फ़र्क़

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इसराइल

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    थोड़े दिन पहले ही इशापुर गाँव में खेत-मज़दूरों और किसानों का संगठन बना था। भूदानी नेता बेनी बाबू ने घर-घर घूमकर किसानों से अपील की थी कि तुम लोग अब किसी संगठन या झंडे के नीचे क्यों जाओ! मैंने ज़मींदार से पूरा गाँव भूदान में ले लिया है, इसलिए अब बेदख़ली का सवाल ही नहीं उठता। जयप्रकाश बाबू जल्दी ही आने वाले हैं और 'आदर्श सर्वोदयी गाँव' की नींव पड़ने वाली है। लेकिन गाँव के लड़कों ने उनकी बात नहीं मानी थी। जब से खेत-मज़दूरों और बटाईदारों के एक-आध लड़के पढ़ने लगे हैं, तब से वे किसी की बात नहीं मानते। इसीलिए 'आदर्श सर्वोदयी गाँव' का उद्घाटन समारोह टलता गया था और उस दिन उनके कलेजे को गहरी चोट लगी थी, जिस दिन भगलू बटाईदार के लड़के विशू ने कह दिया था—बेनी बाबू, आपको कोई दूसरा गाँव नहीं मिलता जो आप ज़मींदार साहब से ले लें। हम ग़रीबों के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं? आपको चुनाव लड़ना नहीं है, तब आप क्यों इस झमेले में पड़ रहे हैं? शिवजी बाबू खेत आपको दान देंगे, बोएँगे किसान और फ़सलें होने पर शिवजी बाबू के ग़ुंडे बंदूक़ लेकर आएँगे और फ़सल काटकर ले जाएँगे। ठीक उसी समय आपका आविर्भाव होगा और फ़सल के दूसरे छोर पर लाठी, तीर, भाला, गँडासा लिए खड़े किसानों के सामने आप छाती खोलकर पड़ जाएँगे कि पहले मुझको मारो, मैं ज़िंदा रहते हिंसा नहीं होने दूँगा। आप बौखलाती भीड़ को हिंसा-अहिंसा पर चौपाई सुनाएँगे और इस क्षणभंगुर संसार के मायाजाल में फँसने तथा अहिंसा के द्वारा ही आसुरी शक्तियों को पराजित करने की रामधुन गाएँगे। तब तक ज़मींदार के गुंडे हवाई फ़ायर करते हुए फ़सल लेकर चले जाएँगे। फिर आप संतोष की लंबी साँस खींचते हुए शहर चले जाएँगे अपने बड़े नेताओं को बताने कि अहिंसा के ब्रह्मास्त्र से मैंने आज एक दानवी हिंसा पर विजय प्राप्त कर ली है और बहुत बड़े ख़ून-ख़राबे को रोका है। दूसरे दिन फिर आप ज़मींदार की देहरी पर पहुँचेंगे और सत्संग होगा। नेताओं और अफ़सरों के इस अहिंसक विजय-समारोह में बग़ल का गाँव भी आपको दान में मिल जाएगा। आप वहाँ भी ख़ून-ख़राबा रोकने के लिए पहुँच जाएँगे। आपकी यह लीला अनंत है बेनी बाबू, और इस अनंत की चक्की में हम ग़रीब पिस गए हैं—आप हमें क्षमा करिए। हम ग़रीबों को हमारी ही हिंसा पर छोड़ दीजिए। कम से कम अपनी फ़सल की रक्षा ही हम कर लेंगे, जिससे साल भर भूखों मरना नहीं पड़ेगा।

    इस लड़के ने उनकी आत्मा हिला दी थी। बेनी बाबू अगर ग़लती से भी उस गाँव से गुज़रते तो लड़के 'भूदानी जा', 'भूदानी जा' के नारे लगाकर चिढ़ाने लगते थे।

