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नालंदा पर गिद्ध

nalanda par giddh

देवेंद्र

देवेंद्र

नालंदा पर गिद्ध

देवेंद्र

और अधिकदेवेंद्र

    बनारस विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष आचार्य चूड़ामणि प्राचीन परंपरा के संरचनावादी समीक्षक थे। मनु महाराज के वर्ण विभाजन और स्त्री संबंधी आग्रह आदि में उनकी अटूट आस्था थी। अनेक विश्वविद्यालयों की, पाठ्यक्रम समिति के प्रभावी सदस्य, थीसिसों के परीक्षक, हिंदी के प्रसार और विकास के लिए स्थापित अनेक संस्थाओं के संरक्षक और ख़ुद अपने विश्वविद्यालय में 'डीन ऑफ़ स्टूडेन्ट्स' जैसे महत्वपूर्ण पदों की ज़िम्मेवारियाँ संभाले हुए व्यस्त रहा करते थे। एक कैबिनेट मंत्री की थीसिस उन्होंने ख़ुद लिखाई थी। शहर के मेयर और शराब के ठेकेदार मनोहर जायसवाल की पुत्रवधु उन्हीं के निर्देशन में शोध कर रही थीं। उनका व्यक्तित्व एक ऐसे वटवृक्ष की तरह था जिसने अपनी मूल ज़मीन की सारी उर्वराशक्ति को सोखकर उसे बंध्या कर दिया था। जिसके कोटरों में साँप, चमगादड़, नेवले और गिरगिट सुख चैन से रह रहे थे। जिसकी उन्नत शाख़ाओं पर बैठे गिद्ध हर क्षण मृत्यु की टोह में दूर टकटकी लगाए रहते। विश्वविद्यालय में नियम था कि कोई प्रोफ़ेसर दो साल से ज़ियादा विभागाध्यक्ष के पद पर नहीं रहेगा। लेकिन आचार्य चूड़ामणि के दरबार में सारे नियम-क़ानून पायदान की तरह बिछे रहते। कीचड़ और गंदगी पोंछने के काम आते थे सारे नियम और क़ानून।

    सुबह-ए-बनारस! पंचगंगाघाट की सीढ़ियों पर हो या ठठेरी बाज़ार की सँकरी गलियों में चाहे जहाँ हो। उसके अस्त का उत्सव आचार्य चूड़ामणि के दरबार में ही धूमधाम से संपन्न होता। आर.एस.एस. और विद्यार्थी परिषद के नेता जमा होते। विश्वविद्यालय के एक-एक विभाग और एक-एक व्यक्ति के बारे में वे सारी सूचनाएँ सौंपकर मंत्रणादान पाया करते थे। आचार्य उतने बड़े संगठन के गॉडफ़ादर थे। कहा जाता है कि विश्वविद्यालय के उस सिंहपीठ पर रहते हुए चूड़ामणि जी ने कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से गुजरात तक के हिंदी विभागों को अपने प्रभामंडल से आच्छादित कर रखा था। विभागाध्यक्षों और प्रोफ़ेसरों के अलावा नए लेक्चरर और चपरासियों तक की नियुक्ति उन्हीं की मरज़ी से होती थी। “तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु मंगल मूल, पत्ता तक हिलता नहीं...

    वे अस्सी के दशक के प्रारंभिक वर्ष थे। तब ‘ग्लासनोस्त' और 'पेरोस्त्रोइका' जैसी घटनाएँ सोवियत रूस में नहीं हुई थीं। 'पार्टी हेडक्वार्टर' को ध्वस्त करने की सांस्कृतिक क्रांति की अपील का उत्साह था। पद, प्रतिष्ठा, उम्र और अनुभव आदि की दुहाई देकर कौन इतिहास का रास्ता रोक रहा है? उसकी खोज करो!

    विश्वविद्यालयों में मार्क्सवादी विचारधारा और वामपंथी अश्वमेध का घोड़ा कालिदास, भवभूति, तुलसी और बिहारी के बाद मैथिलीशरण गुप्त तक को रौंदता, किसी कालातीत सौंदर्यशास्त्र के लिए भागता चला जा रहा था। अस्सी के दशक के उन शुरुआती वर्षों में आचार्य चूड़ामणि जितना क्षुब्ध, दुःखी, उदास और आहत रहा करते थे उतना पहले कभी नहीं। रूखे चेहरे, बढ़ी दाढ़ी, धँसी आँखों पर चश्मा लगाए बड़े-छोटे का सारा लिहाज़ छोड़कर बहस करते, सिगरेट पीते इस नई वामपंथी प्रजाति को देखकर वे वाक़ई बहुत खिन्न रहा करते थे। साम और दाम! एक दिन जब उन्होंने जलेश्वर से कहा कि तुम बहुत योग्य और होनहार लड़के हो तो वह बेशर्मों की तरह हँसने लगा—“लेकिन मुझे नौकरी नहीं करनी है... और आप मुझे बेवजह दाना डाल रहे हैं। मैं यहाँ पार्टी का काम करने आया हूँ।”

    वह महेश्वर की पार्टी का सक्रिय और उसी का छोटा भाई था। महेश्वर के बारे में किंवदंती थी कि एक बार नेपाल के एक पहाड़ी ढाबे पर जाड़े की सुबह गरम-गरम जलेबी और दही खाते हुए वह एक बूढ़े आदमी से बे-तरह उलझ गया। बूढ़ा आदमी बार-बार कुछ कहना चाहता था, लेकिन उसे इसका अवसर नहीं मिल रहा था। महेश्वर ने उसे बताया कि थोड़ा गाँवों में लोगों के बीच जाकर आप उनके अनुभवों से भी सीखें। बूढ़ा थक-हार कर उठा और चला गया। बाद में ढाबे के नौकर ने बताया कि ये चीन के चेयरमैन माओ त्से-तुंग थे। आगे महेश्वर ने जो कुछ कहा और किया वह किवदन्ती में नहीं है। जलेश्वर उसी महेश्वर का छोटा भाई था। दिन में नुक्कड़ नाटक करता। कविताएँ रचता और रात भर जागकर शहर की दीवारों पर नारे लिखा करता था। विश्वविद्यालय में उसकी अपनी मण्डली थी, जो हमेशा चुनौती देती थी। साहित्य, कला, संस्कृति और इतिहास पर बहस करती थी। और अंत में वही करती और कहती थी जो महेश्वर उसे चिट्ठी में लिखकर बताता था।

    आचार्य चूड़ामणि जी के योग्य शिष्य सुबोध मिसिर यूँ तो शांत स्वभाव के गंभीर व्यक्ति थे। लेकिन अपने गुरुदेव के अपमान और क्षोभ को देखकर उन्होंने चुपचाप कमर कसी। फिर तो मार्क्सवादी अश्वमेध का जो घोड़ा सबको रौंदता चला जा रहा था, एक दिन उसकी लगाम पकड़ ली गई। शास्त्रार्थ की कई परंपराएँ शुरू हुईं। मशीनी नतीजे और जड़ आस्थाएँ एक-दूसरे से टकराने लगीं। एक तरफ़ कबीर, प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध थे तो दूसरी ओर तुलसीदास, आचार्य शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी। जाहिलों और जातिवादियों का संगठन आर.एस.एस. सुबोध मिसिर जैसे ज़हीन, पढ़ाकू और संयमित व्यक्ति का संसर्ग पाकर नई जीवनी शक्ति से भर गया। अपनी वेशभूषा और रहन-सहन में वे शुद्ध रूप से देहाती थे। कुर्ता, पाजामा और चप्पल के अलावा कभी-कभार उनके कंधे पर सफेद गमछा पड़ा होता था। अकसर सामने वाला उन्हें देखकर धोखा खा जाता। सुर्ती खाने के अलावा और कोई व्यसन उन्हें छू सका था। स्त्रियों के बारे में उनके वही विचार थे जो कवियों के बारे में प्लेटों के। कल्पनाओं के फितूर और वाहियात के सपनों में उनकी कोई रुचि थी। उनका ज़ियादातर समय पुस्तकालय में बीतता था। और शाम को नियमित गुरुदेव आचार्य चूड़ामणि के दरबार में जाकर चरण-स्पर्श करते। उन दिनों गुरुदेव का इकलौता श्रवणकुमार एम.ए. अंतिम वर्ष हिंदी से कर रहा था। कभी फ़ुर्सत में सुबोध मिसिर उसे घंटों पढ़ाया करते। उन्हें इस बात का मन ही मन अफ़सोस था कि गुरुदेव का पुत्र होनहार नहीं है। बल्कि एकदम मूर्ख और बोदा।

    वह बनारस विश्वविद्यालय का नवजागरण काल था। नए-नए लेक्चरर, वृद्ध रीडर और प्रोफ़ेसर से लेकर क्लर्क शर्माजी और चपरासी रामदीन तक, साले-साली, बेटे, बहू, दामाद और जीजा-जीजी तक हिंदी से एम.ए., पी.एच.डी. कर रहे थे। परीक्षाओं से एक रात पहले पान की दुकानों पर पर्चे वितरित होने लगते। जिन्हें क्रमवार स्वर और व्यंजन का बोध नहीं था वे पिछले सारे रिकार्ड तोड़कर धड़ाधड़ प्रथम श्रेणी पास होते चले जा रहे थे। ‘ग्लोब्लाइज़ेशन' से बहुत पहले ही एशिया का यह सबसे बड़ा विश्वविद्यालय गाँव की शक्ल ले रहा था। पड़ोसी देशों से बड़ा बजट लेकर मानव संसाधन मंत्रालय, यू.जी.सी. और सी.एस.आई.आर. का संचित खज़ाना यहाँ की गंदी नालियों में औंधे मुँह गिरा पड़ा था। रामनाम की लूट है, लूट सके तो लूट...

    अध्यापक संघ का चुनाव होने वाला था। ब्राह्मण, भूमिहार राजपूत और कुर्मी अपनी-अपनी दुकानें सजा रहे थे। उछल-कूद, मारपीट और हाथापाई। इस युद्धभूमि में सब कुछ जायज़ था। आचार्य चूड़ामणि राजपूत लॉबी के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। गुंडावाहिनियाँ उनका चरण-रज लेकर धन्य हुआ करती थीं। भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की भावना जगाने वाली एक संस्था के ब्राह्मण वर्चस्व को ख़त्म करके उन्होंने उसे अपने मातहत कर लिया था।

    कुर्ता-पाजामा पहनने वाले सुबोध मिसिर एक ग़रीब किसान के होनहार बेटे थे। बचपन में ही उन्होंने शतात्माओं के निर्वाणोपरांत जिस स्वर्गलोक की कल्पना कर रखी थी, और जो उन्हें धवल रूई के बादलों पर सुनहले द्वीप की तरह तैरता हुआ दिखाई देता था, वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि सारे देवतागण अनवरत आत्मरति के शिकार अपनी ही वासनाओं में हस्तमैथुन किए जा रहे हैं। चुनाव पूर्व अध्यापक संघ की मीटिंग चल रही थी। झाँव-झाँव, काँव-काँव। लोग क्या बोल रहे हैं? गोबर और गू में लिथड़े-पड़े शब्दों की शक्ल खो गई है। अचानक कॉमर्स के एक मोटे मुस्टंड भूमिहार प्रोफ़ेसर ने भौतिक विज्ञान के दूसरे कर्मी प्रोफ़ेसर को उठाकर मंच पर ही दे पटका। लातों और घूसों के अनवरत प्रवाह में नीचे वाले ने ऊपर वाले का कान दाँत से काट लिया। ख़ून की धारा और चीख़ के बीच एक दारोग़ा ने डंडा फटकारा—“आप लोग लड़कों को क्या पढ़ाओगे?” उसने दोनों को धकियाकर एक-दूसरे से अलग किया। बनारस विश्वविद्यालय का यह चलता फिरता यथार्थ पौराणिक आख्यान और मिथक कथाओं से भी ज़ियादा अविश्वसनीय और लोमहर्षक था।

