाँठे इतनी सख़्त हो जाती थी कि किसी असाध्य रसौली की तरह बिना कुछ जानें लिए मानती नहीं थीं।

    इस गाँव नौबन में पिछले कुछ अरसे से ऐसी ही कुछ रसौलियों ने ज़बर्दस्त दर्द और तनाव पैदा कर दिया था। रिश्तों की ये रसौलियाँ कब मारक हो उठीं, यह कोई नहीं जानता पर पिछले साल ज़बरदस्त सदियों में चींटियों से लिपटी नन्हे की लाश के साथ ख़ासी गड़बड़ी शुरू हो गई। और उन रसौलियों की सड़न रज्जन और नत्थू से कैसे जुड़ गई इसका भविष्य भी उतना ही अतर्कित है जितना नन्हें की लाश से पैदा हुई गड़बड़ी का।

    ऐसा किसी ने कहा कि नन्हें मारा गया है और उसके मारे जाने के पीछे होरीलाल की छोटी बहन का कोई क़िस्सा है। हीरालाल ने कुछ नहीं कहा पर उसके छोटे भाई ने संतू को लाठियों से इसलिए बुरी तरह पीट डाला कि उसका ख़याल था यह बात संतू ने ही उड़ाई है।

    संतू को दोबारा होश नहीं आया। उसे चूँकि रात के अँधेरे में होरीलाल के भाई ने अकेले घेरकर मारा था इसलिए हमलावर या हमलावरों का पता नहीं चला। लेकिन एक बात बहुत तेज़ी से फैल या फैलाई गई। किसी ने कहा, संतू डकैत था और चूंकि वह डकैत था इसलिए मदनलाल के गिरोहवाले उसकी मौत का बदला लेंगे।

    मुमकिन है यह बात किशन बाबू ने ही फैला दी हो लेकिन इससे और ज्य़ादा मामला उलझ गया कि मदनलाल बरसाती राम का दुश्मन था। ज़रूर मदनलाल अपने गिरोह के साथ लाला बरसाती राम पर चढ़ाई करेगा।

    इतना कुछ घट जाने के बाद नत्थू और रज्जन की भूमिका शुरू हुई। सारे घटना क्रम से वे कुछ इस सहजता से जुड़ गए जैसे वे हमेशा से उस सबका हिस्सा बनने का हक़ पाकर आए हों। वे जुड़े हुए दिखते तो ज़रुर अनहोनी बात होती।

    नत्थू और रज्जन नौबन के ख़ास चरित्र थे। उनकी उस विशिष्टता को लगभग हर कोई जानता था लेकिन वह जानकारी भी उसी मनोरंजन का हिस्सा थी जिसमें स्त्री-पुरुष संबंध थे।

    वे दोनों ही मुख़बिर थे। दोनों सगे भाई थे लेकिन आपस में गहरी दुश्मनी थी। रज्जन डकैतों को मुख़बिर था और नत्थू पुलिस का। ऐसा लोगों का ख़याल था। मगर नत्थू कुछ ज्य़ादा चालाक था। वह डकैतों के लिए भी मुख़बिरी करता था। डकैतों के कहीं मौजूद होने की सूचना पुलिस को देने के बाद वह उतनी ही फ़ुर्ती से डकैतों को यह ख़बर भी पहुँचा देता था कि पुलिस को उनके बारे में ख़बर हो गई है। चूंकि अक्सर दोनों ही बातें सच होती थीं इसलिए नत्थू इस काम में कहीं ज्य़ादा सफल था।

    शुरू में यह काम बहुत डराता था, ख़ासतौर से नत्थू को। रज्जन भी शुरू में डरा था। वह जानता था कि जिस दुनिया में वह रह रहा था वहाँ का बेहतरीन मनोरंजन कानाफूसी, ख़तरनाक हद तक भेद खोलनेवाला यंत्र था। बहुत जल्दी ही हर किसी को मालूम हो जाता था कि नौबन में कोई अकेला व्यक्ति चुपचाप कहाँ, क्या कर आया। पहली बार मीरपुर की शादी में आए सोने के ज़ेवरात की ख़बर रज्जन ने जब मदनलाल को पहुँचाई तो वापस लौटते समय डरा। लेकिन जल्दी ही उसे मालूम हो गया कि चूँकि वह डकैत मदनलाल से संबंधित माना जा रहा है इसलिए लोग उससे भी लगभग वैसा ही खौफ़ खाने लगे हैं जैसा डर वे ख़ुद मदनलाल से महसूस करते थे।