    बिशू, भगलू बटाईदार का लड़का है। भगलू अपना पेट काटकर बिशू को पढ़ा रहा है। बिशू के साथ इसी गाँव के दो लड़के और हैं जो पढ़ रहे हैं। बेनी बाबू ने थाने-भर में कह दिया है कि इशापुर के कच्ची उम्र के लड़कों में दायित्वहीन उत्साह है। वहाँ के बड़े-बूढ़े उन्हें रोकते नहीं। किसी दिन सब भारतीय आदर्श उस गाँव में धराशायी हो जाएँगे, तब हम क्या कर सकते हैं? हमारी जनम-जनम की साधना पराजित हो जाएगी। यह कर्मभूमि मरणभूमि में बदल जाएगी। यह सब मुझसे नहीं देखा जाएगा। मैंने उस गाँव में जाना छोड़ दिया है। अब उस गाँव में उन तत्त्वों का आवागमन प्रारंभ हुआ है, जो उपद्रवी हैं, हिंसा में विश्वास करते हैं। इशापुर गाँव में अब प्रभातफेरी नहीं होती, शाम को लाल झंडा लेकर जुलूस निकलता है। जो नारियाँ एक दिन भी प्रभातफेरी में नहीं आईं, रामधुन नहीं गाया, वे जुलूस में जा रही हैं, इंक़लाब गा रही हैं। धर्मचर्या के बदले विलास होता है। बज़रू अहीर, जो भैंस चराता था और समझता था कि डेढ़ गज़ चौड़ी भैंस की पीठ ही पृथ्वी की चौड़ाई है, जिसकी दुनिया सिमट कर भैंस की पीठ पर चली गई थी, वह अब नेता बन गया है और भाषण देता है। उस दिन वह कंधे पर लाठी लिए सड़क पर मिल गया। मैंने कहा—बज़रू, यह लाठी लेकर घूमना अच्छी बात नहीं है। वह कहने लगा कि, बेनी बाबू, मैं तो बचपन से ही लाठी लेकर घूमता हूँ। मैंने उसे समझाया, तब तुम भैंस को मारने के लिए यह लाठी रखते थे, अब आदमी को मारने के लिए इसे लेकर घूम रहे हो, बज़रू, बहुत फ़र्क़ गया है, बहुत। अगर इतनी समझदारी गई है कि तुम भैंस की पीठ पर से ज़मीन पर उतर आए हो तो कुछ और सोचो। लेकिन वह नहीं माना। कहने लगा, जितना सोचूँगा, लाठी उतनी ही मोटी होती जाएगी बेनी बाबू! अब मैंने भैंसों की संगत छोड़कर आदमियों की संगत पकड़ ली है।”

    बेनी बाबू आगे बढ़ना ही चाहते थे कि सड़क के चौमुहाने से बिशू ने उन्हें पुकारा, वे ठहर गए। यद्यपि वे जानते हैं कि यही लड़का ख़ुराफ़ात की जड़ है, लाल झंडा के नेताओं को बुला लाता है और कहता है कि खेत-मज़दूरों का नेता खेत-मज़दूर ही होगा, कोई भूदानी या ज्ञानदानी नहीं। इसीलिए उसने बज़रू चरवाहे को नेता बना दिया और ग्वाला-कुल में हलचल मचा दी। सब चमार, दुसाध, डोम, हलखोर, जोलहा, धुनियाँ, कोइरी, कोहार, अहीर-बिलार एक हो गए हैं। कहते हैं, बज़रू ही हमारा नेता है, इस बज़रू की डुगडुगी कोसी की पंकिल घाटियों में बजने लगी है। हालत इतनी नाज़ुक है कि ऊँची ज़ातियों के कुछ सिरफिरे लोग भी इनका साथ दे रहे हैं। उस दिन ढोलबज्जा में इन्होंने पाँच हज़ार नंग-धडंगों का प्रदर्शन किया था, नवगछिया में तो बीस हज़ार का अस्त्र-प्रदर्शन। बेनी बाबू ने सोचा कि इस लड़के को अहिंसा के लिए राज़ी कर लिया जाए तो शायद खौलती हुई भीड़ को रोका जा सकता है, क्योंकि उन्हीं के बीच का पढ़ा-लिखा यह बच्चा उनका सबसे अधिक विश्वासपात्र है। इसलिए बिशू के हाथों एक बार अपमानित होने पर भी उसके पुकारने पर वे रुक गए। बिशू के क़रीब आने पर मुस्कराए और कहा, तुम लोग इस बज़रू को एम.एल.ए. बनाकर ही छोड़ोगे। जिस तरह की ज़मीन तैयार कर ली है, उससे हुआ ही समझो।