    निरक्षरता और अज्ञानता के अँधेरे में डूबे गाँवों के जो लोग शताब्दियों से एक ही अन्न खाते चले रहे हैं, और जो लोग धारासार बरसात की काली अँधेरी रात में साँपों, बिच्छुओं और गोहों से पटी पड़ी मेड़ पर भुकभुकाती लालटेनों के सहारे बचते-बचाते फावड़ा लेकर नाली बाँधने चले जा रहे हैं। जो लोग क्वार की ज़ेहरीली धूप में बैलों के साथ सिर झुकाए खेत जोत रहे हैं। जाड़े की ओस और ठंड में काँपते-ठिठुरते जो लोग सिवान के निर्जन सन्नाटे में महीनों से सारी रात बैठकर सिर्फ़ बिजली की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन सारे लोगों के जीवन में जातिसूचक शब्द सत्ती मैया के चौरे की तरह निर्जीव कोने-अँतड़े में पड़ा हुआ है। शादी, समारोह, तीज, त्योहार पर वे वहाँ चढ़ावा चढ़ाते और फिर भूल जाते। वही जातिसूचक शब्द सभ्यता और आधुनिकता का समारोह मनाने वाले विद्वानों की इस बस्ती का मूल मंत्र बना हुआ है। चारों और ब्राह्मण राजपूतों को, राजपूत कायस्थों और भूमिहारों को, भूमिहार कुर्मियों को गालियाँ दे रहे हैं। इस बार अध्यापक संघ के चुनाव में कुर्मी अपना पक्ष तय नहीं कर पाए। इधर मंदिर का महंथ, जो विज्ञान संकाय का डीन भी है, उसने पूर्वांचल के सबसे बड़े माफ़िया डॉन, विधायक, नर हत्याओं के कुख्यात अपराधी और ब्राह्मण सभा के अध्यक्ष की मदद से भूमिहारों से तालमेल कर लिया। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और महामंत्री तीनों सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशियों की जीत से राजपूत लॉबी को लकवा मार गया। मंदिर के महंथ के यहाँ मिठाइयों का दौर शाम से चल रहा था। भूमिहार विशेष रूप में आमन्त्रित थे। विजयोल्लास के क़हक़हे गूँज रहे थे।

    उधर आचार्य चूड़ामणि के दरबार में एक लाश रखी हुई थी। इतिहास की लाश। सारे क्षत्रप शोकमग्न सिर झुकाए बैठे थे। पराजय और अपमान से आहत। किंकर्तव्यविमूढ़ संघ के नगर संचालक महातिम सिंह ने आर्य पराभव के मूल पर टिप्पणी की और फुसफुसाए—“मुसलमानों से भी ख़तरनाक होते हैं ये सँपोले! कुछ कुछ ज़रूर करना पड़ेगा इस बार।” वे लंबी साँस खींच कर उठे और शाम के धुंधलके में कहीं खो गए।

    ठीक रात के बारह बजे जब लोग महंथ जी के यहाँ से लौटकर पान की दुकान पर खड़े हुए ही थे कि राजपूतों की गुंडावाहिनी ने हॉकी और लोहे की राडों से उन पर हमला कर दिया। इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि ब्राह्मणों के साथ कहीं कोई भूमिहार पिट जाय। वरना, यह समीकरण स्थाई होकर दूर तक नुक़सान करेगा।

    थोड़ी देर बाद गुंडों की तलाश में पुलिस और पी.ए.सी. का भारी जत्था हॉस्टल में घुसा। उस समय सारी घटना से बेख़बर लड़कों की समझ में कुछ नहीं आया। पी.ए.सी. जब छात्रवासों में जाती है तो उसका ध्यान घड़ी, पर्स और रुपये, पैसों पर ज़ियादा होता है। लड़कों ने ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद करना शुरू किया। लाठी चार्ज होने लगा। शहर कोतवाल ब्राह्मण था। जिले का सी.जे.एम. भी ब्राह्मण था। और वह भी, जो होना चाहता था किसी गली का शोहदा, किसी नुक्कड़ का गुंडा या किसी थाने का दारोग़ा, लेकिन दुर्भाग्य से प्रोफ़ेसर बना, चीफ़ प्राक्टर भी ब्राह्मण था। वह ग़ुस्से से थरथर काँपते हुए पी.ए.सी. वालों को ललकार रहा था। एक जवान के सिर पर पत्थर लगा। उसने दौड़ाकर लड़के को पकड़ा और तिमंज़िले पर ले जाकर सीधे उठाया और नीचे फेंक दिया।

    महीने भर बाद होने वाले छात्र संघ के चुनाव में सारा समीकरण बदलने लगा। वामपंथी प्रत्याशी विजयानंद शाही मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा का सशक्त दावेदार बनकर उभर रहा था। पिता भ्रष्टाचार के मामले में सस्पेंड, सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर थे। शहर में मकान था। पैसे की चिंता नहीं थी। आचार्य चूड़ामणि ने सोचा कि 'विचारधाराएँ तो परिवर्तनशील होती हैं। उम्र और परिस्थिति से निर्धारित। मूल सत्य तो जाति है।' आर.एस.एस. की राजपूत और भूमिहार लॉबी ने विद्यार्थी परिषद के शिवानन्द ओझा के ख़िलाफ़ अध्यक्ष पद पर शाही का समर्थन कर दिया। वामपंथ की शानदार विजय दर्ज हुई। उसी पैनल का दूसरा हरिजन प्रत्याशी मात्र पचासी वोट पाकर वीरान और बेजान पसरी सड़क पर अकेले क्रांतिवाद ज़िंदाबाद चिल्लाता चला जा रहा था। जब थक गया और मुँह से झाग आने लगा तो जगजीवनराम छात्रावास के अपने कमरे में जाकर भूखे पेट सो गया।

    उस समय आचार्य चूड़ामणि के रिटायर होने मे दो वर्ष और बाक़ी थे। इसलिए जब उनको ‘माइल्ड हार्ट अटैक' हुआ तो लोगों ने उसकी तरह-तरह की व्याख्या की। किसी ने बताया कि दरअसल, यह हार्ट अटैक महज एक नाटक है। अध्यापक संघ के चुनाव के बाद जिन ब्राह्मण प्रोफ़ेसरों को मारा गया है उसके लिए कुलपति ने हाईकोर्ट के एक रिटायर जज से जाँच शुरू करा दी है। वह उसी जाँच समिति से बचने का बहाना है।

    यह बात सच है या नहीं। लेकिन यह ज़रूर है कि हफ़्ते भर पहले जब इस जाँच समिति की घोषणा की गई थी तो आचार्य चूड़ामणि की प्रतिक्रिया यही थी कि—कुलपति ब्राह्मण। हाईकोर्ट का रिटायर जज ब्राह्मण! इसमें जाँच कराने से क्या? एक तरफ़ फैसला होगा...

    “इसमें होगा क्या गुरुदेव ? —पास बैठे एक लड़के ने, जो विश्वविद्यालय में ठेके लेता है, पूछा।

    आचार्य चूड़ामणि मुस्कुराए—“एक रजिस्टर गंदा होगा। जज साहब रिटायर हो चुके हैं। दस-बीस बार ए.सी. का किराया और भोजन-पानी का कुछ पैसा मिल जायेगा। मसनद पर थोड़ा उठगकर उन्होंने दीवान के नीचे से पीकदान खींचा और कंठ तक भर आयी घृणा को पिच्च से थूक दिया।

    कुछ लोग इस हार्ट अटैक की व्याख्या बिलकुल दूसरे ढंग से कर रहे थे। उन लोगों का कहना था कि हृदयहीन लोगों को हार्ट अटैक कैसे हो सकता है? हो हो, यह भदैनी की उस हवेली को हारने का दुःख है जिसमें पच्चीस रुपया किराया देकर आचार्य पिछले पैंतीस सालों से रह रहे हैं। उनका अपना मकान, पी.डब्लू.डी. विभाग के बतौर ऑफिस, अठारह हजार रुपये किराया पर उठा है। अब अगर उन्हें अपने मकान में जाना पड़ा तो हर महीने अठारह हजार रुपये का घाटा

    हालाँकि इस बात में भी कुछ दम नहीं है। क्योंकि आचार्य के खिलाफ फैसला सिर्फ निचली अदालत से हुआ है। ऊपर की अदालत ने 'स्टे' दे दिया हैं इसके बाद तो हाईकोर्ट है। फिर सुप्रीम कोर्ट। तब तक आचार्य तीन पीढ़ियाँ इसमें गुजर जायेंगी।

    इन सब बातों के अलावा, कुछ लोग जो ज्यादा ही कृतघ्न बुद्धि के होते हैं। और बेवजह हर समय हर किसी की दीवाल में छेद करके वहीं चौबीस घंटे आँख गड़ाये रहते हैं, हर छोटी-बड़ी घटना में जो लोग पुत्रों, बहुओं और बेटियों को खींच लाते हैं, उन सबका कहना था कि 'रिटायरमेंट' नजदीक है। बेटा एम.ए. में है। कुलपति पिछले दस सालों से विश्वविद्यालय के रुके इंटरव्यू को रात-दिन कराने के लिए आमादा है। अगर इस समय इंटरव्यू हो गया तो मेरे श्रवणकुमार का क्या होगा? फिर तो अगले दस साल तक इंटरव्यू नहीं होगा। दरअसल, यह हार्टअटैक श्रवणकुमार की चिंता से है।

    ले-देकर यही बात सत्य के ज़ियादा क़रीब हो सकती थी। क्योंकि अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भर्ती आचार्य को जैसे ही यह बात पता लगी कि विभाग में इंटरव्यू की तारीख़ तय हो गई है, उन्होंने डॉक्टर के मना करने के बावजूद अपने को पूर्णतया स्वस्थ घोषित किया और रिक्शा पकड़कर सीधे विभाग के लिए चल पड़े।

    उस दिन विभाग में अफ़रा-तफ़री मची थी। लोग अनुमान लगा रहे थे कि अभी तो आचार्य चूड़ामणि हार्ट अटैक के मरीज़ होकर अस्पताल में भर्ती हैं, इसलिए नंबर दो के रीडर आचार्य भवेश पांडे जी अध्यक्ष की हैसियत से इंटरव्यू बोर्ड में बैठेंगे।—“लेकिन वे कैसे बैठ सकते हैं”—किसी ने शंका ज़ाहिर की—“वे तो ख़ुद ही प्रोफ़ेसर पद के प्रत्याशी हैं, और दूसरे उनकी पुत्रवधू लेक्चररशिप के लिए अप्लिकैंट है।” दूसरे ने प्रतिवाद किया—“हो सकता है वे रीडर वाले इंटरव्यू बोर्ड में बैठें।

    विभाग में ज़ियादातर नए लेक्चरर जो दिन में दो बजे आते और विभाग से दूसरे की डाक उठाकर चुपचाप चले जाते, वे सारे लोग आज सुबह दस बजे से ही आने शुरू हो गए थे। भवेश पांडेय के आसपास जमा ये लोग उनके मुफ़लर और टोपी और सुंदर स्वास्थ्य के बारे में बातें कर रहे थे। भवेश पांडे उस समय आचार्य चूड़ामणि के हार्ट अटैक, इंटरव्यू का घोषित होना आदि कई ईश्वरीय चमत्कारों पर अभिभूत गुरुगंभीर मुद्रा बना कर खड़े थे। रीडर के प्रत्याशी एक लेक्चरर ने कहा—“गुरुदेव! आपने एम.ए. में जो कामायनी की व्याख्या पढ़ाई थी वह तो आज तक नहीं भूलती।

    पांडेय जी मुस्कुराए—“अरे भाई! मैं तो बीस सालों से उद्धव शतक ही पढ़ा रहा हूँ।”

    लोग हँस पड़े।

    “पंद्रह दिन से सूरज नहीं निकला”—पांडेय जी ने मौसम पर टिप्पणी की “डीन सिन्हा जी के घर जाना है”—अपने भविष्य से आशंकित वह सड़क की ओर देख रहे थे “आजकल ठंड के मारे रिक्शे भी नहीं निकलते।

    कामर्स विभाग के सामने दो लड़कियाँ रिक्शे से उतर रही थीं—“हम अभी रिक्शा ला रहे हैं सर! चपरासी रामदीन हाथ बाँधे देख रहा है, तीन लेक्चरर रिक्शे वाले को बुलाने के लिए दौड़ पड़े।

    ठीक उसी समय क्लर्क शर्मा जी ने चहककर इशारा किया—“उधर सामने रिक्शा रहा है।

    सब लोगों ने देखा, धोती और कुर्ता। कुर्ते पर बंद गले की कोट। सिर पर फर की टोपी और कंधे पर कश्मीरी शाल। आचार्य चूड़ामणि रिक्शे पर चले रहे थे। अब तक जो लोग पांडेय जी को घेरकर खड़े थे उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। किसी को बहुत ज़ोर की पेशाब लगी तो किसी को ऊपर विभाग में काम पड़ गया। जो तीन लेक्चरर कामर्स विभाग की ओर गए थे, वे रिक्शे वाले को वहीं छोड़कर कैफ़ेटेरिया में घुस गए। मैदान में अकेले खड़े रह गए भवेश पांडे। बाघ के सामने सहमी नीलगाय। वह रिक्शे पर बैठे आचार्य को देख रहे थे। जैसे कोई कालपुरुष चला रहा हो।

    —क्या बात है पांडे जी!” चूड़ामणि ने रिक्शे से उतरते हुए पूछा, ”आप लोग क्लास छोड़कर यहाँ खड़े हैं?