    नत्थू ने पुलिस की मुख़बिरी कुछ हद तक रज्जन से चिढ़ के कारण की थी। एक दिन वह एक जंगली लटार से वे काली मोटी फलियाँ तोड़कर लौट रहा था जिनके ऊपर चिपके रोएँ बेहद खुजली पैदा करते थे। वह खुजली पैदा करनेवाले उन तंतुओं को महज़ एक शरारत के लिए ला रहा था। तभी उसने रज्जन को एक बिल्कुल नए रूप में देखा था। वह ख़ासी शराब पिए हुए था और गुड़ में चने की दाल मिलाकर बनाई मिठाई का भारी-सा टुकड़ा अँगोछे में बाँधे था जिसका एक सिरा सायास विज्ञापन की तरह बाहर झाँक रहा था। रज्जन की उस दिन पहली अच्छी आमदनी हुई थी। हालाँकि यह आमदनी आसान नहीं थी फिर भी वह बहुत ख़ुश था।

    उसके सिर्फ़ तीन दिन पहले यह सिलसिला शुरू हुआ था। रज्जन एक दोस्त की बारात से लौट रहा था। उसने कुर्ते के ऊपर पहननेवाली सदरी राध में माँग ली थी और कुर्ता-धोती को भरसक धो लिया था।

    उसके जूते में घोड़े की जैसी नाल जड़ी हुई थी, जिसकी वजह से चलते वक़्त बड़ी शानदार आवाज़ होती थी। सिर पर टोपी लगाने के बाद उसने एक लाठी भी ले ली थी। इस तरह चलते हुए वह अपने को ख़ासा महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगा था। नौबन लौटते वक़्त रात हो गई थी। सड़क के दोनों तरफ़ खड़े काले दरख्त़ों के बीच मे छनकर चाँदनी के छोटे-बड़े धब्बे सड़क पर दूर तक छितराए हुए थे। उस सूनी सड़क पर चाँदनी के वे धब्बे कुचलते हुए आगे बढ़ने पर जूतों से जो आवाज़ होती थी उसकी ताल पर वह गाना भी गाने लगा था।

    उसकी आत्मविभोर मनःस्थिति बहुत ही बेदर्दी से टूटी। बहुत बत्तमीज़ी से उसे ललकारते हुए अपने चेहरे लपेटे जिन एक दर्ज़न लोगों ने उसे अचानक घेर लिया था उन्होंने सिर्फ़ उसे गालियाँ ही दी बल्कि उनमे से एक ने उसकी कमर के पास लाठी भी दे मारी। उस हमले में चोट से ज्य़ादा अपमान के कारण वह रो पड़ा।

    उसे घेरनेवाले लोग डकैत थे। अपनी हैसियत बताने के बाद उन्होंने उसे और पीटा और जब अपनी कारगुज़ारी से संतुष्ट हो गए तो उन्होंने उससे कहा कि उसके पास जो कुछ भी हो, चुपचाप हवाले कर दे।

    हवाले करने लायक रज्जन के पास सिर्फ़ डेढ़ रुपए थे। कुछ मिठाई भी थी।

    इतनी लूट से डकैत बहुत ज्य़ादा चिढ़ गए और उन्होंने उसे फिर पीटा। बल्कि उनमें से एक चिल्लायो, “मारकर फेंक दो साले को।”

    रज्जन रोता हुआ बोला, “मुझे मारकर क्या मिलेगा दादा...”

    “अबे तो फिर किसको मारकर मिलेगा? ऐं?”

