मुहब्बत

mohabbat

जगदंबा प्रसाद दीक्षित

और अधिकजगदंबा प्रसाद दीक्षित

    ज़रूरी नहीं है फूला बाई का ज़िक्र। फिर भी एक बस्ती है, जिसे सबने देखा है। पहली बार मैं भौंचक रह गया था। पुराने मकानों में अजीब-अजीब लोग रहते थे—दूर-दूर से आए हुए लोग। लगता था पिछड़ गए हैं। आगे बढ़ने की लड़ाई में लगे हुए हैं। कुछ लड़कियाँ थीं, जो वेश्याएँ थीं। कुछ लड़के—दलाल थे। दिन भर लोग ख़ामोश रहते थे—सोये हुए। शाम से हलचल शुरू होती थी। पूरी सड़क गाड़ियों, दलालों और ग्राहकों से भरी होती थी। बड़े-बड़े होटलों की बत्तियाँ चमकने लगती थीं। इनमें पाँच या तीन तारे होते थे या किसी में कोई तारा नहीं होता था। तारे दिखाई नहीं देते थे। हम उन्हें सिर्फ़ महसूस कर सकते थे।

    दूर-दूर देशों के लोग यहाँ आते थे। देखकर पता चलता था कि गोरे हैं। अरब हैं। लोग ख़ास तौर पर अरबों के आने का रास्ता देखते थे। दुकानों, होटलों, लड़कियों और दलालों को अरबों का इंतिज़ार होता था। भिखारियों, बाज़ीगरों, हिजड़ों को भी अरबों का इंतिज़ार होता था। अपने-अपने कमरों की ऊँचाइयों से अरब लोग नीचे की दुनिया को देखा करते थे। यहाँ हिजड़े नाचते थे। बाज़ीगर खेल दिखाते थे। भिखारी औरतें-बच्चे भीख माँगते थे। नटों के बच्चे सर्कस करते थे। हर खेल के बाद एक ही सवाल होता था-ग़रीब...भूखा...पेट के लिए खाना...अल्ला...रफ़ीक़...रहम कर। सूखे-दुबले—फटेहाल हिंदुस्तानी अपना ख़ाली पेट पीटते थे। औरतें काले-बीमार बच्चे दिखाती थीं। अरब ...रफ़ीक़...रहमदिल अल्लाह के नाम पर ऊपर से नोट फेंकते थे। दुबले काले इंसान उन पर टूट पड़ते थे। सबमें समझौता हो गया था। नोटों को लेकर लड़ाइयाँ होती थीं...फिर नहीं होती थीं। लेकिन फिर और माँगते थे...अल्लाह के नाम पर रफ़ीक़...रहमदिल! अब अरब सिर्फ़ हँसते थे। कभी-कभी काग़ज़ के टुकड़े फेंकते थे। भीड़ एक बार फिर दौड़ पड़ती थी।

    हम सब लोग ख़ुश थे। यहाँ रहना ज़रूरी था। सारी दौलत यहीं थी। सब कुछ यहीं था। सिर्फ़ रहने की जगह नहीं थी। इसका भी इंतिज़ाम हो गया था। एक कोना था... एक खाट काफ़ी थी। यहीं मैंने फूला बाई को देखा था। पचपन या साठ साल की थकी हुई काली औरत। बालों में बदरंग ख़िज़ाब लगया था। बालों की जड़ें सफ़ेद हो रही थीं। कई जगह सफ़ेद बाल छूट भी गए थे। आते-जाते एक बार उसने मुझे ग़ौर से देखा था। दूसरी बार मुस्कराई थी। तीसरी बार उसने आँख मार दी थी। मुझे क्या हुआ था, मालूम नहीं, शायद मैं घबरा गया था। इससे पहले किसी औरत ने ऐसा नहीं किया था। उस दिन से मैं होशियार हो गया था। आते-जाते हमेशा दूसरी तरफ़ देखता था। लेकिन फिर भी चीज़ें ठीक नहीं हो रही थी। किसी-न-किसी तरह फूला सामने जाती थी-और ज़ियादा बनी-ठनी, और ज़ियादा थकी हुई। ज़रा-सा खाँसती। फिर आँखों के कोनों से ताकती। वही मुस्कुराहट। मैं परेशान हो गया था।

    मगर लोग अब भी उसी तरह चल रहे थे। सूज़र समंदर में डूब जाता था। पुराने मकानों में लड़कियाँ बन-ठन कर तैयार हो जाती थीं। टैक्सियाँ या कारें होटलों में पहुँचा देती थीं। सामने की बड़ी इमारत की बत्तियाँ चमकती रहती थीं। अमीर हिंदुस्तानियों और अरबों की गाड़ियाँ वहाँ ज़रूर आती थीं। यह इमारत होटल नहीं थी। इसके फ़्लैटों में शरीफ़ लोग रहते थे। लेकिन लड़कियाँ वहाँ भी होती थी। दलाल वहाँ भी घूमते थे। मैं अक्सर उकता जाता था। समुंदर की लहरें भी दिल नहीं बहलाती थी। गाँधी की मूर्ति आँखें बंद किए मुस्कुराती रहती थी। प्रेमी लोग लिपटते रहते थे। भिखमंगे...हिजड़े...दलाल... ठेलेवाले... सब अपना काम करते रहते थे। मगर मुझे...मुझे क्या तकलीफ़ थी, मालूम नहीं, इस समय मुझे फूला बाई का ख़याल जाता था।

