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उमड़ रहे घन सघन अति
उमड़ रहे घन सघन अति, रही रैन अँधियार।स्याम रंग सारी दुरी, चली पीउ पैं नार॥
दौलत कवि
सघन कुंज, घन घन–तिमिरु
सघन कुंज, घन घन–तिमिरु, अधिक अँधेरी राति।तऊ न दुरिहै, स्याम वह, दीपसिखा सी जाति॥
बिहारी
बैठि रही अति सघन बन
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौं चाहति छाँह ॥
बिहारी
तचत बिरह-रबिउर उदधि
तचत बिरह-रबिउर उदधि, उठत सघन दुख-मेह।नयन-गगन उमड़त घुमड़ि, बरसत सलिल अछेह॥
दुलारेलाल भार्गव
हेरत, टेरत डोलिहौं
हेरत, टेरत डोलिहौं, कहि-कहि स्याम सुजान।फिरत-गिरत बन सघन में, यौंही छुटिहैं प्रान॥
नागरीदास
तचत बिरह-रबि उर-उदधि
तचत बिरह-रबि उर-उदधि, उठत सघन दुख-मेह।नयन-गगन उमड़त घुमड़ि, बरसत सलिल अछेह॥
दुलारेलाल भार्गव
वह मुरली अधरान की
वह मुरली अधरान की, वह चितवन की कोर।सघन कुञ्ज की वह छटा, अरु वह जमुन-हिंलोर॥