    इसी संवाद से रज्जन के लिए एक नया रास्ता खुल गया। उसने मुन्ना साहू का पता दे दिया और यह भी बता दिया कि पैसे उधार लेने के लिए लोग जो ज़ेवर गिरवी रखते थे उन्हें वह भूसे वाली कोठरी में रखता था।

    “साले, अगर वहाँ कुछ मिला तो काटकर फेंक देंगे।” उन्होंने जाते-जाते उसे धमकी दी और थोड़ा-सा और पीटा।

    निश्चय ही डाकुओं को मुन्ना साहू के यहाँ ख़ासा माल मिला होगा क्योंकि थोड़े ही अरसे बाद उन्हीं में से दो ने जाने कैसे उसे फिर खोज लिया था। रज्जन डरकर दुबारा पिटने के लिए साहस जुटा रहा था कि उन्होंने अपना प्रस्ताव रख दिया।

    सही सूचना देने और उस सूचना से लाभ होने पर बीस रुपए मिलते थे और देसी शराब के साथ उम्दा ख़ाना।

    और यह सारी अय्याशी, नए रोज़गार की सारी बारीकियाँ नौबन के हर आदमी को मालूम हो गई थीं। इन्ही से खीझकर एक दिन नत्थू ने यह सब कुछ पुलिस को बता देने का फ़ैसला कर डाला था।

    बहाना बनाकर लंबी यात्रा करने के बाद जब नत्थू थाने पहुँचा तो उसे लगा वह वहाँ नाहक़ गया था। पुलिस के पास जाने की बात सोचना उसके लिए आसान था पर उससे सामना करते वक़्त वह सचमुच घबरा गया। उसे लगा, रज्जन वह ख़ुद था और अपने आपको यहाँ सौंपने आया था। थाने का छोटा दारोग़ा उसे सामने ही खड़ा मिल गया था। वह खाना खाकर उठा था और दाँत खोदने के बाद पेड़ के नीचे चारपाई पर थोड़ी देर सो लेने की तैयारी में था। उसके सामने पड़ते ही नत्थू की शक्ल किसी अपराधी जैसी हो गई और उसका गला बिल्कुल ख़ुश्क हो गया।

    “कौन है बे? यहाँ क्या कर रहा है?” दारोग़ा ने दाँत से निकली साग की पत्ती ज़ोर से थूकी।

    “हुज़ूर, आपकी ख़िदमत में आया था।” नत्थू ने किसी तरह कहा।

    दारोग़ा ने उसे तीखी निगाहों से घूरा। फिर चिल्लाकर मिट्टी पर पानी छिड़कते सिपाही से बोला, “अबे इसे देख तो उधर ले जाकर। ख़ासी हरामी चीज़ लग रहा है।”

    सिपाही ने भी उसे उसी तरह घूरा था। थोड़ी देर बारीकी से उसका मुआयना करने के बाद बाँह के पिछले हिस्से पर पंजा गड़ाकर वह उसे अंदर की तरफ़ ले गया था। अंदर पहुँचते ही नत्थू के कुछ कहने से पहले सिपाही ने उसे अपनी तरफ़ पुतले की तरह घुमाया और छाती के बीचों-बीच इस तरह बिना कोई उत्तेजना दिखाए घूँसा मारा गोया वह किसी बालू के बस्ते पर घूँसेबाज़ी का अभ्यास कर रहा हो। घूँसा मारने के साथ ही उसने उल्टे हाथ से उसकी कनपटी पर एक थप्पड़ भी मारा। नत्थू थोड़ा झुक गया था पर थप्पड़ पड़ते ही उलटकर दीवार के पास जा गिरा था।

    यह रज्जन यो नत्थू ही नहीं नौबन के हर छोटे आदमी को मालूम था कि शहज़ोर से संवाद शुरू होने की भाषा आम तौर पर यही होती थी। इसलिए पहली मार की घबराहट पर उसने जल्दी ही काबू पा लिया, “हुज़ूर, दारोग़ा साहब, मैं तो बड़ी जरूरी ख़बर देने आया था।”

    इस पर सिपाही कुछ हिचका, लेकिन एक ज़ोरदार ठोकर और मार लेने के बाद ही उसने पूछा, “साला, ख़बर लाया है। क्या ख़बर लाया है? ऐं?”

    “हुज़ूर, वो डकैत...”

    “डकैत? क्या डकैत?”

    “हुज़ूर, डकैत हरीराम कल डाका डालनेवाला है।”

    “इसकी सुनो।” सिपाही जैसे दीवारों से ही बोला, “तेरे पास साले है ही क्या कि हरीराम तुझे लूटेगा। मक्कारी करता है। साला, किसी बेगुनाह को फँसाना चाहता है, तेरी तो...”