    बड़ी इमारत के एक फ़्लैट से कोई अक्सर यहीं नाम पुकारता था। फूला फ़ौरन अंदर चली जाती थी। अंदर शायद काम करती थी। फिर बाहर जाती थी। एक बीड़ी लेकर बैठ जाती थी। लेकिन फ़ौरन ही फिर पुकार होती थी। दम लेने की फ़ुरसत भी नहीं मिलती थी। दुकानों से समान ले-ले कर अंदर पहुँचाती थी। होटल से चाय, दुकान से पान-सिगरेट वग़ैरह। उकता कर कभी-कभी मैं सोचता था कि मेरी सही जगह क्या है! इस भीड़ में मुझे किस तरफ़ जाना है? क्या मैं भी आगे बढूँ और दलालों की दुनिया में शामिल हो जाऊँ? गाँधी की मूर्ति के पास अरबों और अमीरों के सौदे पटाना शुरू कर दूँ?

    रात लेकिन हमेशा बहुत हो जाती थी। कभी आख़िरी बस मिलती थी, कभी नहीं। जूते घसीटता हुआ मैं पैदल उस ठिकाने पर पहुँच जाता था, जहाँ मेरी खटिया थी। पार्टनर कभी ड्यूटी पर होता था, कभी सोता रहता था। इधर जब से वह घर गया था, रात को लौटने पर खोली मुझे काटने दौड़ती थी। जितना ज़ियादा हो सकता था, मैं बाहर रहता था। इस समय, जब मैं स्टेशन से बाहर आया, आख़िरी बस जा चुकी थी। घड़ी में डेढ़ बज रहे थे। ख़ाली रास्ते पर मैंने चलना शुरू कर दिया था। दारू के अड्डे खुल थे। मीट-अंडे के खोमचों के पास भीड़ थीं। रंडियों की तलाश अब भी जारी थी। ठिकाने पर पहुँचते दो-ढाई बज गए। सारी जगह सुनसान लगती थी। सिर्फ़ फ्लैटों की बत्तियाँ जल रही थीं। शायद कोई नशे में चीख़ रहा था। अँधेरे गलियारों से जब मैं गुज़रा तो लगा कि कोई खड़ा है। फूला बाई थी... मैं पहचान गया। पल भर रुक कर मैं आगे निकल गया।

    लेकिन चाबी मेरे पास नहीं थीं शायद कहीं गिर गई थी या कहीं रह गई थीं। मैं समझ नहीं पाया कि क्या करूँ! देर तक वहीं खड़ा रहा। फिर बाहर गया। फिर अंदर चला गया। इस तरह दो-तीन चक्कर हो गए। मुझे देखकर अब कुछ कुत्तों ने भोकना शुरू कर दिया। इस समय फूला बाई अँधेरे से उजाले में गई। मैंने देखा कि चेहरे पर बहुत-सा पाउडर लगाया गया था। बदरंग बालों में मुरझाया हुआ एक गजरा अटका हुआ था। एक अजीब-सी साड़ी पहनी थी, जो जाने कब नर्इ रही होगी। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि फूला भी रोज़ रात शायद ग्राहक तलाश करती थी। पहली बार उसने मुझसे कहा, 'क्या हो गया चक्कर क्यूँ लगाते हो?'

    मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ! फिर भी मैंने कहा, 'मेरी किल्ली गुम हो गई। खोली पे लॉक है।'

    इस समय रात पूरी तरह सुनसान थी। बड़ी इमारत के 'मसाज पार्लर' से निकल कर कोई बड़ा आदमी कार का दरवाज़ा खोल रहा था? हलके उजाले में फूला चुपचाप खड़ी रही। मैं चलने लगा, तो बोली, 'ज़रा रुको तो... कैसा ताला है तुम्हारा?'

    हिचकिचा कर मैंने उसे ताले के बारे में बताया। बोली, 'ऐसा करो...हमारी किल्ली लगा के देखो ना!'

    उसकी चाल में लड़खड़ाहट थी। जब इमारत से लौटी, तो हाथ में चाबियों का गुच्छा था। मैंने कई चाबियाँ लगाईं। एक भी नहीं लगी। फिर उसने कोशिश की। चाबियों पर चाबियाँ बदलती रही। पता नहीं कैसे, ताला खुल गया। मैं पल भर वैसे ही खड़ा रह गया। अंदर जा कर बत्ती जलाई। अपने आप ही फूला अंदर गई। इस समय मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उसकी तरफ़ देखूँ, लेकिन मैं उसे देखने लगा। वह चेहरा उस उजाले में और भी काला-थका-बूढ़ा लग रहा था। बालों का बदरंग ख़िज़ाब, झुर्रियों पर पाउडर की परते और पुती हुई लाली। मुझे क्या लगा, मालूम नहीं। शायद बहुत बुरा लगा। शायद थोड़ा दुःख हुआ।

    फूला बोली, 'मैं तुमकू... आते-जाते रोज़ देखती।' अब उसके होंठ धीरे-धीरे काँपने लगे। मुँह के कोनों में लार इकट्ठा हो गई। रुक कर बोली, 'तुम कि नई...मेरी कू भोत अच्छे लगते।'

    एकाएक ही मैं कुछ बोल नहीं सका। अजीब-सी चुप्पी पल भर छाई रही। अब फूला संभल गई। बोली, 'तुमकू लगता कि मेरी उमर भोत जास्ती! नईं क्या? पर मैं सच्ची बोलती, मेरी उमर जास्ती नईं है।'

    मुझे मालूम नहीं था, मैं क्या कहूँ, फिर भी मैंने कहा, 'नईं, ये बात नईं। तुम मेरे को ग़लत समझा। मैं ऐसा आदमी नईं हूँ।'

    उसी तरह फूला ने कहा, 'नईं, सब आदमी लोग कमती उमर की छोकरी से मोहब्बत करते। पर मैं सच्ची बोलती, मेरा उमर जास्ती नईं। तब्बेत थोड़ा बिघड़ गया, बस!'

