मुहब्बत

mohabbat

जगदंबा प्रसाद दीक्षित

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    ज़रूरी नहीं है फूला बाई का ज़िक्र। फिर भी एक बस्ती है, जिसे सबने देखा है। पहली बार मैं भौंचक रह गया था। पुराने मकानों में अजीब-अजीब लोग रहते थे—दूर-दूर से आए हुए लोग। लगता था पिछड़ गए हैं। आगे बढ़ने की लड़ाई में लगे हुए हैं। कुछ लड़कियाँ थीं, जो वेश्याएँ थीं। कुछ लड़के—दलाल थे। दिन भर लोग ख़ामोश रहते थे—सोये हुए। शाम से हलचल शुरू होती थी। पूरी सड़क गाड़ियों, दलालों और ग्राहकों से भरी होती थी। बड़े-बड़े होटलों की बत्तियाँ चमकने लगती थीं। इनमें पाँच या तीन तारे होते थे या किसी में कोई तारा नहीं होता था। तारे दिखाई नहीं देते थे। हम उन्हें सिर्फ़ महसूस कर सकते थे।

    दूर-दूर देशों के लोग यहाँ आते थे। देखकर पता चलता था कि गोरे हैं। अरब हैं। लोग ख़ास तौर पर अरबों के आने का रास्ता देखते थे। दुकानों, होटलों, लड़कियों और दलालों को अरबों का इंतिज़ार होता था। भिखारियों, बाज़ीगरों, हिजड़ों को भी अरबों का इंतिज़ार होता था। अपने-अपने कमरों की ऊँचाइयों से अरब लोग नीचे की दुनिया को देखा करते थे। यहाँ हिजड़े नाचते थे। बाज़ीगर खेल दिखाते थे। भिखारी औरतें-बच्चे भीख माँगते थे। नटों के बच्चे सर्कस करते थे। हर खेल के बाद एक ही सवाल होता था-ग़रीब...भूखा...पेट के लिए खाना...अल्ला...रफ़ीक़...रहम कर। सूखे-दुबले—फटेहाल हिंदुस्तानी अपना ख़ाली पेट पीटते थे। औरतें काले-बीमार बच्चे दिखाती थीं। अरब ...रफ़ीक़...रहमदिल अल्लाह के नाम पर ऊपर से नोट फेंकते थे। दुबले काले इंसान उन पर टूट पड़ते थे। सबमें समझौता हो गया था। नोटों को लेकर लड़ाइयाँ होती थीं...फिर नहीं होती थीं। लेकिन फिर और माँगते थे...अल्लाह के नाम पर रफ़ीक़...रहमदिल! अब अरब सिर्फ़ हँसते थे। कभी-कभी काग़ज़ के टुकड़े फेंकते थे। भीड़ एक बार फिर दौड़ पड़ती थी।

    हम सब लोग ख़ुश थे। यहाँ रहना ज़रूरी था। सारी दौलत यहीं थी। सब कुछ यहीं था। सिर्फ़ रहने की जगह नहीं थी। इसका भी इंतिज़ाम हो गया था। एक कोना था... एक खाट काफ़ी थी। यहीं मैंने फूला बाई को देखा था। पचपन या साठ साल की थकी हुई काली औरत। बालों में बदरंग ख़िज़ाब लगया था। बालों की जड़ें सफ़ेद हो रही थीं। कई जगह सफ़ेद बाल छूट भी गए थे। आते-जाते एक बार उसने मुझे ग़ौर से देखा था। दूसरी बार मुस्कराई थी। तीसरी बार उसने आँख मार दी थी। मुझे क्या हुआ था, मालूम नहीं, शायद मैं घबरा गया था। इससे पहले किसी औरत ने ऐसा नहीं किया था। उस दिन से मैं होशियार हो गया था। आते-जाते हमेशा दूसरी तरफ़ देखता था। लेकिन फिर भी चीज़ें ठीक नहीं हो रही थी। किसी-न-किसी तरह फूला सामने जाती थी-और ज़ियादा बनी-ठनी, और ज़ियादा थकी हुई। ज़रा-सा खाँसती। फिर आँखों के कोनों से ताकती। वही मुस्कुराहट। मैं परेशान हो गया था।