    बिशू के बोलने से पहले ही बज़रू बिगड़ गया; कहा, “पंडितजी, हम लोग इस एमेलेपन पर थूकते हैं।”

    लेकिन बिशू ने आगे बढ़कर बात सँभाल ली, “पंडितजी, ज़रूरत पड़ी तो वह भी बना लेंगे, मगर हमारा उद्देश्य एम.एल.ए. बनना-बनाना नहीं है।”

    बेनी बाबू ने बात रोक ली; सोचा, लड़का समझदार हो रहा है, कहा, कहा, सचमुच इन सत्तालोभियों और सत्ताभोगियों की क़तार में शामिल नहीं होना है। यह सत्ता ही संपूर्ण विग्रह की जन्मदायिनी है; इससे जितना दूर रहो, उतना ही भला। देखते नहीं, मैं चुनावों में तटस्थ रहा करता हूँ, मैं तो निर्विकारचित सेवी हूँ। अब बात बिशू के लिए असह्य होती जा रही थी। उसने कहा, पंडितजी, मगर हम इतना निर्विकार नहीं बन पाएँगे। हम यह समझ गए हैं कि इसी सत्ता ने हमारा सबकुछ छीन लिया है, इसलिए सत्ताभोगियों के हाथ से इस सत्ता को छीन लो।

    बेनी बाबू सकपका गए, “यह तो हिंसा का पथ है और हिंसा के लिए दानवी युद्ध का हुंकार। तुम लोगों को पुनर्विचार करना चाहिए। आसुरी शक्तियाँ देवत्व के सामने ही पराजित होती है, अतः कर्म का आचरण देवता तुल्य ही होना चाहिए। स्थिति में द्रवित मैं भी हूँ, लेकिन।

    बिशू ने संजीदगी से कहा, यही बात ज़रा ज़मींदार साहब, बीडीओ साहब और दारोग़ा जी को समझाइए।

    बेनी बाबू ने कहा, “यही तो वे आसुरी शक्तियाँ है, जिनके विरुद्ध हमें आध्यात्मिक स्तर पर संघर्ष करना है। भौतिकता से संघर्ष में हमारे अस्त्र आध्यात्मिक ही होंगे, क्योंकि सत्य हमारे साथ है और सत्य की प्राप्ति का संघर्ष यदि कुरूप हुआ हो तो सत्य भी कुरूप हो जाएगा। इसलिए हमें सावधान होकर ही सत्य के पथ पर लड़ना है। बच्चों, हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया बड़ी पीड़ादायिनी और दीर्घ होती है। साधना में उतावलापन कैसे?

    बज़रू तब तक बुरी तरह खीझ गया था, भूदानी जी, यह सत्त-फत्त अपनी झोली में रखिए, हमको भरोसा अब अपनी लाठी पर है। जाकर उस ज़मींदार के बच्चे से कह दीजिए, हम उसकी एक नहीं चलने देंगे, हमने दो सौ बीघे जोत लिए हैं, धान भी काटेंगे। उसको आप अहिंसा पढ़ाइए, वह हमारा धान लूटने आएगा तो कोसी बहेगी ख़ून की। हम किसी को मारने नहीं जा रहे हैं, लेकिन हमें कोई मारने आएगा तो हम उसे छोड़ेंगे नहीं।

    इन बातों से बेनी बाबू को पसीना गया। सोचने लगे कि हमारी साधना-भूमि छूटी जा रही है। अगर यही हाल रहा तो आश्रम वन-भूमि होगी। जब मनुष्य से वितृष्णा हो जाती है तो आदमी ख़ूँख़ार जंतुओं के सहवास में जंगलवास चला जाता है। लेकिन बिशू को सामने खड़ा देखकर उन्होंने वनवास की कल्पना त्याग दी और बज़रू भी अपनी लाठी पटकता वहाँ से चला गया।

    बेनी बाबू ने समझा कि जो हिंसा वातावरण पर चढ़ आई थी, अब उतर गई है। बिशू से पूछा, अच्छा, वह ज़हर-वहर की क्या बात है?”