    मैंने जैसे ज़िद करते हुए कहा, 'नईं, तुम मेरे को समझा नईं, मैं वो टाइप का आदमी नईं। मैं तुमकू बहुत अच्छा समझता, पर... बोलते-बोलते में रुक गया। मालूम नहीं, क्या कह देता। फूला जैसे और संभल गई। बोली, देखो ना, मैं तुमकू भोत पसंद करती। आते-जाते हमेशा देखती। तुम अकेले... मैं अकेली। मैं तो अकेली। मैं तो तुमकू... बोले तो... मोहोबत करती। और भी जास्ती मोहोबत करूँगी। क्यों' तो इस वास्ते कि मेरे कू भी मोहोबत मंगता। थोड़ा हेलप मंगता।

    सुनसान रात के तीन बजे... एक अकेले कमरे में...फूला मुझसे मोहब्बत और हेल्प की भीख माँग रही थी। उसके लिपे-पुते चेहरे पर अचानक इतनी बेबसी दिखाई दी कि मुझे बहुत तकलीफ़ हुई। लेकिन मैंने कहा, 'नई बाई, तुम मेरी बात समझो। मेरे को तुमसे कोई नफ़रत नईं है। पर मैं-मैं वो टाइप का आदमी ही नईं हूँ। नई समझी?

    फूला ने कुछ नहीं कहा। अब उसका काला चेहरा और ज़ियादा काला हो गया था। अब उसे कोई आशा नहीं थी। बड़ी देर तक उसी तरह चुपचाप खड़ी रही। धीरे-धीरे बोली, 'उमर जास्ती होने से क्या होता? मोहोबत नईं मंगता? हेल्प नईं मंगता?'

    मैं चुप रहा। आख़िर फूला ने कहा, 'चलो, जाने दो। कोई बात नईं। पर एक बात बोलूँ क्यों?'

    मैं उसी तरह उसकी तरफ़ देखता रहा। वह बोली, 'मेरे कू थोड़ा पैसा मंगता चार-पाँच रुपिया... उधारी। मैं जल्दी वापस कर देऊँगी। भरोसा करना, सच्ची बोलती।'

    इस तरह फूला बाई से मेरी पहली बातचीत ख़त्म हुई। मैं अब भी उसी रास्ते आता और जाता था। बीड़ी फूँकती हुई फुला मुझे देखती थी। मुस्कुराती थी, लेकिन मुस्कराहट में अब पहले वाली बात नहीं थी। मेरे पास पैसों की बहुत कमी थी। फिर भी थोड़ा कुछ मैंने उसे दे दिया था। लेकिन बातचीत कभी नहीं हो पाती थी।

    लेकिन एक रात... जब बिना कुछ खाये-पिये मैं सोने की कोशिश कर रहा था, दरवाज़े पर दस्तक हुई। सामने फूला खड़ी थी। उसके मैले आंचल में कुछ ढका हुआ था। कुछ चिड़चिड़ा कर मैंने कहा, क्या है?'

    आँचल के नीचे से एक रिकाबी उसने मेरी तरफ़ बढ़ा दी। खोली में एक ख़ुश्बू-सी फैल गई। प्लेट में पुलाव या इस तरह की कोई चीज़ थी। मैं उसकी तरफ़ देखता रह गया। उसने कहा, 'सुबू को प्लेट ले जाऊँगी। ऐसा खाली पेट नई सोने का?'

    मुझे ताज्जुब हुआ था। उसको किसने बताया कि शाम मुझे खाना नहीं मिला था। इसके बाद कई बार ऐसा होने लगा। गुज़रते समय कई बार वह मेरे चेहरे को देखती। उसे बहुत कुछ मालूम हो जाता था। कई बार उसने मुझे रोका। अंदर जाकर चुपचाप कोई रिकाबी या प्लेट ले आई। लेकिन बातचीत अब भी नहीं होती थी।