    मगर लोग अब भी उसी तरह चल रहे थे। सूज़र समंदर में डूब जाता था। पुराने मकानों में लड़कियाँ बन-ठन कर तैयार हो जाती थीं। टैक्सियाँ या कारें होटलों में पहुँचा देती थीं। सामने की बड़ी इमारत की बत्तियाँ चमकती रहती थीं। अमीर हिंदुस्तानियों और अरबों की गाड़ियाँ वहाँ ज़रूर आती थीं। यह इमारत होटल नहीं थी। इसके फ़्लैटों में शरीफ़ लोग रहते थे। लेकिन लड़कियाँ वहाँ भी होती थी। दलाल वहाँ भी घूमते थे। मैं अक्सर उकता जाता था। समुंदर की लहरें भी दिल नहीं बहलाती थी। गाँधी की मूर्ति आँखें बंद किए मुस्कुराती रहती थी। प्रेमी लोग लिपटते रहते थे। भिखमंगे...हिजड़े...दलाल... ठेलेवाले... सब अपना काम करते रहते थे। मगर मुझे...मुझे क्या तकलीफ़ थी, मालूम नहीं, इस समय मुझे फूला बाई का ख़याल जाता था।

    बड़ी इमारत के एक फ़्लैट से कोई अक्सर यहीं नाम पुकारता था। फूला फ़ौरन अंदर चली जाती थी। अंदर शायद काम करती थी। फिर बाहर जाती थी। एक बीड़ी लेकर बैठ जाती थी। लेकिन फ़ौरन ही फिर पुकार होती थी। दम लेने की फ़ुरसत भी नहीं मिलती थी। दुकानों से समान ले-ले कर अंदर पहुँचाती थी। होटल से चाय, दुकान से पान-सिगरेट वग़ैरह। उकता कर कभी-कभी मैं सोचता था कि मेरी सही जगह क्या है! इस भीड़ में मुझे किस तरफ़ जाना है? क्या मैं भी आगे बढूँ और दलालों की दुनिया में शामिल हो जाऊँ? गाँधी की मूर्ति के पास अरबों और अमीरों के सौदे पटाना शुरू कर दूँ?

    रात लेकिन हमेशा बहुत हो जाती थी। कभी आख़िरी बस मिलती थी, कभी नहीं। जूते घसीटता हुआ मैं पैदल उस ठिकाने पर पहुँच जाता था, जहाँ मेरी खटिया थी। पार्टनर कभी ड्यूटी पर होता था, कभी सोता रहता था। इधर जब से वह घर गया था, रात को लौटने पर खोली मुझे काटने दौड़ती थी। जितना ज़ियादा हो सकता था, मैं बाहर रहता था। इस समय, जब मैं स्टेशन से बाहर आया, आख़िरी बस जा चुकी थी। घड़ी में डेढ़ बज रहे थे। ख़ाली रास्ते पर मैंने चलना शुरू कर दिया था। दारू के अड्डे खुल थे। मीट-अंडे के खोमचों के पास भीड़ थीं। रंडियों की तलाश अब भी जारी थी। ठिकाने पर पहुँचते दो-ढाई बज गए। सारी जगह सुनसान लगती थी। सिर्फ़ फ्लैटों की बत्तियाँ जल रही थीं। शायद कोई नशे में चीख़ रहा था। अँधेरे गलियारों से जब मैं गुज़रा तो लगा कि कोई खड़ा है। फूला बाई थी... मैं पहचान गया। पल भर रुक कर मैं आगे निकल गया।