    “आपका स्वास्थ्य कैसा है सर?” पांडे जी ने पूछा और सफ़ाई दी, “डीन सिनहा जी ने सारे विभागाध्यक्षों की मीटिंग बुला रखी है। वहीं जा रहा था। आप नहीं थे सर, मुझे बहुत चिंता थी।

    सिनहा को और कोई काम नहीं रह गया है। बैठे-बैठे राजनीति छाँटता है। आपको वहाँ जाना है। जाइए, अपना क्लास लीजिए!” चूड़ामणि जी ने हिकारत से कहा—क्या मवेशीख़ाना बना रखा है विभाग को। उन्होंने शर्मा जी को बुलाकर कहा, “वहाँ से लड़कों को हटाइए और कहिए, अपने-अपने क्लास में जाएँ।”

    “और सुनिए, आप डीन ऑफिस चले जाइए। मीटिंग का एजेंडा ले आइए। और बता दीजिएगा कि यहाँ सबकी व्यस्तताएँ हैं। समय पूछकर मीटिंग रखा करें।

    “सर, सुना है कि इंटरव्यू होने वाला है”—शर्मा ने बताया। जैसे सुस्वादु भोजन के बीच दाँतों में काई कंकड़ फँस जाए। सारा ज़ायक़ा ख़राब। बुरा सा मुँह बनाकर चूड़ामणि जी ने शर्मा को देखा—“कैसा इंटरव्यू!”

    “सर! यहाँ सारे अध्यापक सुबह से ही पांडे जी को घेर रखे हैं। हफ़्ते भर से कोई क्लास नहीं। सुना है डीन ने पांडे जी को प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष बनाने का आश्वासन दे रखा है। शर्मा विभाग में आचार्य चुड़ामणि जी का ख़ास आदमी है।

    तब तक एक लड़का आया। उसके साथ विश्वविद्यालय छात्र संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष और अब आर.एस.एस. के प्रान्तीय संयोजक समर सिंह भी थे। दोनों ने आचार्य का चरण स्पर्श किया। “कहिए, संगठन का काम कैसा चल रहा है? आचार्य ने पूछा।

    वहाँ तो ठीक है सर! लेकिन आप लोगों ने कम्युनिस्ट, वह भी नक्सलाइट प्रत्याशी को जीत जाने दिया?” समर सिंह ने चिंता ज़ाहिर की।

    तो क्या करते! यहाँ बाभन जिता देते? हम बचे रहेंगे तभी विचारधाराएँ रहेंगी।”—चूड़ामणि जी ने उनकी बात को कोई तवज्जो देते हुए पूछा—“कहिए, कोई काम है?

    “सर! इनका पी.एच.डी. में रजिस्ट्रेशन कराना है।” समर सिंह ने साथ वाले लड़के की ओर इशारा किया।

    आपने और किसी से बात नहीं की? आचार्य रजिस्ट्रेशन फ़ार्म को पढ़ रहे थे—विषय, “हिंदी कवियों का औषधि ज्ञान।'

    “इस विषय का क्या मतलब?—उन्होंने लड़के से पूछा।

    “सर, आयुर्वेद विभाग में शोध के लिए ‘स्कालरशिप' है। आप चाहेंगे तो मिल जाएगी।” लड़का मुस्कुरा रहा था।

    होशियार लग रहे हो, क्या नाम है।

    “प्रताप सिंह सर!

    “सिंह!” आचार्य ने देखा—छह फुट का शरीर। स्वास्थ्य अच्छा है। मुस्कुराए—“कुर्मी तो नहीं हो?

    नहीं सर! खाँटी बलिया का हूँ।

    आचार्य ने फ़ार्म पर हस्ताक्षर कर दिए।

    ऊपर विभागाध्यक्ष का कमरा झाड़-पोंछकर साफ़ कर दिया गया। आचार्य चूड़ामणि ने उन लोगों को विदा किया और ऊपर जाकर कुर्सी पर बैठे। “सिंहपीठ पर सिंह ही शोभा देता है क्लर्क शर्मा जी डाक लेकर गए थे और बता रहे थे—“पांडे तो इस पर बैठकर चारों ओर नाचता और लिबिर-लिबिर करता है।

    “शर्मा जी, आपको कुछ पता है इंटरव्यू की तारीख़ क्या है?... और सुनिए, पहले दरवाज़ा बंद कीजिए।—आचार्य ने आज्ञा दी।

    भीतर ही भीतर मंत्रणा हुई। उन्होंने किसी को फ़ोन किया। इंटरव्यू से दो दिन पहले ‘स्टे आर्डर' के लिए आश्वस्त हो गए। शर्मा जी उन्हें मुग्ध नायिका की तरह देखकर मुस्कुराए। आचार्य का ठहाका गूँज उठा। बाहर कुछ अध्यापक कान रोपे रेंग रहे थे। कमरे से निकल रहे शर्मा जी को उन्होंने दण्डवत किया।

    “आचार्य की तबीअत कैसी है शर्मा जी?

    कोढ़ में खाजा जाड़े में बारिश। माहौल गरम है। कान और मुँह मुफ़लर से बाँधे प्रेत अपनी-अपनी कअब्रों से बाहर निकल आए हैं। सुबोध मिसिर ने महसूस किया कि जिन वामपंथियों से उनका हुक्का पानी बंद था, उनसे भी नमस्कार-बंदगी होने लगी हैं। फ़िज़ाएँ रंग बदल रही हैं। हवाओं में हिंदी विभाग का इंटरव्यू गूँज रहा हैं सहअस्तित्व और समागम के इस दौर में वे आचार्य तक पहुँचने की मज़बूत सीढ़ी बन सकते हैं। वामपंथी विचारों वाले रायसाहब के साढू की मौसी के बड़े वाले दामाद की छोटी वाली बिटिया उसी गाँव में ब्याही गई है जहाँ डीन सिनहा जी की ननिहाल है। वे उधर से आश्वस्त हैं। लेकिन इस चूड़ामणि का कोई भरोसा नहीं। जाति पहली शर्त है लेकिन सुबोध मिसिर को तो दत्तक पुत्र की तरह मानता है। अब अपना काम तो प्रयास करना है। वे सुबोध मिसिर को बता रहे थे—“आप ध्यान दें तो पायेंगे कि हमारी भारतीय संस्कृति में वाद-विवाद की लंबी परंपरा रही है, आचार्यों का अपने शिष्यों तक से वाद-विवाद होता रहा है। गार्गी और याज्ञवल्क्य की परंपरा वाले इस देश ने विरोधी विचारों को व्यक्तिगत हित-अहित, लाभ-हानि, जीवन-मरण से ऊपर उठकर सम्मान दिया है। अब देखिए तो एक तरह से यह पूरा विभाग आचार्य जी का ही पाला-पोसा हुआ है। उनके सोचने का अपना ढंग है। और मैं तो कहता हूँ कि उसकी एक बहुत लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। जहाँ तक उनके निजी व्यक्तित्व का प्रश्न है तो मैं तो हमेशा से कहता रहा हूँ...—इस इंटरव्यू में राय साहब का भतीजा लेक्चरर और वे ख़ुद रीडर पद के प्रत्याशी हैं।—“अच्छा तो मैं चल रहा हूँ” उन्होंने सुबोध मिसिर से कहा—“आप उनके ख़ास और योग्य विद्यार्थी हैं। अरे भाई, अब तक आपको अपनी थीसिस पूरी कर लेनी चाहिए थी। ख़ैर, अभी तो जो लोग रीडर हो जाएँगे, उनकी और कई जगहें ख़ाली होंगी आप गुरुदेव को मेरा प्रणाम कह दीजिएगा।

    नीचीबाग़ के चौधरी प्रकाशन से चले रहे उपाध्याय जी ने अपनी खटारा सायकिल पर पैंडिल मारते हुए सोचा कि यह तो रिक्शे से भी भारी चल रही है। विभाग तक पहुँचने में पसीने-पसीने हो रहे थे। साँस दमा के मरीज़ की तरह चल रही है। जाते हुए राय साहब को देखकर उन्होंने भद्दी सी गाली दी और सुबोध मिसिर के पास रुककर बोले—“एक तो भुइंहार, दूसरे जनवादी। का कह रहा था हो सुबोध? अभी कल तक तो चूड़ामणि जी को गाली देता था। क्लास में लड़कों से कहता था कि उपन्यास के विकास में प्रेमचंद और यशपाल के साथ गुलशन नंदा और राणू का नाम लिख रखा है भुइंहारी छाँटता है। ससुर कुछ तुम भी तो लिखो! कि बस मुक्तिबोध का गू चाटते रहोगे।” उन्होंने घुणा से थूका और मतलब की बात करने लगे—'संत साहित्य का सामाजिक योगदान' मेरी पुस्तक परसों तक छपकर जाएगी और कातर हँसी हँसते हुए बताने लगे—“सारा पैसा मकान बनवाने में लग गया था। बहू का मंगलसूत्र पाँच हज़ार में बेचकर यह किताब छपवा रहा हूँ। चिंता के मारे नींद नहीं आती। तीन रात जागकर सोचता रहा। आज जाकर फ़ाइनल किया। मैंने यह पुस्तक आचार्य जी की पत्नी को समर्पित कर दिया है। आगे भगवान की मर्ज़ी। प्रकाशक साले तो लूट रहे हैं। काग़ज़ और छपाई का सारा पैसा देना पड़ा है।

    शांतिकाल के बीस वर्षों में इस विभाग से सिर्फ़ तीन पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था। इंटरव्यू घोषित होने के बाद से यह पैंतालीसवीं पुस्तक की सूचना थी। जनार्दन प्रसाद ने अपने कई शेयर जल्दी-जल्दी बेचे। एन.एस.सी. की रक़म भुनाई। वे प्रोफ़ेसर पद के प्रत्याशी हैं। ऐसा सुना जाता है कि उनके मकान के भीतर एक बहुत बड़ा हाल है। जहाँ अकसर उनके स्टूडेंट्स दूसरे विश्वविद्यालयों से आई कापियाँ जाँचते रहते हैं, वहीं बैठकर आजकल पाँच विद्यार्थी रात-दिन पुस्तकें तैयार कर रहे हैं। पुस्तकालय की किताबों के पन्ने नोच-नोच कर भारतीय काव्यशास्त्र, समकालीन साहित्य की भूमिका, रीतिकाल का कलात्मक योगदान, आदि-आदि ग्रंथ तैयार किए जा रहे हैं।

    कबीरपंथी गुह्यसाधना और उलटबाँसी के मर्मज्ञ रीडर आचार्य महादेव मुनि ने देखा कि पशुचिकित्सालय के गर्भाधान केंद्र पर भीड़ लगी है। बनियान और तहमत लपेटे एक हट्टा-कट्टा आदमी गाय के नवजात बछड़े का कान पकड़े, पुचकारता चला जा रहा है। उन्होंने आँखों पर ज़ोर लगाकर देखा—लग रहा है रमकरना है। दोनों में ननद और भौजाई का रिश्ता। उन्होंने पुकार लगायी—“पड़वे के साथ कहाँ जा रहे हो?

    सुबह-सुबह बहिर बकलोल ने टोका। कैसे बीतेगा पूरा दिन? उन्होंने जवाब दिया—“कान तो पहले ही ग़ायब था। अंधे भी हो गए क्या? ससुर बछड़े को पड़वा बोल रहे हो?