    लेकिन अब वह मुझे बाहर भी मिलने लगी थी। समुंदर के किनारे गाँधी की मुस्कराती मूर्ति के पास कभी-कभी बीड़ी फूँकती हुई बैठी रहती थी। धीरे-धीरे मैंने उसके पास बैठना शुरू कर दिया था। अब वह ज़ियादा थकी, ज़ियादा हारी हुई मालूम होती थी। काम अब उससे होता नहीं था। 'मसाज पार्लर' में काम बहुत करवाते थे। रात को काम होता था। दिन में भी काम होता था। 'पार्लर' में कई लड़कियाँ थीं। रात को ये अरबों और हिंदुस्तानी रईसों की 'मालिश' करती थीं। बंद कमरों के अंदर से लगातार फूला की पुकार होती रहती थी। कभी यह पहुँचाओ...कभी वह पहुँचाओ! शराब...बर्फ़...सोडा... सिगरेट...! बीच-बीच में लंबी चुप्पियाँ छा जाती थीं। खाना भी पकाना पड़ता था। बड़ी रात लड़कियाँ बहुत थक जाती थीं। फ़ौरन खाना माँगती थी। फूला को बहुत गालियाँ देती थीं। नशे में कभी-कभी मारना शुरू कर देती थीं। कहाँ का ग़ुस्सा कहाँ निकालती थीं। कोई-कोई कस्टमर खाना भी खाते थे। ये लोग ख़ूब पैसा लुटाते थे। इतना पैसा है उनके पास कि सोच भी नहीं सकते। मगर लड़कियों को बहुत कम मिलता था। 'पार्लर' के फ़्लैट का भाड़ा ही पंद्रह हज़ार रुपिया महीना था। बचा हुआ बहुत-सा रुपिया 'पार्लर' वाला ले जाता था। कुछ दलाल लोग ले जाते थे। लड़कियों के लिए थोड़ा-सा बच जाता था। बस अच्छी तरह पहन-ओढ़ लेती थीं। लड़कियाँ बड़े बेमन से काम करती थीं। कई बार बुरी तरह पीटी जाती थीं। कुछ को चरस...और पता नहीं क्या-क्या की लत लग गई थी।

    दिन भर भटक कर शाम को मैं अकसर मूर्ति के चबूतरे पर बैठ जाता था। इस समय मुझे फूला का इंतिज़ार होता था। अपने दिल का सारा ग़ुबार अब मैं उसके सामने निकालने लगा था। लेकिन अकसर वह नहीं पाती थी। कई बार मूर्ति के पास रौशनी की जाती थी और भाषण होते थे। लेकिन टैक्सीवाले अरब अमीरों को यहाँ ले आते थे। इनके साथ हिंदुस्तानी या नेपाली लड़कियाँ होती थीं। छोटी-छोटी लड़कियों को अच्छे-अच्छे कपड़े पहना कर अरब लोग इन्हें सैर कराने लाते थे। इन सूखी-मुरझार्इ लड़कियों पर फॉरेन की जींस और क़मीज़ें बड़ी अजीब लगती थीं। इन कपड़ों को पहली बार पहन कर ये लड़कियाँ बहुत ख़ुश दिखाई देती थीं। हिंदुस्तानी दलाल और टैक्सी ड्राइवर हाथ बांधे पीछे-पीछे चलते थे। बीच-बीच में छोटी लड़कियों को डाँट-डाँट कर बताते रहते थे कि कैसी हरकत करनी चाहिए और कैसी नहीं। रेत के किनारे के रेस्तराँ और होटल बहुत ऊँचे और महँगे थे। अरब लोग इन लड़कियों को वहाँ ज़रूर ले जाते थे। उस समय ऐसे खाने को पहली बार देखकर इन लड़कियों के आँखों में पता नहीं कैसी चमक जाती थी। फिर इस तरह खातीं कि बस देखते ही बनता था। अरब लोग इन लड़कियों को बहुत ख़ुश करते थे। कभी घोड़ों पर बिठाते, कभी ऊँट पर। तरह-तरह से इनकी रंगीन तसवीरें उतरवाते थे। इतनी ख़ुशियाँ एक साथ पाकर ये छोटी-छोटी लड़कियाँ उछल-उछल कर कभी यह माँगती थीं, कभी वह।

    यह सब देख-देखकर फूला को बहुत ग़ुस्सा आता था। एक दिन झल्ला कर बोली, 'सुनते क्या! एक दिन इनका भी वोई हाल होगा, जो मेरा हो रया है। मेरे कू भी ये सब में भोत मज़ा आता था।'

    अचानक फूला जैसे रुआँसी हो गई। हो सकता है, यह सही हो। शायद कभी फूला का भी एक ज़माना रहा हो। यह बात सच हो कि दूर-दूर से लोग फूला का पता लगा कर आते थे। दलाल लोग बड़े-बड़े ग्राहकों को हमेशा फूला के बारे में बताते थे। लेकिन फूला की इस हालत को देखकर, पता नहीं क्यों, उसकी इन बातों पर भरोसा नहीं होता था।

    इधर वह कुछ ज़ियादा ही चिड़चिड़ाने लगी थी। हर चीज़... हर बात पर झल्ला उठती थी। अब सिर्फ़ लड़कियों, दलालों, पार्लरवाले को ही नहीं कोसती, सारी-सारी दुनिया को गालियाँ देती थी।

    एक शाम, जब सूरज को डूबे काफ़ी समय बीत गया था, गाँधी की मुस्कुराती मूर्ति के पास हम दोनों बैठे थे। जोड़े प्यार कर रहे थे। लड़कियाँ ग्राहक तलाश कर रही थीं। हिजड़े नाच रहे थे और भिखारी भीख माँग रहे थे। फूला कुछ ज़ियादा ही चुप थी। मैं भी चुपचाप तमाम लोगों को देख रहा था, जो बहुत ख़ुश दिखाई दे रहे थे।

    अचानक मैंने महसूस किया कि फूला मेरे पास सरक आई है। लेकिन मैं अनजान बना रहा। वह कुछ और पास गई। उसके शरीर का इतना पास होना मुझे कुछ ज़ियादा तकलीफ़ देने लगा। फिर भी मैं बैठा रहा। अब उसने हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बोली, 'ऐसा क्या करते। चलो ना, अपुन चलेगा...किधर भी! अपुन मोहोबत करेगा।'

    मैं अब भी उसी तरह बैठा रहा। उसका मुँह अब मेरे बहुत क़रीब गया था। उसने कहा, 'सच्ची, मैं तुमकू भोत मोहोबत करती...भोत। ऐसा क्या करते। चलो ना भी!'