    लेकिन चाबी मेरे पास नहीं थीं शायद कहीं गिर गई थी या कहीं रह गई थीं। मैं समझ नहीं पाया कि क्या करूँ! देर तक वहीं खड़ा रहा। फिर बाहर गया। फिर अंदर चला गया। इस तरह दो-तीन चक्कर हो गए। मुझे देखकर अब कुछ कुत्तों ने भोकना शुरू कर दिया। इस समय फूला बाई अँधेरे से उजाले में गई। मैंने देखा कि चेहरे पर बहुत-सा पाउडर लगाया गया था। बदरंग बालों में मुरझाया हुआ एक गजरा अटका हुआ था। एक अजीब-सी साड़ी पहनी थी, जो जाने कब नर्इ रही होगी। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि फूला भी रोज़ रात शायद ग्राहक तलाश करती थी। पहली बार उसने मुझसे कहा, 'क्या हो गया चक्कर क्यूँ लगाते हो?'

    मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ! फिर भी मैंने कहा, 'मेरी किल्ली गुम हो गई। खोली पे लॉक है।'

    इस समय रात पूरी तरह सुनसान थी। बड़ी इमारत के 'मसाज पार्लर' से निकल कर कोई बड़ा आदमी कार का दरवाज़ा खोल रहा था? हलके उजाले में फूला चुपचाप खड़ी रही। मैं चलने लगा, तो बोली, 'ज़रा रुको तो... कैसा ताला है तुम्हारा?'

    हिचकिचा कर मैंने उसे ताले के बारे में बताया। बोली, 'ऐसा करो...हमारी किल्ली लगा के देखो ना!'

    उसकी चाल में लड़खड़ाहट थी। जब इमारत से लौटी, तो हाथ में चाबियों का गुच्छा था। मैंने कई चाबियाँ लगाईं। एक भी नहीं लगी। फिर उसने कोशिश की। चाबियों पर चाबियाँ बदलती रही। पता नहीं कैसे, ताला खुल गया। मैं पल भर वैसे ही खड़ा रह गया। अंदर जा कर बत्ती जलाई। अपने आप ही फूला अंदर गई। इस समय मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उसकी तरफ़ देखूँ, लेकिन मैं उसे देखने लगा। वह चेहरा उस उजाले में और भी काला-थका-बूढ़ा लग रहा था। बालों का बदरंग ख़िज़ाब, झुर्रियों पर पाउडर की परते और पुती हुई लाली। मुझे क्या लगा, मालूम नहीं। शायद बहुत बुरा लगा। शायद थोड़ा दुःख हुआ।

    फूला बोली, 'मैं तुमकू... आते-जाते रोज़ देखती।' अब उसके होंठ धीरे-धीरे काँपने लगे। मुँह के कोनों में लार इकट्ठा हो गई। रुक कर बोली, 'तुम कि नई...मेरी कू भोत अच्छे लगते।'

    एकाएक ही मैं कुछ बोल नहीं सका। अजीब-सी चुप्पी पल भर छाई रही। अब फूला संभल गई। बोली, 'तुमकू लगता कि मेरी उमर भोत जास्ती! नईं क्या? पर मैं सच्ची बोलती, मेरी उमर जास्ती नईं है।'

    मुझे मालूम नहीं था, मैं क्या कहूँ, फिर भी मैंने कहा, 'नईं, ये बात नईं। तुम मेरे को ग़लत समझा। मैं ऐसा आदमी नईं हूँ।'

    उसी तरह फूला ने कहा, 'नईं, सब आदमी लोग कमती उमर की छोकरी से मोहब्बत करते। पर मैं सच्ची बोलती, मेरा उमर जास्ती नईं। तब्बेत थोड़ा बिघड़ गया, बस!'

    मैंने जैसे ज़िद करते हुए कहा, 'नईं, तुम मेरे को समझा नईं, मैं वो टाइप का आदमी नईं। मैं तुमकू बहुत अच्छा समझता, पर... बोलते-बोलते में रुक गया। मालूम नहीं, क्या कह देता। फूला जैसे और संभल गई। बोली, देखो ना, मैं तुमकू