    मैं तुमसे नहीं, बछड़े से पूछ रहा हूँ”—कबीरपंथी आचार्य ने रामकरन से कहा।

    दोनों एक-दूसरे के क़रीब आए। अविश्वास और घृणा एक-दूसरे के कान में मुँह सटाकर फुसफुसाती रही, “अरे भाई, डीन तुम्हारी बिरादरी का है। कहना, एक्सपर्ट को साधे रहे। वरना यह चूड़ामणि टिकने देगा।

    दोनों ने एक-दूसरे को भरपूर तोला। अंदाज़ा, सुना और सूंघा। फिर अलग-अलग दिशाओं में थोड़ी दूर आगे जाकर गुम हो गए। चारों ओर प्रेम और घृणा, संशय और अविश्वास की मनोरम छटा फैल रही थी।

    लेक्चरर जैन साहब! रिटायर होने में सिर्फ़ छह महीने बाक़ी हैं। इस बार भी कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। चेहरे पर माँछी भिनक रही है। निरीह आँखों से हिंदी विभाग को देखते हुए उन्होंने आह भरी—“कैसा ज़माना गया। विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रह ही नहीं गए। सब जगह सिर्फ़ ठाकुर, भूमिहार, ब्राह्मण और लाला हैं।

    “कैसा ठाकुर, ब्राह्मण, गुरुदेव!—सुबोध मिसिर ने कहा—“मैं तो पाँच साल से यहाँ लोगों को देख रहा हूँ और मैं जब भी देखता हूँ, हर बार मुझे अपने गाँव का देसराज नाई याद आने लगता है।

    सुबोध मिसिर पान की दुकान पर खड़े होकर खैनी मल रहे थे तभी उन्हें कुछ शोर और पकड़ो-पकड़ो की आवाज़ सुनाई पड़ी। हिंदी विभाग के सामने प्राध्यापकों और छात्रों की भीड़ थी। लग रहा है कोई साइकिल चोर पकड़ा गया है, और ठीक उसी समय उन्होंने देखा कि भीड़ के बीच से गुरुदेव शिवपाल मिश्र भागे जा रहे हैं। पीछे एक हट्टा-कट्टा दारोग़ा उन्हें दौड़ा रहा है—“पकड़ो! पकड़ो!!” गुरुदेव के पैर में जूता भी नहीं है। कोट के सारे बटन नुच गए हैं। बाँह फटकर झूल रही है। वे सरपट भागे जा रहे हैं। विश्वविद्यालय का विशाल फाटक उन्होंने एक लंबी छलाँग से पार किया और शहर की भीड़ में, जहाँ सिनेमा के टिकट ब्लैक हो रहे थे, और जहाँ पायल और घुँघरू के उदास अफ़साने लाटरी के टिकट बेच रहे थे, जाकर खो गए।

    “भाग गया हरामी का पिल्ला”—दारोग़ा हाथ में डंडा लिए पान की दुकान की ओर रहा था।

    “क्या इन्होंने किसी लड़की के साथ कुछ किया है?” एक जिज्ञासु भीड़ दारोग़ा के आसपास घिरने लगी थी।

    प्राध्यापक लोग तो यह सब करते ही रहते हैं। मुझे इन सब बातों के लिए फ़ुर्सत नहीं।” दारोग़ा हाँफ रहा था।

    “फिर क्या हुआ?” किसी ने पूछा।

    “कानपुर स्टेशन पर गिरहकटी करता था। किसी की मार्कसीटें और डिग्रियाँ हाथ लग गईं। सत्रह साल से उन्हीं के भरोसे यहाँ नौकरी कर रहा है। हद है भाई! विश्वविद्यालय है कि चंडूखाना! रंडियाँ भी ग्राहक का मुँह सूँघकर सौदा करती है।”—दारोग़ा छात्रों और प्राध्यापकों को हिकारत से देख रहा था, “कैसे यहाँ पढ़ने वाले हैं। और 'कुलिग्स' लोग क्या भूसा खाते हैं?

    “उसके अंडर में शोध कर चुके पचासों छात्रों का क्या होगा? वे तो दूसरे विश्वविद्यालयों में नौकरी कर रहे हैं”—किसी ने उत्सुकता प्रकट की।

    “अब इस बात में कोई मज़ा नहीं।” भीड़ दारोग़ा के आसपास से छँटने लगी।

    “लीजिए, अब इसी बात पर पान खाइए!” दुकानदार ने पान का गोल बीड़ा थमाते हुए शर्मा जी को बधाई दी। “मिश्रा मैदान से बाहर हो गया। अब आपका रीडर बनना कोई नहीं रोक सकता।

    शर्मा का साढू 'विजिलेंस' में नौकरी करता है। लग रहा है मामले को उभारने में इसी का हाथ है। लोगों ने कानाफूसी शुरू की—“अपने स्वार्थ के लिए लोग किस हद तक जा सकते हैं! यहाँ किसी पर भरोसा नहीं।” त्रिपाठी जी ने टिप्पणी की, “अभी कल तक ये दोनों गलबहियाँ डाले पूरे विभाग को गाली देते थे।

    तेरह दिन हो गए। सूरज नहीं निकला। शाम होते ही सारा शहर घने कोहरे की सफ़ेद चादर ओढ़कर उकहूँ पड़ा सो जाता। लंबी और सुनसान रात। कौन रो रहा है? शायद कोई किशोर विधवा है! लेकिन इतनी मर्मान्तक वेदना! ज़रूर कोई वृद्ध विधुर होगा। स्ट्रीट लाइटों के मद्धिम प्रकाश में कंबल ओढ़े कोई छायाकृति चली जा रही है। किसी स्कूटर की सरसराह पास आती और फिर दूसरे छोर के अँधेरे में जाकर विलीन हो जाती। अपने रिटायरमेंट से ऊबे वृद्ध और जर्जर प्रोफ़ेसरों की भी पूछ बढ़ गई है। रात दो-दो बजे तक सन्धियों, समझौतों और षड्यंत्रों का दौर जारी है। मिठाइयों का भाव बढ़ गया हैं ऐसे प्रचंड सन्नाटे में भी दुकानें खुली हैं। जिन्होंने अपने बच्चों को टॉफी की जगह भेली और गुड़ खिलाकर पाला-पोसा था, वे भी इकट्ठे तीन-तीन, चार-चार किलो के अलग-अलग पैकेट बँधवा रहे हैं। “जल्दी करना भाई, सड़क पर स्कूटर स्टार्ट खड़ा है।—मुनिंदर राय ने दुकानदार से कहा।

    उनके चले जाने के बाद एक आदमी ने दुकानदार से पूछा, “बहुत बड़े आदमी हैं क्या?

    दुकानदार मुस्कुराया, “आजकल विश्वविद्यालय में इंटरव्यू चल रहा है। बिक्री बढ़ गई है।

    सृष्टि में सत्य इतना मनोहारी, रंग-बिरंगा और मौज़ूँ कभी नहीं रहा होगा। सुबोध मिसिर आजकल पुस्तकालय नहीं जाते। सुबह से उठकर दिन भर सत्य की तलाश में घूमा करते हैं। वह उन्हें चौराहों, नुक्कड़ों, चाय और पान की दुकानों पर, हिंदी विभाग में जगह-जगह दिखाई देता रहता।

    ये प्रोफ़ेसर लोग खाते क्या हैं? आज यही जानने के लिए वे मचल पड़े। वह जानना चाहते थे कि आख़िर कौन सा अन्न है जिसने इनकी वासनाओं को प्रचंड और जननेन्द्रियों को निष्क्रिय कर दिया है? वह पूरे दिन भूखे-प्यासे टहलते रहे। शायद इस रहस्य को पार पाना मेरे लिए दुर्लभ है। यह सोचते हुए थककर वह नुक्कड़ वाली दुकान पर चाय पीने चले गए। तभी अचानक उन्होंने देखा कि मुख्य सड़क की नज़र से दूर जो चोरगलियाँ हैं उनमें कुछ लोग सिर पर बोझा लादे दबे-पिचके क़तारबद्ध चुपचाप चले जा रहे हैं। वे चौंक पड़े। बहुत पहले ‘टाम काका की कुटिया' में इनकी शक्लें दिखाई दी थी। लेकिन इनके चेहरे तो परिचित हैं। ये अपने ही विश्वविद्यालय के शोधछात्र हैं। विज्ञान और मानविकी की विभिन्न शाख़ाओं-प्रशाख़ाओं के शोधका हॉस्टलों में रहते हैं। अपने गाँव-जवार के होनहार। घर के दुलरुवा। जब ये यहाँ पढ़ने आते हैं तो इनके बाप अटैची और आचार सिर पर लादकर इन्हें स्टेशन तक छोड़ने आते हैं। खेत गिरवी रखकर इनके सुख-सुविधाओं को पाला-पोसा जाता है। आख़िर इस तरह ये लोग कहाँ जा रहे हैं?—सुबोध मिसिर ने सोचा। लड़खड़ाकर गिर पड़े एक लड़के को उन्होंने दौड़कर पकड़ा। सहारा देकर उठाया और पूछा, “इस बोरे में क्या है भाई? कहीं तुम तस्करी तो नहीं करने लगे?

    लड़के ने कहा, “गुरुदेव की भैंस ब्याई है। उसी के लिए पुराना, गुड़ और चोकर ले जा रहा हूँ।”

    “और तुम?”—उन्होंने दूसरे से पूछा।

    “पहाड़िया सट्टी से कुम्हड़ा और लौकी ख़रीदकर ले जा रहा हूँ। गुरुजी ने कहा है कि वहाँ सस्ती और ताज़ी सब्ज़ियाँ मिलती हैं

    तीसरे ने बिना रुके बताया कि, “गुरुजी का मकान बन रहा है। उसी के लिए सीमेंट है।” बोझ से पिचके सिर का सारा रक्त चेहरे पर उतर आया था। आँखे बाहर लटक आई थीं। वे उसी तरह सिर झुकाए चुपचाप आगे बढ़ गए। सुबोध मिसिर की आँखें डबडबा गईं। वह ख़ूब ज़ोर से हँस पड़े।

    इंटरव्यू में दो दिन रह गया है, जब साँस रोके प्रतीक्षा कर रहे हैं। उधर कोने में झाड़ी की आड़ लेकर गेस्टहाउस का चपरासी वामपंथी रायसाहब से फुसफसा रहा है, “तीन कमरे बुक हैं। कोई गुजरात के मिसिर जी हैं और राजस्थान के उपाध्याय जी। एक पंजाब के, पता नहीं कैसी ‘टाइटिल’ है। जाति पता नहीं चल रही है।

    राय साहब ने अनुमान लगाया और सिर हिलाते हुए एकालाप की मुद्रा में बुदबुदाने लगे—“वाम, वाम, वाम दिशा, समय साम्यवादी।

    “तब तो आपके लिए शुभ है”—चपरासी ने दिलासा दिया।

    “ख़ाक शुभ है! मूल सत्य तो दूसरा है”—वे चिंता में आरपार हो रहे थे—वह एक और मन रहा राम का जो थका। कुछ बुदबुदाहट उभरी—“कहती थी माता मुझे सदा राजीव नयन।” चाहे जो भी हो, यू.पी. कॉलेज वाले मास्टर साहब मुझे वामपंथी मानते हैं। जाति भेद से परे। आज के युग में ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है। बहुत दिनों से एकांतवास कर रहे हैं। हालचाल लेना चाहिए—“अच्छा तो भाई, बहुत-बहुत धन्यवाद”—उन्होंने चपरासी से कहा और स्कूटर की किक मारी—फुर्रऽऽ।

    इधर आचार्य चूड़ामणि धोती, कुर्ता और बंद गले की कोट पर शाल डाले चले रहे हैं। पान की दुकान, सड़क पर यहाँ वहाँ धूप के छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे समस्त प्राध्यापकगण हिंदी विभाग के सामने आकर दंडवत मुद्रा में विनत भाव से झुक गए। भय और आशंका से भरे स्वयंवर के समस्त राजगण। आचार्य चूड़ामणि के कृपाकांक्षी। कौन कहा है कि चर्च और पोप का युग ख़त्म हो गया है।

    सब वामपंथियों का फ़ितूर है। कम्यूनिस्टों के देश में तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती ही नहीं। आख़िर में दासवृत्ति का पालन भी तो हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है।

    आचार्य ने देखा, भविष्य की पौध लहलहा रही है। श्री विकास पांडे, उपाध्याय, डॉ. त्रिपाठी, जनार्दन प्रसाद, रीडर महादेवमुनि और रामकरन राय। सबके सब उपस्थित हैं। कुछ पारभृता सुनयना सुकुमारियाँ भी। श्रद्धा और समर्पण का महोत्सव। उनके होंठों पर रहस्यमई मुस्कान तैर रही थी, “कितने पैसे हुआ जी?” उतरते हुए उन्होंने रिक्शे वाले से पूछा।

    “साहब, जो मर्ज़ी हो दे दीजिए”—ठंड से काँप रहे उस बूढ़े ने चिथड़े कंबल को लपेटते हुए कहा।

    “सर, मेरे पास चेंज है”—वर्षों से लइया और भुने चने का स्वल्पाहार करने वाले मुनिंदर राय रिक्शे की ओर बढ़े।

    नहीं, नहीं! यह ग़लत बात है”—आचार्य ने उन्हें सख़्ती से रोका और पचास पैसे का एक सिक्का रिक्शे वाले को दे दिया।

    “साहब, पाँच रुपया होता है”—रिक्शा वाला गिड़गिड़ाया, “किसी से पूछ लीजिए।

    आश्चर्य में डूबा समवेत स्वर, “पाँच रुपया!! लूटते हैं साले! भाग भोसड़ी के, दिखाई देना!!” भोंऽऽ भोंऽ हुवांऽ हुवांऽऽ

    रिक्शा वाला गिरते-पड़ते भागा।

    आचार्य सामने पत्थर के बेंच पर खड़े हो गए। “मैं आप लोगों से कुछ कहना चाहता हूँ”—उन्होंने सामने झुके सिरों को संबोधित किया, “लेकिन, अगर आप लोगों को मुझ पर भरोसा हो तो...”