    अब मैं उठ कर खड़ा हो गया। मैंने कहा, 'एक बार बोला ना तुमको, मैं वो टाइप का आदमी नई हूँ। समझ में नईं आता क्या?'

    मेरी आवाज़ में शायद कुछ ग़ुस्सा था। पल भर वह उसी तरह बैठी रही, फिर खड़ी हो गई। इस समय मैंने महसूस किया कि वह बहुत ज़ियादा ग़ुस्से में है। उसका काला चेहरा उस धुंधले अँधेरे में काँपने लगा। बहुत ही नंगी गालियाँ दे कर वह बोली, 'जा रे साला...जा-जा! तू क्या मोहोबत करेगा! हिजड़ा! तेरा बाबा भी मोहोबत नईं कर सकता। साला...कलेजा मंगता...कलेजा...मोहोबत के वास्ते। साला, तेरा बाप भी कभी किया। तू..तू..तू तो!'

    इसके बाद नंगी गालियों की कोई हद नहीं रही। मैं चुपचाप उसे देखता रहा। मेरे मन में अब कोई ग़ुस्सा नहीं था। उन गालियों का मुझे बुरा भी नहीं लग रहा था। उसे देख कर मुझे कुछ तकलीफ़ हो रही थी। वह बोलती रही, मैं सुनता रहा। वह थक गई। लड़खड़ाती हुई चली गई। मैं उसी तरह धुंधले अँधेरे में खड़ा रह गया। सागर की लहरों के थपेड़े पास आते गए और लोगों का शोर कम होता गया। लेकिन अब भी मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ।

    लेकिन इसके बाद फूला ने मेरी तरफ़ देखना बिलकुल बंद कर दिया। कई बार मैं पास से गुज़र जाता था, फिर भी वह मेरी तरफ़ नहीं देखती थी। क्या वह मुझसे हमेशा नाराज़ रहती थी? मुझे ऐसा नहीं लगता था। लगता था कि कोई सवाल है। शायद ज़िंदगी का सवाल! इस सवाल से अब वह अकेले ही लड़ेगी। अब उसे किसी की ज़रूरत नहीं हैं। मैं भी उसके लिए बेकार हूँ। या शायद बहुत थक गई है। अब किसी को देखना, किसी से बोलना उसे अच्छा नहीं लगता।

    लेकिन मैं फूला से बोलना चाहता था। एक दिन मैं बहुत ज़ियादा दु:खी हो गया था। इधर दफ़्तरों और कंपनियों में लोगों को सिर्फ़ छह महीनों के लिए काम पर रखा जाता है। इससे काम करनेवाले हमेशा टेम्परेरी रहते हैं। उनके परमानेंट होने का कोई ख़तरा नहीं होता। हर छह महीने के बाद उन्हें काम से अलग कर दिया जाता है। इसके बाद नया अपाइंटमेंट दिया जाता है। इस बार कंपनी ने मुझे नया अपाइंटमेंट देने से इनकार कर दिया। अचानक ही मैं बेकार हो गया। इतना परेशान मैं पहले कभी नहीं हुआ था। लगा कि ख़ूब रोऊँ। उस दिन बहुत मन हो रहा था कि फूला से सब कुछ कह दूँ लेकिन मूर्ति के चबूतरे पर आना उसने बंद कर दिया था। लौटते समय रास्ते में मिली ज़रूर, लेकिन देख कर भी मुझे अनदेखा कर दिया। मैं वहाँ से बार-बार गुज़रा, मगर उसने मेरी तरफ़ देखा तक नहीं। उस समय मुझे उस पर ग़ुस्सा भी आया था।

    मेरा रूम पार्टनर हमेशा सोता रहता था। उसकी ड्यूटी हमेशा रात को रहती थी। मेरी उसकी बातचीत बहुत कम हो पाती थी। अब मैं अकेला ही सागर किनारे दूर-दूर तक घूमता रहता था। इस इलाक़े में—नर्इ-नर्इ और ऊँची-ऊँची बिल्डिंगे ख़ूब बन रही थीं। हम लोग इन्हें बस देख सकते थे। मैंने सुना था कि बिल्डर लोग एक-एक फ़्लैट के कई-कई लाख रुपए लेते हैं। बहुत-से बड़े-बड़े स्मगलर लोग बिल्डर बन जाते हैं, बहुत-से लोग लाखों रुपए दे कर ये फ़्लैट ख़रीदते हैं। फिर लाखों रुपए ख़र्च कर इन फ़्लैटों को सजाते हैं। ये सारी बातें सुनता था, लेकिन मुझे भरोसा नहीं होता था।

    मैंने यह भी सुना था कि लोग बहुत जल्द अमीर हो जाते हैं। इस बात पर भी मुझे भरोसा नहीं होता था।

    इन दिनों मेरे मन में फूला से बात करने की बड़ी इच्छा होती थी। दिन भर धक्के खा कर शाम जब मैं लौटता था, तो हर रोज़ मेरे पास एक नर्इ कहानी होती थी। ये कहानियाँ अकसर निराशा, बेइज़्ज़ती और दुःख की कहानियाँ होती थीं। काम मिलना बड़ा मुश्किल हो रहा था। हर जगह अपने-अपने लोगों को काम दिया जा रहा था। ये सब कहानियाँ मैं पहले की तरह ही फूला को सुनाना चाहता था। लेकिन अब फूला ने दिखाई देना भी बंद कर दिया था।