    बिशू बताने लगा, हमने तो एतिराज़ किया, मगर गाँव के बूढ़े उछल पड़े। उन्होंने समझा कि बहुत दिनों के बाद गाँव में मिठास की हवा बही है। तीन दिनों तक हमारे प्रबल विरोध के बावजूद बूढों ने दावत स्वीकार कर ली। हंडे चढ़ते गए, भोग बनने लगा, लेकिन यह ख़बर भी फैल गई कि बिशू नहीं खाएगा। भोज के एक दिन पहले रात को जब बज़रू काका के दरवाज़े से अपने घर जा रहा था तो रास्ते में एक सफ़ेद छाया ने मुझे रोक लिया। अँधेरे में चेहरा तो मैं नहीं पहचान सका, मगर आवाज़ पहचान ली। उसने मुझे रोक कर कहा, 'बिशू, सुना है तुम नहीं खाओगे।' यह बहुत बुरा होगा, व्यवहार में होगा यह कि मौक़े पर आधा गाँव नहीं खाएगा। शायद मैं खा भी लेता और मर भी गया होता। लेकिन आप तो जानते हैं, भोज चाहे ज़मींदार का ही हो, कारिंदे तो हमारे ही लोग होते हैं। ऐन मौक़े पर यह ख़बर फैल गई कि मुझे जो शर्बत दिया जाएगा, उसमें ज़हर होगा। फिर क्या था! पूरी बात ही रह गई। कोई भी खाने नहीं गया। गाँव की औरतें सिर पीटने लगीं। उस दिन हमारी माँओं ने हमें आँचल में छिपा लिया था, यह कहकर कि साँप ने डंस लेना चाहा था। क्या सच है, मुझे उससे कुछ लेना-देना नहीं, मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि एक विशद दानवीय षड्यंत्र हमारे ख़िलाफ़ चल रहा है, यह ज़हर उसी की एक बूँद थी। लेकिन पंडित जी, आपकी हिंसा-अहिंसा की कसौटी पर यह ज़हर किस ओर जाता है? उसने बिना ख़ून-ख़राबे के मुझे ख़त्म करना चाहा था।

    बेनी बाबू ने बिशू को कोई जवाब नहीं दिया। ‘हरि ओम', भगवान रक्षा करें। जहाँ मैंने बीस वर्षों तक तपस्या की, मेरी इस कर्मभूमि की यह दुर्दशा। और वे आकाश की ओर देखते हुए वहाँ से चले गए।

    बरसात शुरू हो गई थी। कोसी की बेगवती धारा में इलाक़ा डूबता जा रहा था। धान की फ़सल भी डूब रही थी। किसानों ने किसान-सभा के नेतृत्व में दो सौ बीघे ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर खेती शुरू की थी। दिन-रात का पहरा खेतों पर लगा हुआ था। बेनी बाबू साँपों के उत्पात से गाँव छोड़कर शहर चले गए थे और शहर के आश्रम में ही रह रहे थे। उन्हें गाँव से जो ख़बर मिलती थी, वह संघर्षों की ही होती थी। उन्होंने सुना था कि इशापुर गाँव लगभग आधा उजड़ गया है और गाँव के आधे से अधिक लोग गिरफ़्तार होकर जेलों में हैं, तीन मारे गए हैं, पन्द्रह इसी बग़ल के अस्पताल में पड़े हैं। बिशू और बज़रू का नाम अख़बारों में छपने लगा है। वे दस-दस हज़ार के जुलूसों का नेतृत्व कर रहे हैं। भिंडा, लखनडीह, पारो आदि गाँवों की सभाओं में भी बिशू भाषण देने लगा है। ज़मींदार लोग भी जोगबनी और किसनगंज के इलाक़े से ट्रक से आदमी ला रहे हैं। किसानों ने एलान कर दिया है कि अब हम मुंसिफ़ी मुक़दमा लड़ने शहर नहीं जाएँगे, सिर्फ़ फ़ौजदारी लड़ने जाएँगे।