    दो दिन बाद इंटरव्यू है। किसमें इतनी जुर्रत। फिर वही समवेत स्वर, ”हमें आपके न्यायबोध पर पूरा भरोसा है आचार्य।”

    दो मिनट तक सन्नाटा रहा। विभाग के हेड क्लर्क शर्मा जी ने बैग से काग़ज़ का एक टुकड़ा निकालकर उन्हें थमाया। चपरासी रामदीन अध्यापकों के पीछे खड़ा हो गया।

    वहाँ ‘जनगण मन' हो रहा है क्या भाई! सड़क पर घूम रहे लड़के भी आकर खड़े हो गए।

    “आप तो साक्षात न्यायमूर्ति हैं सर!” फिर वही समवेत स्वर गूँजा।

    तो आप लोग सुनें! मुझे इस बात की बहुत शिकायत है कि यहाँ कोई क्लास नहीं लेता। दूसरी बात यह कि आप लोग पेट्रोल और मिठाइयों पर बहुत ज़ियादा पैसा फूँकते हैं। थोड़ा मितव्ययिता से काम लें। लेकिन, साथ ही मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि इधर मेरे विभाग ने समूचे हिंदी जगत से ज़ियादा पुस्तकें लिखी हैं। लोगों में पढ़ने-लिखने की रुचि बढ़ रही है। यह अच्छी बात है। बस यही कामना है कि आप लोग बनारस और इलाहाबाद के प्रकाशकों से थोड़ा ऊपर उठे। स्तर बढ़ाएँ। और हाँ! इलाहाबाद के ही संदर्भ में एक ज़रूरी बात याद गई। यह देखिए...” उनके हाथ में काग़ज़ का एक टुकड़ा लहरा रहा था, “यह इलाहाबाद हाईकोर्ट का ‘स्टे आर्डर' है। इंटरव्यू स्थगित किया जा रहा है।”—और वे जल्दी से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे में चले गए।

    “अरे यह क्या हो रहा है! उपाध्याय जी के मुँह से झाग क्यों निकल रहा है? आँखें उलट गईं। मिर्गी का दौरा है! जूता सुँघावो!!” चारों ओर खलबली मच गई। जनार्दन प्रसाद ने मंदी के दिनों में शेयर बेचकर किताबें छपाई थीं। सत्यानाश! गुड़ गोबर!! “पकड़ो साले को! भागने पाए!”—ललकारते हुए रामकरन राय आचार्य चूड़ामणि के पीछे-पीछे लपके।

    जम्मू, चंडीगढ़, दिल्ली और लखनऊ। चार-चार विश्वविद्यालयों से आई थीसिसों का मौखिकी लेना है। हवाई यात्रा का टिकट पहले से बुक है। चूड़ामणि जी ने पंद्रह दिन की ड्यूटी लीव ली। टैक्सी पकड़कर सीधे बाबतपुर पहुँच गए।

    इसी बीच आचार्य के इकलौते श्रवणकुमार के एम.एम. अंतिम वर्ष का रिज़ल्ट आया। पिछले सारे आचार्य पुत्रों का रिकार्ड ध्वस्त करता हुआ वह अस्सी प्रतिशत अंक पाया। अध्यापक संघ की आपात बैठक में जनार्दन प्रसाद राँड़ औरतों की तरह विलाप कर रहे थे—“यह आदमी शुरू से ही अध्यापक विरोधी रहा है। अब उसके लड़के का अस्सी प्रतिशत अंक!” अध्यापक संघ के तीनों प्रत्याशी ब्राह्मण हैं—“अगर फिर भी आप लोग कुछ नहीं करेंगे तो मैं आमरण अनशन पर बैठूँगा।”

    “हम करना तो बहुत कुछ चाहते हैं अध्यक्ष महोदय चिंतित और असमंजस में हैं—“लेकिन इसमें क्या किया जा सकता है? मामला कोर्ट का है।

    क्यों नहीं कर सकते! हिंदी में कहीं अस्सी प्रतिशत” अंक आते हैं? रामकरन राय चीख़ रहे थे—“इसी अपने पुत्र के लिए इस आदमी ने बारह साल से ये जगहें रोक रखी है। लड़का तीन साल इंटर में फेल हुआ।

    अध्यापक संघ के अध्यक्ष मिश्रा जी की बहु इसी साल इतिहास में पचासी प्रतिशत अंक पा चुकी हैं। उन्होंने सभा के सामने हाथ जोड़कर अनुरोध किया—“हम लोगों को शोभा नहीं देता कि आपस के झगड़े में बहू—बेटियों या पुत्रों को घसीटें।

    कुलपति ने डीन सिनहा जी को बुलाकर पूछा कि अचानक यह सब कैसे हो गया?

    मैं कुछ नहीं कर सकता सर!” डीन ने असमर्थता प्रकट की, “यह आदमी बहुत जालिया है।

    अच्छा आप ऐसा करें कि उनके आते ही मेरे साथ मीटिंग रखें। मैं नोटिस टाइप करा दे रहा हूँ। लड़कों का प्रतिनिधिमंडल रोज़-रोज़ ज्ञापन दे रहा है। ज़िंदाबाद, मुर्दाबाद हो रहा हैं कोर्ट के मामले में तो कुछ नहीं हो सकता, लेकिन यह अस्सी प्रतिशत वाली बात पूछकर आप कार्रवाई करें।”—वी.सी. न्यायप्रिय छवि वाले सख़्त व्यक्ति हैं।

    हवाई यात्रा की थकान थी। फिर भी कुलपति का पत्र पाते ही आचार्य उनसे मिलने गए। डीन सिनहा जी वहाँ पहले से मौजूद थे। थोड़ी देर तक फ़ाइलों को पलटते रहने के बाद वी.सी. ने औपचारिक शुरूआत की, “आपकी यात्रा कैसी रही आचार्य जी?

    “ठीक थी सर!”—आचार्य चूड़ामणि दाँत खोद रहे थे—“दिल्ली गया था। सोचा यू.जी.सी. भी हो लूँ, आपके ‘एक्सटेंशन' की बात चल रही थी सर!

    “हाँ भाई, दिल्ली के मारे तो मैं भी बहुत परेशान हूँ। यहाँ के एम.पी. त्रिपाठी जी ने संसद में क्या तो प्रश्न पूछा है कि आपके लड़के को हिंदी में अस्सी प्रतिशत अंक मिले हैं। सब लोग जाँच कराने की बात कर रहे हैं। यहाँ लड़के भी रोज़ जुलूस लेकर आते रहते हैं। वाइस चांसलर ने सीधे-सीधे बात शुरू की।

    चूड़ामणि जी मुस्कुराए, “धरना-प्रदर्शन ही तो हमारा जनतंत्र है सर!

    अस्सी प्रतिशत अंक हिंदी में!”—डीन सिनहा जी ने सख़्त एतिराज़ जताया—“सुना है, वह प्रीवियस में सेकेंड डिवीज़न पास था।” उन्होंने वी.सी. से मुख़ातब होकर कहा—“सर! एम.पी. त्रिपाठी जी ने लोकसभा में कहा है कि रामचंद्र शुक्ल को भी इतने नंबर नहीं मिले थे। पूरे देश में विश्वविद्यालय की छीछालेदर हो रही है सर!

    वी.सी. तक तो सही है! यह डीन बहुत गटर-पटर बोल रहा है—आचार्य ने सोचा और मुस्कुराए, “देखिये सिनहा जी, आप भूमिहार हैं...

    उनका वाक्य पूरा होने से पहले ही डीन उछल पड़ा, “आप यहाँ जाति-बिरादरी की बात क्यों उठा रहे हैं।

    “आप पहले शांत होकर मेरी पूरी बात सुनें! और चीख़ना-चिल्लाना मुझे भी आता है”—ग़ुस्से में चूड़ामणि जी के दोनों नथने मरकहे बैल की तरह फड़कने लगते -हुःहुः—“क्योंकि यह मूल सत्य है कि आप भूमिहार हैं। इस धरने प्रदर्शन में आधे लड़के भूमिहार, आधे ब्राह्मण और दो-चार कम्युनिस्ट हैं। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि ये लड़के धरने से पहले और उसके बाद आपके घर क्या करने जाते हैं! रही बात त्रिपाठी एम.पी. की, तो वह निरा बेवक़ूफ़ है। हिंदी की इतनी पवित्र संस्था का नाश उन्हीं दोनों भाइयों ने किया है। उस गधे को यह भी नहीं मालूम कि आचार्य शुक्ल इंटर फेल थे। उनका एम.ए. में अस्सी प्रतिशत अंक कैसे आएगा?

    यह आदमी तो एकदम बेलगाम है, वी.सी. ने सोचा—इस पर कार्रवाई करनी ज़रूरी है—और बोला—“आप विश्वविद्यालय में जातिवाद की राजनीति करते हैं। सुना है, अध्यापकों पर हुए हमले में भी आपका हाथ है”—वी.सी. का लहजा बेहद तल्ख़ और सख़्त था।

    आचार्य के सामने आज तक किसी ने इस अंदाज़ में बात करने की जुर्रत नहीं की थी। वह कुछ क्षण तक शांत होकर कुलपति के चेहरे की और देखते रहे और फिर मुस्कुराते हुए ठंडे स्वर में बोले, “आपने और क्या-क्या सुना है मेरे बारे में? लोग तो बहुत कुछ कहते हैं। आपके पहले भी एक कुलपति थे। जूते की माला पहनकर गए थे यहाँ से। लोग चुग़लखोर हैं। कहते हैं, कि वह सब मैंने ही किया-किराया था। जबकि बात बस इतनी थी कि प्राचीन वाङ्मय, वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति के बारे में मेरी आस्थाएँ उनसे मेल नहीं खाती थीं।

    कुलपति ने देखा, अनेक किंवदंतियों और क्षेपक कथाओं से मिथक बन चुके महानायक आचार्य चूड़ामणि मुस्कुरा रहे थे, भय से उसका चेहरा पीला पड़ गया। आचार्य को दया गई, बोले, “वी.सी. साहब, मैं आपका बहुत आदर करता हूँ। बावजूद इसके कि मैं हिंदी विभाग का अध्यक्ष हूँ। ‘डीन ऑफ़ स्टूडेंट्स' भी हूँ। और आपने बिना मुझे विश्वास में लिए हिंदी विभाग का इंटरव्यू ‘फिक्स' कर दिया था। मैं जानता हूँ कि आप अत्यंत शालीन, मितभाषी और न्यायप्रिय व्यक्ति हैं और यह भी जानता हूँ कि मानव संसाधन मंत्रालय का मुख्य सचिव आपका साढू है। लेकिन क्या बात है कि यहाँ इस बनारस विश्वविद्यालय में आज तक कोई राजपूत वी.सी. नहीं हो सका है। मैं जातिवाद को देश के लिए कैंसर से कम घातक नहीं मानता। आप चाहें तो जाँच आयोग बैठा दें। लेकिन किसी परीक्षक की जाँची कापी को कोई न्यायाधीश कैसे जाँच सकता है? जनतंत्र में अलग-अलग संस्थाओं की अपनी स्वायत्तता, हैसियत और गरिमा होती है। आपको कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए कि यह पवित्रता नष्ट हो। किसी को यह कहने का अवसर मिले कि आप बाह्मण और भूमिहार लॉबी के दबाव में हैं। आगे आपकी जैसी मर्ज़ी।”—कहकर आचार्य चूड़ामणि अचानक उठे और वी.सी. लॉज से बाहर निकल गए।