    एक दिन जब मैं लौटा, तो बहुत ख़ुश था। अगले दो-चार दिनों में मेरा काम पर लगना पक्का हो गया था। उम्मीद थी कि इस बार छह महीने वाली नौकरी नहीं होगी, पक्का हो जाने की पूरी आशा थी। मैं इतना ख़ुश था कि किसी भी हालत में फूला से बात करना चाहता था। काफ़ी रात तक मैं मूर्तिवाले चबूतरे पर बैठा रहा। मेरे सामने हँसते-खेलते लोग गुज़र गए। मेरे सामने सूरज पानी में डूब गया। लेकिन फूला नहीं आई। यह कोई नई बात नहीं थी। रात तक बैठ कर मैं वहाँ से उठा गया। इमारत के सामने से गुज़रते-गुज़रते कई बार मैंने उधर देखा। फूला कहीं दिखाई नहीं दी। यह भी कोई नई बात नहीं थी। लेकिन इस बार मुझे कुछ अजीब-सा लगा। मुझे फिर ख़याल आया कि पिछले कई दिनों से मैंने उसे नहीं देखा है। क्या हुआ? क्या वह कहीं और चली गई? इस ख़याल से मैं कुछ परेशान हो गया। मैं किसी से फूला के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन यहाँ कोई किसी से बात ही नहीं करता था।

    दो-तीन दिन और गुज़र गए। 'मसाज पार्लर' की बत्तियाँ बड़ी रात तक चमकती रहती थीं। बार-बार आते हुए.. जाते हुए... मैंने ध्यान से देखा, फूला कहीं नहीं थी। मुझे मालूम हो गया, फूला कहीं चली गई। शायद मुझे काफ़ी बुरा लगा। लेकिन मैं ऊँची इमारतों में रहने वाले लोगों की बातें सोचने लगा। लाखों रुपए ख़र्च करने वाले लोगों की बातें सोचने लगा। स्मगलरों, बिल्डरों, अरब अमीरों के साथ घूमती छोटी लड़कियों... सभी की बातें सोचने लगा। लेकिन फूला के बारे में भी सोचता रहा।

    लेकिन एक रात एक और ही बात हो गई। मुझे लौटने में काफ़ी देर हो गई थी। अगले दिन मुझे काम पर बुलाया गया था। मैं थका था। लेकिन काफ़ी ख़ुश था। आख़िरी बस छूट जाने के कारण मैं पैदल चल कर ही ठिकाने पर पहुँचा था। जब मैं अँधेरी गली में दाख़िल हो रहा था, मैंने देखा कि लांड्री की दुकान के तख़्ते पर कोई औरत पड़ी है। मैं आगे निकल गया। लेकिन फिर लौट आया। हाँ, यह फूला ही थी। मैं कुछ समझ नहीं पाया। इस समय रात के दो बज रहे थे। सड़क क़रीब-क़रीब ख़ाली ही थी। लड़कियाँ और दलाल जा चुके थे। मुझे लगा कि फूला सो गई है। लेकिन मैं फिर गुज़रा और मुझे लगा कि नहीं, सोई नहीं है। शायद छोकरियों के साथ इसने भी बहुत शराब पी ली है। मैं अपनी खोली तक गया। ताला खोलने से पहले फिर लौट आया। अब मुझे लगा कि फूला बेहोश है। कुछ हिचकिचा कर मैंने आवाज़ दी, 'फूला! फूला बाई! कोई जवाब नहीं आया। अब मैं उसके एकदम पास पहुँच गया। मैंने उसे हिलाया और ...और मुझे लगा कि फूला बहुत बीमार है। उसका बदन बहुत ज़ियादा गरम है और मुँह के चारों तरफ़ कै फैली हुई है। अचानक ही सब कुछ समझ में गया। शायद फूला कई दिनों से बीमार थी। मुझसे झगड़ते समय भी शायद बीमार थी। पार्लरवालों ने शायद आज उसे निकाल दिया। वहाँ से निकल कर वह किसी तरह तख़्ते तक पहुँची.. या शायद लोग उसे यहाँ डाल गए। इसके बाद...! इसके बाद मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ! क्या मैं फूला को उसी तरह वहाँ छोड़ दूँ और चला जाऊँ? मुझे लगा कि ऐसा नहीं हो सकता। वहाँ अँधेरी गली में कोई नहीं था, जिससे मैं कुछ कह सकता। सिर्फ़ ऊँची इमारतों की बत्तियाँ चमक रही थीं। और सड़क पर एक-दो टैक्सीवाले अपनी-अपनी टैक्सियों में सो गए थे। मैं चाहता था कि किसी को पुकारूँ, आवाज़ दूँ, लेकिन वहाँ कोई नहीं था।

    उस समय मैंने हिसाब लगाया कि मेरे पास कुछ कितने रुपए बचे हैं। इसके बाद मैंने एक टैक्सीवाले को जगाने की कोशिश की। मुश्किल-ही-मुश्किल थी। फिर भी मैंने सोच लिया था कि अब क्या करना है।