    यह कहकर सिपाही ने उसे थोड़ा और पीटा।

    “मगर मेरी बात तो सुन लीजिए, हुज़ूर। बाद में फाँसी पर चढ़ा दीजिएगा। हरीराम कुंदन को लूटने आएगा।” नत्थू ने किसी तरह कहा। यह सूचना भी उसे ख़ुद रज्जन की हरक़तों से मिल गई थी।

    सिपाही ने उसे इस बार पीटा नहीं, सिर्फ़ कुछ फ़ोहश-सी गालियाँ दी और धक्का देकर दारोग़ा के पास ले आया।

    “अब क्या तकलीफ़ हो गई जी?” दारोग़ा खीझ गया।

    “ये हरामी कहता है कि हरीराम कल रात कुंदन के घर पर डकैती डालेगा।”

    “मारो साले को और बंद कर दो।” दारोग़ा ने हुक़्म दिया।

    नत्थू सचमुच ही थोड़ा और पिटा और हवालात में बंद कर दिया गया। लेकिन दूसरी रात डकैती पड़ गई। डकैती बहुत बुरी तरह पड़ी। उस रात कुंदन का साला भी आया हुआ था। वह खामपुर के थाने में मुंशी था। उसने डकैतों से थोड़ी-सी पुलिस की शेख़ी मारने की कोशिश कर दी। बल्कि हरीराम के एक साथी को पकड़कर पटक भी दिया। इसके बाद हरीराम फ़िल्मोंवाला डकैत बन गया। उसने बुरी तरह लूटा भी और चलते-चलते क़तार से खड़ा करके घर के चार मर्दों को गोली भी मार दी। मरनेवालों में वह मुंशी भी था।

    थाने पर यह ख़बर पहुँचते ही नत्थू छोड़ दिया गया। अब वह पुलिस का विश्वसनीय सूत्र बन चुका था।

    मारे जानेवालों में से चूँकि एक पुलिस का मुंशी ख़ुद था इसलिए जल्दी ही पुलिस ने दुबारा नत्थू को खोज लिया।

    यहाँ से इस खेल ने एक ऐसा मोड़ ले लिया जो कहीं रज्जन और नत्थू दोनों की ज़िंदगी से जुड़ता था। हालाँकि इस काम में आमदनी बहुत अच्छी थी लेकिन कुछ काम नो चल ही जाता था। सबसे बड़ी बात थी कि एक ख़ास क़िस्म की व्यस्तता का एहसास।

    मुख़बिरी के इस धंधे की शुरुआत जहाँ नत्थू और रज्जन की आपसी दुश्मनी से हुई थी वहाँ इसमें विकास की प्रक्रिया दोनों को धीरे-धीरे एक-दूसरे के इस तरह क़रीब लाने लगी कि वे काफ़ी हद तक एक-दूसरे के पूरक या सहयोगी हो गए। नत्थू की पुलिस तक पहुँचाई जानेवाली सूचनाएँ अक्सर रज्जन से ही मिलने लगीं क्योंकि पुलिस कार्यवाही के बारे में डकैतों तक पहुँचानेवाली खबरें रज्जन नत्थू से लेने लगा।

    यह भी मज़े की बात थी कि इस बेहद मशीनी अंदाज़ में होने वाली मुख़बिरी से मुख़बिर तो ख़ुश थे ही पुलिस और डकैत भी प्रसन्न थे। दरअसल इन मुख़बिरों के कारण दोनों की आसानियाँ बढ़ गई थीं। पुलिस या डाकुओं में से दोनों को पता लग जाता था कि कौन, कहाँ, कब और क्या करेगा। डकैत आते थे और इतमीनान से लूटकर चले जाते थे। फिर पुलिस आती थी। वह उन अड्डों पर छापा मारती थी जहाँ से डकैत पहले ही भाग चुके होते थे। पुलिस शराब की ख़ाली बोतलें और अधजली सिगरेटें सील करके लौट जाती थी। अभियान दोनों में से किसी के असफल नहीं होते थे।