    बाहर चारों ओर रेलमपेल था। धरना, प्रदर्शन और अनशन करने की धमकी। उस दिन दोपहर को जब सुबोध मिसिर कैफ़ेटेरिया से चावल और कुम्हड़े की तरकारी खाकर चले जा रहे थे, उन्होंने देखा कि कृषि विज्ञान संकाय वाले चौराहे पर एक लड़का फटा कुर्ता, पाजामा और हवाई चप्पल पहने उजबक की तरह चारों तरफ़ देख रहा है। विशालकाय इमारतों और एक-दूसरे को काटती आगे चली जा रही चिकनी, चौड़ी सड़कें। सड़कों के ऊपर झुक आए आम, अमलताश, शीशम और सागौन के पेड़ों की घनी छाँव में शायद वह रास्ता भूल गया है। सामने से अध्यापक संघ का विशाल जुलूस चला रहा था। वे लोग पता नहीं किस बात पर बेहद उग्र और उत्तेजित थे। लड़का दोनों हाथ उठाकर उन्हें रोकना चाहता है। जब वे लोग नहीं रुकते तो वह दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता है, “गुरुजनों, बस इतना ही याद है कि मैं बारह साल पहले यहाँ आया था। मैं कहाँ का रहने वाला हूँ? मुझे अपने गाँव का नाम और बाप की शक्ल भूल चुकी है। मैं भूखा हूँ। कई दिनों से मुझे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला है। यह देखिए... उसने कुर्ता उठाया और अपना पेट दिखाने लगा। वहाँ काग़ज़ के कुछ मैले-कुचैले टुकड़े बँधे थे—ये मेरी मार्कसीटें हैं। चरित्र प्रमाण पत्र है। मैं भूखा हूँ और अपने गाँव जाना चाहता हूँ गुरुजनों, मुझे मेरे गाँव का रास्ता बता दीजिए, वहाँ मेरी माँ खाना बनाकर खोज रही है।” वह चीख़ रहा था। भीड़ उसे कुचलते हुए आगे बढ़ गई। किसी ने उसका कुर्ता नोच लिया यह घर में पोंछा लगाने के काम आएगा।

    चौराहे के दूसरी और से छात्र संघ का जुलूस चला रहा था। वह लड़का सड़क के बग़ल की नाली में गिर पड़ा था। अचानक उसे फिर कुछ आवाज़ सुनाई पड़ी तो दौड़कर आया और सड़क पर दुबारा खड़ा हो गया। कुर्ता ग़ायब था। चप्पल का फीता टूटकर दूर कहीं छिटक गया था। लेकिन वह दोनों हाथों से अपने पेट पर बँधे काग़ज़ों को कसकर पकड़े था। “भाइयों रुकिए।—वह फिर चीख़ने लगा—“मुझे मेरे घर का पता बता दीजिए। वहाँ जाड़े की गुनगुनी धूप में दीवार के सहारे बैठी मेरी पत्नी नए धान का चावल पछोरती थी। मेरे बाप ने बचपन में ही मेरी शादी कर दी अब मेरा बेटा बड़ा हो गया है और मुझे बुला रहा है। मैं उसे देखना चाहता हूँ।” जुलूस में लड़के अपनी ही धुन में नारे लगाते, बहुत ग़ुस्से में जाने किसे, शायद ख़ुद को ही गालियाँ देते उसे लँगड़ी मारकर आगे बढ़ गए।

    सुबोध मिसिर ने लड़के को देखा। उन्हें लगा कि यह कोई स्वप्न है। जैसे स्वप्न में कोई अपने को अपने से थोड़ा दूर खड़ा होकर देखता है ठीक उसी तरह। उन्हें दया आई। वे उसे पकड़कर कुछ पूछना और बातें करना चाहते थे। उन्हें अपनी ओर आता देखकर वह लड़का बहुत तेज़ भागा और जाकर विश्वविद्यालय के सबसे ऊँचे गुंबद पर चढ़ गया।

    सुबोध मिसिर ने देखा, गुंबद के ऊपर जो त्रिशूल चमक रहा है उसी पर मज़े से बैठा वह लड़का बानर की तरह उछल-कूद कर रहा है। सूरज तप रहा था। सुबोध मिसिर ने ज़ोर से पूछा, “तुम क्या चाहते हो भाई? मैं तुम्हें तुम्हारे गाँव पहुँचा दूँगा। मुझे तुम्हारे घर का पता मालूम है।

    लड़के ने कहा, “लेकिन अब वहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता। क्योंकि मैं भी किसी को नहीं पहचान पाता। वहाँ जाकर मैं क्या करूँगा?

    तो फिर तुम क्या चाहते हो?” सुबोध ने पूछा।

    “बताऊँ?” लड़का बहुत ज़ोर से हँसा। “मैं ताजमहल में अपनी प्रेमिका के साथ एक पूरी रात हनीमून मनाना चाहता हूँ। पता नहीं कहाँ चली गई मेरी प्रेमिका? क्या तुम मुझे मेरी प्रेमिका से मिला दोगे? क्या तुमने अभी तक ताजमहल भी नहीं देखा है? ...अच्छा तो सुनो! मैं अपने बेटे के साथ नादिरशाह के सामने ख़ूब ज़ोर से हँसना चाहता हूँ। मेरे बेटे का कैरमबोर्ड नादिरशाह चुरा ले गया। अच्छा तुम गाँधी जी को बुला दो। वे उसे अपने खड़ाऊँ से मारेंगे।

    सुबोध मिसिर किंकर्तव्यविमूढ़ उसे देख रहे थे।

    “ख़ैर तुम जाओ!” उसने वहीं से चिल्लाकर कहा, “मैं अब यहीं रहूँगा। इसी त्रिशूल पर। मुझे यह ऊँचाई अच्छी लग रही है।

    एक दिन लोगों ने देखा कि एक बहुत बड़े देश के राजा ने उसी आदमख़ोर मिसाइल के गले में विजयहार पहना दिया, जिसे वहाँ के बाशिंदों ने बर्फ़ीली हवाओं में भूखे प्यासे सारी-सारी रात जागकर आधी शताब्दी से रोक रखा था। पूरी दुनिया तमाशबीन की तरह यह दृश्य देखकर भौंचक रह गई। एक डरावनी और काफ़ी गुफ़ी की तरह मुँह बाए वह आदमख़ोर मिसाइल एक नगर से दूसरे नगर, एक देश से दूसरे देश तक घूमने लगी। उसने लोगों के सपने, जीने का अंदाज़ और ज़रूरतों की फेहरिस्त बदल दी। दिन, महीने और वर्ष बीतते रहे। समय गुज़रता रहा। युग बदला। इस तरह बदला कि जो लोग निरंतर रात-दिन उसे बदलने के लिए बेचैन रहते थे वे भी दुःख और शोक से भर गए। इसी बीच सुबोध मिसिर की थीसिस पूरी हुई। वे डॉक्टर सुबोध मिसिर हो गए।

    एक दिन सुबह-सुबह वे कैंटीन के सामने चाय पी रहे थे। उन्होंने देखा कि आसपास बैठे लड़के रात टी.वी. पर रोमांचक मैच के बारे में उत्तेजक बहसें कर रहे हैं। सामने सड़क पर एक जवान और सुंदर लड़की नशे की सी हालत में लंगड़ाती और सहमी हुई सी भागी चली जा रही थी। पता लगा कि वह गुजरात से अपने प्रेमी के साथ बनारस घूमने आई थी। तीन दिन से भूखे-प्यासे छात्रावास के एक कमरे में बंद करके पाँच लड़कों ने उसके साथ निरंतर 'रेप' किया था। निष्प्राण घटनाओं और सनसनीखेज सूचनाओं का यह रीतिकाल था। थोड़ी दूर आगे मात्र दस क़दम की दूरी पर एक छोटा का कम्प्यूटर रखा हुआ था। किसी दूर उपग्रह से संचालित। कम्प्यूटर का शेष पिछला हिस्सा अँधेरे में डूबा हुआ था। तेज़ लाइट में चमकते स्क्रीन पर उस समय एक लड़की मुस्कुरा रही थी—किसी सुदूर अतीत या पौराणिक आख्यानों में चमकती लड़की की हँसी—एक तिलस्मी करामात की तरह उसके चारों और लहरा रही थीं चमकीली पैकिंगे। उनमें भरा था मिस यूनीवर्स का गोपन रहस्य, मादक पेय, क्रीम और बच्चों की चाकलेटें, औरतों के सिंदूर, मित्रों की शुभकामनाएँ, नए साल का संदेश और भूसा और गोबर। अपनी ज़रूरतों से ऊबे लोगों की भीड़ एक जादुई कुतूहल से बेक़ाबू उस लड़की के उन्नत उरोजों और चिकनी जाँघों में धँसी चली जा रही थी। उस समय नशे की सी हालत में लंगड़ाती भागती लड़की के होंठ भय से काले पड़ गए थे। वह कम्प्यूटर के पिछले हिस्से में, जहाँ गाढ़ा अँधेरा फैला हुआ था, जाकर विलीन हो गई। उसकी आख़िरी चीख़ एक सुरीली और लयात्मक पीऽऽ-पीऽऽ के साथ स्क्रीन पर दो सेकेंड तक उभरकर बंद हो गई। वहाँ रात के मैच का शेष भाग फिर शुरू हो गया।

    आचार्य चूड़ामणि जी विभाग से रिटायर होने के दो महीने बाद दूसरे विश्वविद्यालय में कुलपति बना दिए गए। उनका इकलौता श्रवणकुमार, बक़ौल सारे शहर जिसे एक वाक्य शुद्ध हिंदी लिखनी नहीं आती थी वह, मरुधर विश्वविद्यालय के फाटक से होता हुआ पाँच साल बाद उसी हिंदी विभाग में रीडर बना दिया गया। उत्तराधिकार के इस महोत्सव में विश्वविद्यालय की राजपूत लॉबी ने उसका अभिनंदन किया। इस नियुक्ति के समय भी सिनहा जी डीन थे। भूमिहार लॉबी ने बहुत कोशिश की लेकिन उन्होंने आचार्य चूड़ामणि से अपने संबंधों को जातिगत रागद्वेष से ऊपर उठकर देखा। उन्होंने गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार किया कि इकलौते पुत्र का वृद्ध पिता के पास रहना ही ज़रूरी है। इस नियुक्ति के ठीक एक महीने बाद आचार्य चूड़ामणि ने यह सोचकर कि किसी का क़र्ज़ लेकर मरना राजपूती आनबान के ख़िलाफ़ है, उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में डीन सिनहा जी की पुत्रवधू को अंग्रेज़ी में लेक्चरर बना दिया।

    अपने गुरु के योग्य शिष्य सुबोध मिसिर नगर में दर-दर भटकते रहे। वे रात के अंधेरे में बैठकर नीतिवाक्य लिखा करते। उनके साथ के सारे छात्र, जिनसे उनकी नोक-झोंक चला करती थी, जो उन्हें यथास्थितिवादी कहकर क्रांति और परिवर्तन की बात किया करते थे, वे सबके सब एक-एक कर विश्वविद्यालयों, डिग्री कॉलेजों और अख़बार के दफ़्तरों में जाकर चूड़ामणि जी का जूठन बटोर रहे थे। इधर सुबोध मिसिर विश्वविद्यालय के नए लड़कों के बीच अजूबे बनते जा रहे थे। वह सबसे कहा करते कि विरोध में उठा एक हाथ, पक्ष में उठे करोड़ों हाथ से महत्वपूर्ण होता हैं वे इस विरोध की व्याख्या नहीं करते थे और अकसर चुप लगा जाते। आचार्य जी हर पंद्रहवें दिन बाद किसी किसी नियुक्ति में एक्सपर्ट होते। हर बार वे दृढ़ प्रतिज्ञ होकर जाते कि इस बार अपने प्रिय शिष्य सुबोध मिसिर की नियुक्ति ज़रूर कर देंगे। लेकिन उनके मानवीय दायित्व बोध और न्यायोचित चेतना को किसी मंत्री, विधायक, किसी भूतपूर्व विभागाध्यक्ष या समकालीन प्रोफ़ेसर का सिफ़ारिशी पत्र हर बार पथ-भ्रष्ट कर देता। वे रोज़-रोज़ पथ-भ्रष्ट होते रहे। एक दिन अपनी पुत्रवधू की नियुक्ति के लिए दिल्ली की एक महिला प्रोफ़ेसर के पैरों पर गिर पड़े। नियुक्ति नहीं हुई। लोगों को उनके इस अपमान की उम्मीद नहीं थी। सबको लगा कि कहीं अबकी बार गंभीर हार्ट अटैक हो जाए। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उनके दरबार में लोगों की आमद ख़त्म हो गई। वे बिना बुलाए शहर और विश्वविद्यालय की हर सभाओं, समारोहों में पहुँचकर अपने को मंच पर बुलाए जाने की प्रतीक्षा किया करते और ऊँघने लगते। गोष्ठी, समारोह ख़त्म हो जाते। वे चुपचाप अकेले टहलते हुए अपने घर चले आते।