    बेनी बाबू गठिया रोग से पीड़ित हो गए हैं। दिन-रात की बरसात में उनके शरीर की गाँठों में सर्दी समा गई है, वे अब चलने-फिरने से भी लाचार हो गए हैं, दंतकथाओं के नायकों की तरह कहानी सुनते हैं—बिशू कोसी की कीचड़-भरी कगारों पर बरसात में दस-दस कोस तक पैदल चलता है और दूसरी सुबह किसी गाँव में 'जबरिया क़ब्ज़ा करो' अभियान का नेतृत्व करता है। बेनी बाबू के गठिया का दर्द दिन-ब-दिन तेज़ होता जा रहा। उन्हें लगता है कि बिशू के आंदोलन के घटाव-बढ़ाव के साथ उनके गठिये के दर्द का संबंध हो गया है। यह भी लगता है कि वह आंदोलन बढ़ता हुआ इस शहर तक आएगा। आज शाम को ही उन्होंने अख़बारों में बिशू का वह बयान पढ़ा है, जिसमें लखनडीह-काण्ड का वर्णन है कि कैसे ज़मींदार के ग़ुंडों और पुलिस ने निहत्थे किसानों पर हमले किए। लेकिन बेनी बाबू के लिए सबसे पीड़ा-दायक ख़बर वह थी कि जिसमें बताया गया था कि 'विनोबा-नगर' में बज़रू ने किसानों की सभा की है और सर्वसम्मत प्रस्ताव पास कर ‘विनोबा नगर' का नाम 'लाल नगर' रख दिया गया है और ब्रजेश बाबू की उस भूमि पर भी उन्होंने हल चला दिया है, जिसका दान नहीं किया गया था। वह पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब उन्हें याद आता है कि ब्रजेश बाबू उनके असहयोग-आंदोलन के सहयोगी थे।

    युद्ध-मोर्चे से आने वाली ख़बरों की तरह ही चौंका देने वाली ख़बरें कोसी की हरी वादियों से रोज़-रोज़ रही हैं। बेनी बाबू एक स्थल पर आकर निराश हो जाते हैं कि वे फिर कोसी की गोद में लौट नहीं पाएँगे। उनके गठिए का दर्द इतना बढ़ जाता है कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, वहाँ जाकर वे देखते हैं कि कई परिचित चेहरे घायल अवस्था में पड़े हैं। वे उनसे कहते हैं कि मैं चल-फिर सकता तो तुम लोगों की सेवा करता, पर लाचार हूँ। मेरे हटते ही कोसी का पवित्र जल लाल हो गया है, वहाँ ख़ून की धारा बह रही है, हे राम, यह सब क्या हो रहा है!

    रात गहराती है, बेनी बाबू दर्द से कराहते हैं। उनके बग़ल का किसान भी दर्द से कराहता है। बेनी बाबू उससे कहते हैं, गठिया में बड़ा दर्द है भाई, लगता हैं मैं अब फिर उठकर खड़ा नहीं हो पाऊँगा।”

    बेनी बाबू के बग़ल का किसान बीच-बीच में कराह उठता है। वे उसे सांत्वना देते हैं। किसान कहता है, “पंडितजी, इन दोनों दों में बहुत फ़र्क़ है। मुझे मालूम है, आपको कोई चोट नहीं लगी है।

    बेनी बाबू अपना दर्द भूलकर उदास हो जाते हैं। सोचते हैं—बिशू होता तो कहता—'एक दर्द हिंसक है और दूसरा अहिंसक।'

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 48)
    • संपादक : स्वयं प्रकाश
    • रचनाकार : इसराइल
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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