    मगर इस बीच एक भारी गड़बड़ी हो गई। एक मंत्री का भाई अपने परिवार के साथ मोटर पर रात के वक़्त शिकार से लौट रहा था। मोटर रोककर डाकूओं ने उन्हें मार दिया और जो मिला वह लूट ले गए थे। यह मामला बहुत गंभीर था और पुलिस और डाकुओं को ही नहीं, नत्थू और रज्जन को भी पता लग गया था कि यह मामला आसान नहीं है।

    नत्थू पोटली में बँधी अरहर की फलियाँ बीवी को सौंप देना चाहता था और अगली किसी कार्यवाही से पहले ही गाँव से बाहर कहीं ग़ायब हो जाना चाहता था। उसने मकान के पीछे वाले दरवाज़े पर हाथ रखना ही चाहा था कि उसे लगा अंदर कोई है।

    क्या अंदर पुलिसवाले हैं?

    थोड़ी देर अपने आपको संयत करके उसने दरवाज़े की संध से अंदर झाँकने का फ़ैसला किया। यह काम आसान था। उसे मालूम था कि पिछला दरवाज़ा बेहद आवाज़ करेगा, जरा-सा छूते ही। आवाजें उसे साफ़ सुनाई दे रही थी वे कुछ अजीब तरह की थीं।

    आख़िर उसने बहुत सावधानी से दरवाज़े की दरार से अंदर की ओर झाँका। र्वादयाँ तो वही थी। निश्चय ही वही जो पुलिसवाले पहनते हैं लेकिन मदनलाल को पहचानने में उसे भूल नहीं हुई। अजब बात थी कि वर्दियाँ दोनों की एक ही होती थीं फिर मुख़बिरी इतनी अलग क्यों थी?

    उसे ज्य़ादा सोचने का वक़्त नहीं मिला क्योंकि थोडा-सा किनारे पड़ी चारपाई पर जो कुछ हो रहा था वह देखकर नत्थू यकायक सूखकर बदरंग हो गया।

    फ़र्श पर मदनलाल अपने कुछ साथियों के साथ बैठा हुआ मुँह भर-भरकर कुछ खा रहा था। और चारपाई पर बिना किसी कपड़े के उसकी बीवी इस तरह चित लेटी थी जैसे बरसात के मौसम में मनाए जाने वाले त्योहार में चौराहे पर डालकर छड़ियों से पीटी, फटी गुड़िया।

    वह दरवाज़े मे हुट गया। अंदर की आवाजें बहुत ज़ोर से उसके दिमाग़ में बज रही थीं। झुककर उसने चुपचाप वे फलियाँ वहीं धूप में रख दीं और लौट चला।

    इस बार खेल नहीं सच। वे लोग यहाँ हैं और अभी रहेंगे। मदनलाल का पूरा गिरोह। भले ही पुलिस आए और उसकी बीवी को उस बेहूदा हालत में देखकर मज़े भी ले पर पुलिस को आना होगा।

    कतराने के बजाए वह सीधे टीने की तरफ़ चल पड़ा।

    रज्जन के चीख़ने की आवाज़ फिर आने लगी थी लेकिन उसी के साथ किशन बाबू ने बच्चों को महात्मा गाँधी वाला पाठ ज़ोर-ज़ोर मे पढ़ाना शुरू कर दिया था। आज बहुत दिन बाद वे इस तरह पढ़ा रहे थे, शायद रज्जन की चीखों की तरफ़ से ध्यान हटाने के लिए।

    बुख़ार की तरह ज़मीन और आसमान को कँपाती गर्मी में जब नत्थू टीले के दूसरी ओर उतरा तो पलकों पर बैठ गई लू के धुँधलके में उसने रज्जन को बाद में देखा, पुलिस ने उसे पहले देखा।

    रज्जन बिना किसी कपड़े के धूप में ज़मीन पर लेटा था या लोट रहा था और एक सिपाही लाठी का सिरा उसकी जाँघों के बीच रह-रहकर कोंच रहा था जैसे पानी की तली नाप रहा हो।

    नत्थू पर नज़र पड़ते ही वहाँ वह सब थम गया। नत्थू कुछ और तेज़ क़दम बढ़ाकर उन लोगों तक गया और निगाह मिलाए बग़ैर धीरे से एक सिपाही के कान में बोला, “मदनलाल पूरे गिरोह के साथ मेरे घर में छुपा है। जल्दी करिए हुज़ूर...”