    इसी तरह रात बीतती गई थी। दो अस्पतालों ने उसे लेने से इंकार कर दिया। म्युनिसिपल अस्पताल ठसाठस भरा था। मैंने बड़ी मिन्नतें की थी। नर्सों के ड्यूटी रूम में एक बिस्तर डाल कर उसे लिटा दिया गया था। सलाइन की बोतल लगा दी गई थी। बड़ी नर्स ने मुझसे कहा कि मैं बोतल की जगह दूसरी ला दूँ। अस्पताल में दवाइयाँ भी नहीं हैं। मैं बाहर से ख़रीद कर दवाइयाँ ले आऊँ। लेकिन मैं चुपचाप सुबह का इंतिज़ार कर रहा था। वार्डों में, गलियारों मे, पलंगों पर, ज़मीन पर, हर जगह मरीज़-ही-मरीज़ पड़े थे। नर्सों ने कहा था कि इंजेक्शन भी लाना होगा। बहुत-सी चीज़ों की ज़रूरत थी। लेकिन हमारे पास कुछ नहीं था। फिर भी मैं सुबह का इंतिज़ार कर रहा था। और बेंच पर बैठे-बैठे ही सुबह हो गई थी। मुझे नहीं मालूम था कि यह कैसी सुबह थी। लोगों ने चलना-फिरना और गाड़ियों ने दौड़ना शुरू कर दिया था। मैंने तमाम लोगों के बारे में सोचा था। ये लोग थोड़ी-बहुत मदद कर सकते थे। ड्यूटी रूम में जा कर मैंने एक बार फिर फूला की तरफ़ देखा था। वह अब भी बेहोश थी। चितकबरे बाल बिखरे हुए थे और वह पहले से ज़ियादा कुरूप लग रही थी। इसके बाद मैंने चलना शुरू कर दिया था।

    दिन भर चलता रहा। इस जगह से उस जगह और उस जगह से उस जगह। इंडिया इंटरनेशनल कॉरपोरेशन ने मुझे काम पर लेने से इनकार कर दिया। मुझे बहुत दुःख हुआ। मेरी सारी आशाएँ मिट्टी में मिल गईं। इस बार मुझे बहुत भरोसा था, काम ज़रूर लग जाएगा। सुबह-शाम की चिंता मिट जाएगी। मुझे लगा कि मैं जैसे फूटपाथ पर गया हूँ। शाम होते-होते मैं लौट आया। इस समय दवाइयाँ और सलाइन की बोतलें मैंने ख़रीद ली थीं। कुछ लोगों ने थोड़े-थोड़े पैसे दे दिए थे। मैं बिलकुल थक गया था।

    जब मैं अस्पताल पहुँचा, तो फूला की हालत बहुत ख़राब थी। उसके मुँह पर, कानों तक कै फैली हुई थी और बिस्तर भी कै में सना हुआ था। उसकी साँस घरघरा रही थी। लगता था कि किसी भी समय उखड़ जाएगी। लेकिन फिर भी उसकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं था। इस समय मुझे लगा कि फूला मर जाएगी। पता नहीं क्यों, मुझे यह भी लगा कि हे भगवान, फूला को इस तरह मरना नहीं चाहिए। किसी भी तरह उसे बचना चाहिए।

    मैं दौड़ कर बड़ी सिस्टर के पास गया था। बड़ी मुश्किल से उसने मेरी तरफ़ ध्यान दिया था। फिर एक डॉक्टर आया था। उसने बातया था कि कै फेफड़ों में चली गई है। फूला पड़ी हुई कै करती थी और किसी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया था। अब एक मशीन लार्इ गई। मशीन घर-घर चलने लगी। मुँह के अंदर नली डाल कर डॉक्टर चारों तरफ़ हिलाने लगा। अब फूला एक-एक साँस खींचने के लिए बिलबिलाने लगी। बिलबिला कर साँस खींचती थी। छटपटा कर आँखें खोल चारों तरफ़ देखती थी। अब मुझे बार-बार लगने लगा कि किसी भी तरह उसे बच जाना चाहिए। बच कर क्या होगा? बच कर कहाँ जाएगी? मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। बस, यही लग रहा था कि उसे बचना चाहिए।

    मशीन चलती रही और आवाज़ आती रही। फूला बिलबिलाती रही और आवाज़ आती रही। धीरे-धीरे रात हो गई और सभी आवाज़ें चुप हो गईं। अब मशीन हटा दी गई और बोतल फिर लगा दी गई। अब मेरी समझ में नहीं रहा था कि क्या करूँ? नर्स और डाक्टर कोई बताने को तैयार नहीं था कि क्या होगा! ऑक्सीजन के सारे सिलेंडर ख़ाली पड़े थे। या दो-तीन थे, जो मरीज़ों पर लगे हुए थे। मैं बैठा रहा। फिर मैं बाहर गया। फिर मैं सोचने लगा कि रात क्या होगा? क्या मैं वहीं कहीं सो जाऊँ? लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं थी। रात कुछ हो गया, तो क्या फूला का दुनिया में कोई है? क्या हमारा दुनिया में कोई है? तब मुझे लगा था कि हमारा कोई नहीं है... हमीं अपने सब कुछ हैं।

