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एकै सबही मैं बस्यो
एकै सबही मैं बस्यो, वासुदेव करि वास।ज्यों घट मठ भीतर बहिर, पूर्यो एक अकास॥
दीनदयाल गिरि
वृद्ध भये तन खासा
नख-सिख सेती भई सफ़ेदी, हरि का मरम न जाना॥तिरिमिरि बहिर नासिका चूवै, साक गरे चढ़ि आई।