    इधर गाँव में सुबोध मिसिर की बेटियाँ बड़ी हो रही थीं। पत्नी के दाँत हिलने लगे थे। हर फ़सल कटने के बाद खेती पर पानी, बिजली और लगान के कुछ कर्ज़े बढ़ जाते। उन्होंने एक पर एक तीन एकड़ खेत बेच डाले। अंत में गाँव के एक बुज़ुर्ग ने समझाया कि “भाई सुबोध, कब तक नौकरी खोजते रहोगे? यह खेत तुम्हारी कमाई नहीं हैं जो बेचे जा रहे हो। कल लड़कियों की शादी करनी पड़ेगी।

    तीन दिन से भूखे-प्यासे सुबोध मिसिर ने एक दिन अंतिम रूप से गुरुदेव के चौखट पर मत्था टेका। “बेटे सुबोध, मुझसे तुम्हारी दशा देखी नहीं जाती”—गुरुदेव ने कहा और रोने लगे।

    “कोई बात नहीं गुरुदेव! मैं कुछ माँगने नहीं, आज्ञा लेने आया था। घर जा रहा हूँ”—उन्होंने शहर के बीचोंबीच थूका और गाँव चले गए।

    पाँच साल से गाँव में रहते हुए सुबोध मिसिर को सिर्फ़ यूरिया का दाम, बिजली के बिल, गेहूँ, धान और ईख का भाव याद रह गया था। अलंकार, छंदशास्त्र, रस यहाँ तक कि तुक और विचार आदि की मर्यादा तोड़ता हिंदी कविता का प्रवाह आधुनिकता, मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद आदि को अप्रासंगिक क़रार देता हुआ इन दिनों उत्तर-आधुनिकता और विखंडनवाद के समीक्षा सिद्धान्तों से अपनी संगति बिठाने का जोड़तोड़ कर रहा था। सुबोध मिसिर ने सुना कि आज पूरा विश्व एक गाँव बनकर रह गया हैं संचार माध्यमों की अचूक पकड़ से कोई व्यक्ति बाहर नहीं है। वे यह सब सुना करते और देखते कि सैकड़ों सुरक्षा गार्डों के बीच प्रधानमंत्री माँस के निर्जीव लोथड़ों में बिखर जाता है। हज़ारों जासूसी कुत्ते पाँच साल से हत्यारे की छाया सूँघते घूम रहे हैं। अजीब-ओ-ग़रीब विरोधाभासों और विडम्बना का दौर जारी है। पुरातत्व विभाग के संग्रहालय और अजायबघर की दीवारों पर कालिदास, भवभूति, सूर, तुलसी और कबीर की पाण्डुलिपियाँ मरे शेरों की खाल की तरह टँगी हैं। शब्द अप्रासंगिक हो गए हैं। कविता और इतिहास का अंत हो गया हैं यह सब सुबोध मिसिर अख़बारों में पढ़ रहे थे और देख रहे थे कि यहाँ गाँव में अब भी औरतें शादी, समारोह में, छठ और मुंडन के अवसर पर उसी तरह फटी साड़ियाँ और लुगदी पेटीकोट लपेटे गीत गाए जा रहे हैं। ठंड में काँपते-ठिठुरते धरने और प्रदर्शन पर जाते हुए लोग कबीर के निर्गुण और तुलसी की चौपाइयाँ सुन-सुना रहे हैं। नारे लगा रहे हैं। वह अकसर सोचा करते कि संचार माध्यमों ने जिस दुनिया को एक गाँव में बदल दिया है उस गाँव के नक्शे में यहाँ की औरतें और लोगों की कोई सूरत और ज़रूरत क्यों नहीं दिखाई देती? कुएँ में गिरे बैल को निकालने वे लोग क्यों नहीं आते जो मुँह में भोपा बाँधकर हमें अपने गाँव का बाशिंदा बताते हुए रोज़-रोज़ चीख़ रहे हैं एक दिन उन्होंने देखा कि एक मज़दूर नेता की, जो लोककथाओं की तरह प्यारा और ख़ूबसूरत था, एक उद्योगपति और शराब के ठेकेदार ने मिलकर हत्या कर दी। आज उसी उद्योगपति ने हिंदी का सबसे बड़ा पुरस्कार सबसे बड़े जनवादी और मानवतावादी साहित्यकार को दिया है। फ़्लैश चमक रहे हैं। फ़ोटो खींचे जा रहे हैं। विचार, आदर्श और नैतिकता बेमानी। यहीं है उत्तर आधुनिकता का ख़ूबसूरत मॉडल। एक युवा मज़दूर की विधवा ने जिस सहायता राशि पर थूक दिया उसी के सूद से हिंदी का सबसे बड़ा पुरस्कार सबसे बड़ा जनवादी साहित्यकार ले रहा है। बेशर्मी की हद है।

    ठीक इन्हीं दिनों उन्हें पंजाब के एक विश्वविद्यालय से लेक्चररशिप का इंटरव्यू देने के लिए एक रजिस्ट्री पत्र आया था। तीन दिन पहले। आज जब वे खेत से आकर बैलों को भूसा-दाना कर रहे थे तभी उनकी बड़ी वाली बेटी ने उन्हें एक दूसरा पोस्टकार्ड दिया।

    यह आचार्य चूड़ामणि का पोस्टकार्ड था। गुरुदेव मुझे अब भी भूले नहीं हैं—यह सोचकर ही सुबोध मिसिर की आँखे छलछला गईं। कुशलता की कामना के साथ गुरुदेव ने लिखा है कि “अगर तुम्हें फ़ुर्सत हो तो यहाँ चले आओ। पंजाब की यात्रा करनी है। बूढ़ा हो गया हूँ। अकेले यात्रा संभव नहीं है। और अब यहाँ कोई इतना विश्वसनीय नहीं जिसके भरोसे इतनी दूर जाया जा सके।

    वही तारीख़! वही जगह! लग रहा है इस इंटरव्यू में गुरुदेव ही एक्सपर्ट हैं—सुबोध मिसिर ख़ुशी से क़रीब-क़रीब काँपने लगे—शायद अब मेरे दुःखों का अंत होने वाला है। ठीक पंद्रह दिन बाद उन्होंने रामधारी साहु से हज़ार रुपये उधार लिए और गुरुदेव के चौखट पर हाज़िर हो गए।

    सुबोध ने देखा, अपने घर के बाहरी हिस्से में, जहाँ कभी गाड़ी खड़ी रहती थी वहीं एक टूटी और धँसी चारपाई पर गुरुदेव मैली-कुचैली सी चीकट रज़ाई ओढ़कर बैठे हैं। जगह-जगह से फटी बेडशीट नीचे तक झूल रही है। सर्दी का मौसम था। गुरुमाता चारपाई पर पाताने सिकुड़कर बैठी थीं। एक गठरी हो चुकी गुरुमाता। जब सुबोध वहाँ पहुँचे तो गुरुदेव के चेहरे पर हल्की और थकी मुस्कुराहट फैल गई। उन्होंने कोने में रखे पुराने स्टूल की ओर इशारा करके बैठने के लिए कहा। “गुरुदेव आप यहाँ?”—सुबोध ने जगह-जगह से फटी दीवारों वाले गैरजे में लावारिस की तरह पड़े गुरुदेव को देखकर आश्चर्य और करुणा से भरकर पूछा। दीवारों और छत पर वर्षों पुराने मकड़ी के जाले लटक रहे थे। चारों और गंदगी थी।

    “हाँ, अब मेरे लिए यही जगह उपयुक्त है। उत्तराधिकार सौंप देने के बाद राजा के लिए जंगलवास ही उचित रहा है।”—बोलते हुए चूड़ामणि जी के शब्द, जो कभी नाभि की ओंऽम ध्वनि की तरह थरथराते हुए निकलते थे, आज जैसे आँखों से भीगकर रेंग रहे थे। पंख फड़फड़ाने की कोशिश में गौरय्या के बच्चों की तरह मुँह के बल गिर-गिर जा रहे गुरुदेव के शब्द—“इधर अब थोड़ा एकांत रहता है”—उन्होंने कहा।

    घुटनों में मुँह ढाँपे गुरुआइन अचानक फफक पड़ी, “बहू उधर जाने नहीं देती। बेटा मउगा है। बात-बेबात झिड़कता रहता है। अब तुम्हारे बाबूजी गठिया के मारे चल नहीं पाते। दो मील पैदल जाकर होमियोपैथ की दवा लाती हूँ। दिन भर के लिए आधा किलो दूध! बेटा, तुमने तो देखा ही है! पाँच-पाँच किलो दूध का चाय बनाती रही हूँ। आज बूढ़ापे में अपनी थाली अपने हाथ धोओ! गिनी हुई रोटियाँ और मुट्ठी भर चावल!

    “चुप रहो भागमान।”—आचार्य ने पत्नी को संतोष दिलाया और पूछा, “बेटे सुबोध! तुम कैसे हो? घर में बाल-बच्चे? और बहू कैसी है?

    “सब ठीक है गुरुदेव। लेकिन आप यहाँ! और इस तरह?

    “नहीं, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है। पत्नी अपनी आदत से लाचार है। बहू से नहीं पटती। ख़ैर छोड़ो! मुझे यहाँ बहुत सुख है।

    सुबोध ने देखा था वह दिन कालीन के चारों तरफ़ बिछी कुर्सियाँ। स्वयं तख़्त के मोटे गद्दे पर मसनद के सहारे अधलेटे आचार्य चूड़ामणि का व्यक्तित्व। हिंदी जगत का यह प्रचंड सूरमा शत्रु शिविर में ऐरावत की तरह, अपने सामने डीन, वाइस चांसलर या अंत्री मंत्री किसी को कुछ नहीं समझता था। सूर पंचशती समारोह का विराट समागम! देश के कोने-कोने से आए मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र से लेकर संरचनावादी समीक्षा सिद्धान्तों के पचासों विद्वान, सबके बीच दिप-दिप करता आचार्य का अपना प्रभामंडल! सभी उनके सामने दंडवत थे। किसी को थीसियों का परीक्षक बनना था तो किसी को अपनी किताब पाठ्यक्रम समिति से पास करानी थी। किसी को बहू की नियुक्ति चाहिए, तो किसी को यू.जी.सी. की ग्रान्ट। आज वही गुरुदेव लावारिस की तरह अपने ही घर के एक कोने में खो गए—सुबोध मिसिर भौंचक थे।

    “अच्छा तुम ऐसा करो कि मुमुक्ष भवन में जाकर ठहर जाओ”—आचार्य ने कहा—“कल सुबह पंजाब मेल से अंबाला तक का रिज़र्वेशन है। वहाँ से बस की यात्रा करनी पड़ेगी।

    “गुरुदेव! मैंने भी उस जगह के लिए आवेदन किया था।” सुबोध ने बताया, “मेरा भी इंटरव्यू लेटर आया है। क्या आपको मालूम है कि दूसरे कौन-कौन एक्सपर्ट हैं?