    अब मैं वहीं लौट आया था। जहाँ स्मगलर, अरब, अमीर, लड़कियाँ, दलाल, हिजड़े.. सब अपना काम कर रहे थे। कई सितारों वाले होटलों में बत्तियाँ जगमगा रही थीं और महँगे रेस्तरांओं में अजीब धुनें बज रही थी। 'मसाज पार्लर' के सामने ख़ूबसूरत गाड़ियाँ खड़ी थीं। आज शायद कोई ख़ास दिन था। गाँधी जी की मूर्ति को लट्टुओं से सजाया गया था और सामने कोई नेता भाषण कर रहा था। काफ़ी भीड़ लगी हुई थी। इस समय नेता गाँधी जी, पंडित जी वग़ैरह की महानता का बखान कर रहा था और एक दलाल एक कारवाले को पटाने की कोशिश कर रहा था।

    तब मुझे अचानक पहली बार ख़याल आया कि मैं किस दुनिया में हूँ? किसने इसे ऐसा बना दिया है? मैं क्या करूँ? इसे ऐसा ही छोड़ कर अपनी आँखें बंद कर लूँ? चारों तरफ़ दलालों की भीड़ है। मैं भी दलालों की दुनिया में-दलालों के दलालों की दुनिया में शामिल नहीं कर सकता। मैं बेकार, बेघर, बेसहारा सही, पर मैं दलालों की दुनिया में शामिल नहीं हो सकता। नौकरी नहीं मिलेगी...कभी नहीं। कोई बात नहीं। फूला मर जाएगी, कोई बात नहीं। रास्ता मुझे मालूम नहीं, कोई बात नहीं। इन सबके लिए मेरे अंदर नफ़रत है। वह हमशा ज़िंदा रहेगी। वही मुझे रास्ता दिखाएगी।

    रात भर आवाज़ें आती रहीं। रात भर बाजे बजते रहे और धूने गूँजती रहीं। रात भर बत्तियाँ जलती रहीं। रात भर..मैं सो नहीं सका या शायद सो गया और सपने देखता रहा। फूला मर गई और बाजे बजते रहे... धुने गूँजती रही...बत्तियाँ झिलमिलाती रहीं। मैं जाग कर उठ बैठा। बार-बार मैं सो गया। बार-बार फूला मरती गई।

    लेकिन जब सुबह हो गई, तो फूला मरी नहीं, ज़िंदा थी। मैं सबसे पहले अस्पताल पहुँचा था। बोतल और नली को हटा दिया गया था। नर्स ने कहा कि मैं चाय-कॉफ़ी दूध भी ला कर उसे पिलाऊँ।

    एक गिलास में चाय ले कर जब मैं उसके पास बैठा, तो आँखें खोल कर उसने मेरी तरफ़ देखा। मैंने चम्मच से चाय दी। उसने चुपचाप पी ली। एक बार फिर उसने मेरी तरफ़ देखा। फिर चुपचाप आँखें बंद कर ली।

    लेकिन इसी समय बड़ी नर्स ने कर कहा मैं उसे ले जाऊँ और फ़ौरन वह जगह ख़ाली कर दूँ। इमर्जेंसी में उसे रख लिया गया था। अब जान के लिए ख़तरा नहीं है। अब ड्यूटी रूम में उसे रखा नहीं जा सकता। अस्पताल में कोई जगह नहीं है। बाक़ी दवाइयाँ मैं उसे घर ले जा कर दूँ। तब मैंने सोचा था...घर? घर ले जाऊँ? कहाँ है घर? 'मसाज पार्लर' वाले उसे रखेंगे? काफ़ी समय मैंने उसी तरह गुज़ार दिया था।

    अचानक बड़ी नर्स बहुत तेज़ी से मेरे पास आई। फूला को ले जाने के लिए उसने मुझे बहुत डाँटा। आवाज़ दे कर उसने कई वार्ड बॉय बुला लिए। आख़िरी बार उसने मुझसे कहा कि अगर मैं फूला को नहीं ले जाऊँगा, तो वह उसे बाहर डलवा देगी। इस बार मैं चुप नहीं रह सका। फूला के पास पहुँच कर मैंने कहा, 'फूला बाई...उठो! अब यहाँ से चलना है।'

    फूला उठने की कोशिश करने लगी, लेकिन उठा नहीं गया। तब आगे बढ़ कर मैंने सहारा दिया। किसी तरह उठ कर बैठ गई। फिर सहारे-सहारे खड़ी हो गई। फिर घिसट-घिसट कर हम दोनों ने किसी तरह चलना शुरू कर दिया। घिसटते हुए हम अस्पताल के फाटक पर गए। अचानक वह ठहर गई। मैंने देखा कि कुछ कह रही है। मैंने सुनने की कोशिश की। काँपती आवाज़ में उसने कहा, 'तुम..तुम..नई आता तो...तो मर जाती!'

    इस समय उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। अचानक मैं ज़ोरों से हँस पड़ा... हँसता रहा। वह देखती रही। हँसते हुए मैंने कहा, 'तुम...बोली थीं ना...कि मैं...मोहब्बत नहीं कर सकता। अभी देखा ना, मैं कैसी मोहब्बत करता!...बोलो!

    लेकिन फिर इसी समय मैं अचानक बहुत गंभीर हो गया। मैंने कहा, 'मगर.....वो टाइप का आदमी नईं हू...समझ गईं ना!

    इस समय घिसटते हुए..., लड़खड़ाते हुए... हम अस्पताल से बाहर निकल रहे थे। लेकिन...हमें नहीं मालूम था...कि किधर जाना है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 55)
    • संपादक : स्वयं प्रकाश
    • रचनाकार : जगदंबा प्रसाद दीक्षित
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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