    “ये हरामी क्यों आया?” दारोग़ा ने दूर से ही पूछा।

    सिपाही ने फ़ुर्ती से पास जाकर दारोग़ा को वह बात बताई। दारोग़ा थोड़ी देर इस तरह गुमसुम हो गया जैसे वह किसी बहुत जटिल अभियान की तैयारी करने लगा हो। फिर सहसा उठ पड़ा। उसने चिल्लाकर जीप वाले को पुकारा और सिपाहियों से बोला, “इस मुल्ज़िम को जीप में डालो। और इसे भी बैठा लो। जल्दी करो।” उसने नत्थू की तरफ़ इशारा किया।

    नत्थू को और किसी वक़्त यह ठीक नहीं लगता पर अभी जो कुछ उसने देखा था उसके बाद ख़ुद पुलिस की जीप में बैठकर निहत्थे ही सही, गिरोह तक जाने में संकोच नहीं रह गया था। वह ख़ुद ही जीप के पिछले भाग में बैठ गया।

    रज्जन को सीटों के बीच में डालकर सिपाही बहुत फ़ुर्ती से जीप में बैठे। दारोग़ा के बैठते ही जीप रवाना हो गई।

    “चक्कर ले लो। उधर बबूल के जंगल की तरफ़ से निकलो।”

    जीप गाँव के पीछे की ओर गई ज़रूर लेकिन नौबन की तरफ़ मुड़ी नहीं बल्कि थोड़ी दूर ही निकल गई। नत्थू ने इस बात पर ध्यान दिया पर उसने सोचा कि शायद पुलिस अपने ढंग में डाकुओं को घेरने की कोशिश कर रही है। तभी दारोग़ा बोला, “रोको।”

    जीप रुक गई। उसने रज्जन की पसली पर जूते की नोंक चुभाकर कहा, “इसे कहो उतरे। उतरे तो नीचे फेंक दो।”

    इस तरह का आदमी शायद ज्य़ादा ही मज़बूत हो जाता होगा। क्योंकि सिपाहियों की थोड़ी-सी कोशिश से रज्जन सिर्फ़ नीचे गया बल्कि लड़खड़ाता हुआ खडा भी हो गया।

    “तू भी नीचे उतर।” दारोग़ा ने नत्थू को डाँटा। डाँट से थोड़ा शर्मिंदा होकर नत्थू भी नीचे उतर आया।

    उसके नीचे उतरते ही दारोग़ा चीखा, “भाग, फ़ौरन भाग।”

    नत्थू समझ नहीं पाया।

    “अबे तुम लोग भागते हो या नहीं! लगाऊँ मार?” दारोग़ा फिर चीखा।

    नत्थू पहले तो पीछे हटा फिर बहुत धीमी चाल में भागने लगा। अब चूँकि उसकी पीठ जीप की तरफ़ थी इसलिए वह कुछ देख नहीं सका। सिर्फ़ उसे रज्जन की ऐसी कातर आवाज़ सुन पड़ी जैसे वह भीख माँग रहा हो और उसे देखने के लिए सिर घुमाने से पहले ही उसने कान फाड़ देने वाली गोली की आवाज़ सुनी। वह पीछे मुड़कर देखना चाहता था पर तभी उसे जैसे किसी ने पीछे से भयानक धक्का दिया और सामने सीने के पास माँस का लोथड़ा-सा लटक आया। वह डगमगाया और नीचे गिर गया। परिंदे उड़करे ज़बरदस्त शोर करने लगे। गिरने के बाद जाने क्या हुआ कि उसका दर्द बिल्कुल ख़ामोश हो गया।

    जीप पीछे हटी और वापस चली गई। दोनों लाशें वही पड़ी रहीं। जाने कब पुलिसवाले उनके पास एक ज़ंग लगा तमंचा फेंक गए थे। परिंदे थोड़ी देर में फिर शांत हो गए, पर उस उदास पक्षी की आवाज़ उसी तरह सुनाई देती रही—

    उठो पुत्तू, पूर, पूर, पूर—

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 335)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : मुद्राराक्षस
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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