    अब तक आचार्य जी के मुखमंडल पर शिष्यत्व की जो ममता झलक रही थी अचानक यह सुनते ही कर्तव्यपराणता के बोझ से दबकर कठोर रुख़ बदलने लगी। स्वर मद्धिम हो गया। बोले, “चलो, यह तो बहुत ही अच्छा है। लेकिन तुम यह बात यहाँ किसी से बताना मत। मुझे तुम्हारी बहुत चिंता है।

    गुरुआइन ने कहा, “अब इन्हें कौन पूछता है बेटा! पहले सब लोग यहीं माथा रगड़ते थे। अब इसी शहर में आकर चुप-चुप चले जाते हैं। अगर गोहत्या का भय हो तो लोग बुढ़े बैल को गोली मार दें।

    लखनऊ से अंबाला तक की यात्रा आचार्य ने सोकर पूरी की। दूसरे सारे मुसाफ़िर उनकी नाक की घर-घर और खाँसी के मारे ऊब-ऊब कर करवट बदलते रहे। आँखों के अलावा गुरुदेव के सारे अंगछिद्र मिनट-मिनट पर विस्फ़ोट कर रहे थे। श्रद्धा अतीन्द्रिय नहीं होती। ख़ुद सुबोध को भी दिक़्क़त हो रही थी।

    अम्बाला से बस का सफ़र करते हुए गुरुदेव सुबोध से हिसाब-किताब लेते रहे। खेती में कितना फ़ायदा हो जाता है। हम लोग बचपन में चने का होला खाकर ईख चूस लेते थे। पेट भर जाता था। शहरों में तो बहुत प्रदूषण और मिलावट बढ़ गई है। एक तो बिजली नहीं आती दूसरे बिल बहुत देना पड़ता है ‘महिशंच शरद् चंद्र चंद्रिका धवलं दधिः'। कालिदास ने लिखा है—शरद कालीन चन्द्रमा की चाँदनी की तरह भैंस की सुंदर सजाव दही! पढ़कर लार टपकने लगती। यह सब गाँव में ही संभव है। शुद्ध हवा और बे-मिलावट भोजन।”

    “लेकिन गुरुदेव, गाँव तो नरक हो चुके हैं। खेती की हर फ़सल किसानों को क़र्ज़ में डुबोकर चली जाती है। दो जून के भोजन के अलावा अब वहाँ कुछ भी नहीं है।

    “यह तुम्हारा भ्रम है सुबोध! शहरों के लिए तुम्हारा आकर्षण ठीक है, लेकिन गाँवों के प्रति तुम्हारे विचार अच्छे नहीं है।

    सुबोध ने सोचा—क्यों नहीं आप गाँवों में चले जाते। कौन आपको रोके है। लेकिन गुरुदेव की बात। वे चुप लगाए रहे।

    उतरने वाले स्टेशन के थोड़ा पहले ही चूड़ामणि जी ने सुबोध को हिदायत दी, “तुम पीछे से उतरकर दूसरी ओर चले जाना। वरना, कोई तुम्हें मेरे साथ देख लेगा तो पक्षपात का आरोप लगेगा। लोगे कहेंगे कि 'कैंडिडेट' लेकर आए हैं।

    सुबोध ने कहा, “जैसी इच्छा गुरुदेव!”

    इंटरव्यू बोर्ड में दिल्ली के एक प्रचंड वामपंथी थे और दूसरे राजस्थान के वाममार्गी। तीसरे स्वयं आचार्य चूड़ामणि, जिनके पुत्र को अभी बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनना था। सुबोध मिसिर ने इंटरव्यू बोर्ड में बैठे आचार्य को देखा। निर्वीय पौरुष की समस्त वासना निरीह आँखें में दीन याचना बनकर चुपचाप बैठी थी। वामपंथी आचार्य ने उनसे अलंकार और रीति की सामाजिक और साहित्यिक महत्व पूछा। राजस्थान के वामामार्गी नाथ संप्र्दाई आचार्य ने भाषा विज्ञान का 'ग्रिम नियम'।

    सुबोध मिसिर सवालों का जवाब ठीक से नहीं दे पाए। इंटरव्यू ख़राब हो गया। इसलिए नहीं कि पिछले कई सालों से उनकी पढ़ाई-लिखाई नहीं हो सकी थी, बल्कि इसलिए कि इंटरव्यू का अच्छा या बुरा होना अंततः और एकमात्र एक्सपर्ट पर ही निर्भर करता है। अब उन्हें अपने गुरुदेव आचार्य चूड़ामणि से ही अंतिम उम्मीद थी।

    तुमने तो मेरी सारी उम्मीद पर ही पानी फेर दिया।”—बाहर निकलकर आचार्य चूड़ामणि ने बताया।

    “नियुक्ति किसकी हुई गुरुदेव?” बस अड्डे की ओर लौटते हुए सुबोध मिसिर ने बहुत धीमे और रुआँसे स्वर में पूछा।

    रात हो रही है। चौड़ी और चिकनी सड़कों के दोनों ओर नियान लाइटों और हाइलोजन के पीले प्रकाश में जलपरी की तरह तैरती-भागती कारें। खिलखिलाती लड़कियाँ। समूचा शहर एक नशीले संगीत की लय पर थिरक रहा था। उनका प्रश्न डूब गया था। किसी अदृश्य लोक की स्वप्न सुंदरी ने अपने वैभव का पारदर्शी नीला आँचल बाज़ारों के ऊपर फैला दिया था। पैदल चलते हुए आगे-आगे गुरुदेव और पीछे सुबोध मिसिर। वह अपने गाँव के रामधारी साहु से उधार लिए एक हज़ार रुपए, अपनी पत्नी और जवान होती बेटियों के बारे में सोच रहे थे। कहाँ से चुकाएँगे यह एक हज़ार रुपया। उनका दिल डूब रहा था। गुरुदेव ने बताया, “रजिस्ट्रार की पुत्रवधू की नियुक्ति हुई है। सब कुछ पहले से तय था। कहने को लोग वामपंथी बनते है, लेकिन प्रोफ़ेसरों की एक ही जाति होती है और एक ही विचारधारा। कौन उन्हें परीक्षक बनाकर हवाई जहाज़ का किराया दे सकता है! बस। मैंने बहुत दुनिया देखी है। बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर की नियुक्ति होने वाली है। शायद यही एक्सपर्ट होकर आएँ। इसलिए मैं चुप लगा गया। किसी तरह श्रवण कुमार प्रोफ़ेसर हो जाता।

    अंबाला कैंट तक पहुँचने में रात के नौ बज गए थे। गाड़ी अभी चार घंटे लेट थी। “ए.सी. और फर्स्ट क्लास में मैंने बहुत यात्राएँ की हैं। ऊब और एकांत अब सहा नहीं जाता। देखों, सेकेंड क्लास में रिज़र्वेशन मिल पाता है या नहीं? आचार्य ने सुबोध से कहा, “तुम टी.टी. को बता देना कि बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं।

    कुर्ते के नीचे मारकीन की बनियान। बनियान के भीतर चोरथैली। रामधारी साहु की बनियान की तरह आचार्य की बनियान में भी चोरथैली। ए.सी. का किराया मिला है। लेकिन गुरुदेव ने चोरथैली से निकालकर सौ-सौ के दो नोट सुबोध को थमाए, “सेकेंड क्लास का टिकट ले लेना।

    “अभी गाड़ी आने में बहुत देर है चूड़ामणि जी ने सुबोध से “यहाँ से तीन किलोमीटर दूर तक देवी का मंदिर है, एकदम निर्जन स्थान में। कहा जाता है कि सच्चे मन से वहाँ माँगी गई हर मन्नत पूरी हो जाती है। मुझे तुम्हारी भी बहुत चिंता रहती है सुबोध!”

    शायद गुरुदेव मेरे लिए सोच रहे हैं। अगर कोई गुरु देवी के सामने जाकर सच्चे मन से अपने शिष्य के लिए मन्नत माँगे तो समूचे ब्रह्मांड में इससे पवित्र प्रार्थना और क्या हो सकती है?—सुबोध ने सोचा।

    अँधेरी रात है। निर्जन स्थान। रिक्शा तो मिलेगा नहीं। “लेकिन कोई बात नहीं गुरुदेव! गाँव का रहने वाला हूँ। बोझा ढोने की आदत है। ईंख और ज्वार के बड़े-बड़े बोझ खेत से लेकर आता हूँ। तीन किलोमीटर कोई दूरी नहीं है!”—सुबोध ने कहा और गुरुदेव का भारी होल्डाल और अटैची सिर पर लादकर चल पड़े। अपना झोला उन्होंने गले में लटका लिया।—“आप बस रास्ता बताते जाइए गुरुदेव!”

    एक किलोमीटर बाद शहर ख़त्म हो गया। मुख्य सड़क से हटकर खेतों के बीच एक पगडंडी। दो किलोमीटर और चलना है—गुरुदेव ने कहा, “पता नहीं क्यों मुझे आज बहुत डर लग रहा है।

    गहरी अँधेरी रात थी। सिर पर भारी होल्डाल, अटैची और गले में झोला लटकाए आगे-आगे सुबोध मिसिर और पीछे-पीछे अब भूतपूर्व हो चुके बनारस विश्वविद्यालय के अभूतपूर्व आचार्य चूड़ामणि। उनके पैर बार-बार धोती में फँसकर उलझ जा रहे थे। जाड़े का मौसम था। तेज़ बर्फ़ीली हवा चल रही थी। “लग रहा है शिमला में बर्फ़ गिरी है। इस साल ठंड बहुत पड़ेगी।—कंबल को कसकर शरीर पर लपेटते हुए आचार्य ने कहा।

    “मुझे तो पसीना हो रहा है गुरुदेव!”—सुबोध मिसिर की काँपती आवाज़ होल्डाल के भारी वज़न से दबी जा रही थी।

    “गाँव का आदमी श्रम करता रहता है। कर्मवीर और सच्चा प्रकृति पुत्र। इसीलिए निरोग रहता है। पता नहीं क्यों आजकल लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। मुझे तो गाँव बहुत अच्छे लगते हैं। रिश्तों की आदिम गंध में डूबे गाँव। शहर में तो कोई किसी को पहचानता ही नहीं। चारों ओर मतलब और स्वार्थ!”—गुरुदेव ने कहा।

    बस, बस यही सामने। चारों ओर ईख और धान के कटे खेत। सन्नाटे में डूबा छोटा सा मंदिर। तेलियों के बटखरे की तरह काली और बेढब सी गुप्तकलीन पत्थर की मुर्ति। कोई तराश ना भव्यता। आचार्य ने आँखे बंद की और श्रद्धा से हाथ जोड़ा। “विदेशों में यह करोड़ों की बिकेगी। सरकार को सुरक्षा का इंतिज़ाम करना चाहिए”—गुरुदेव ने चिंता जताई और बताया, “हल जोतते समय खेत के भीतर मिली थी यह मूर्ति।

    गाँव में तो कोई इसका पाँच रुपया भी ना देगा—सुबोध ने आश्चर्य से गुरुदेव को देखा।

    “पहले तुम अपने लिए कुछ माँग लो!” आचार्य ने कहा—“लेकिन पूरे मन से तंमय होकर। स्पष्ट उच्चारण के साथा

    सुबोध हाथ जोड़कर खड़े हो गए, “माँ, मुझे नौकरी चाहिए! हाई स्कूल, इंटरमीडिएट से लेकर बी.ए., एम.ए. किसी भी कक्षा में पढ़ा सकता हूँ। मुझे पढ़ाने की नौकरी चाहिए माँ! मैं गुरु ऋण से उऋण होना चाहता हूँ। सरस्वती का कलंक सिर पर लादे, मैं अपनी समूची आस्था के साथ तुमसे पापमुक्ति की प्रार्थना कर रहा हूँ। मुझे गाँव के अँधेरे नर्क से निकालकर चाहे जहाँ कहीं भेज दो। मैं वहाँ नहीं रहना चाहता। सारा गाँव मेरी पढ़ाई-लिखाई पर हँसता है।

    काली अँधेरी रात। निस्तब्ध सन्नाटा। सुबोध प्रार्थना कर रहे थे। उनके एक-एक शब्द, जैसे चिता में आत्मदाह करती किसी विधवा की चीख़ आग की लपटों में छटपटा रही हो। उनकी आँखों से आँसू छलछला आए थे। उसके बाद आचार्य चूड़ामणि जी मूर्ति के सामने उपस्थित हुए। सुबोध ने सोचा, जो कुछ कसर रह गई होगी मेरे माँगने के ढंग में, उसे गुरुदेव ज़रूर पूरा कर देंगे। वे चूड़ामणि जी के ठीक पीछे निश्चल भाव से खड़े हो गए। भावमग्न।

    आचार्य ने पहले हाथ जोड़ा और फिर आँखें मूंद लीं। तीन-चार लंबी-लंबी साँसें खींची। प्रणायाम की दीर्घ साधना में उन्होंने शब्द को नाभि तक खींचकर थरथराते मन्द्र स्वर में पहले ओऽम का उच्चारण किया। फिर हाथ को माँ के पैरों पर टेक कर ज़मीन पर लेट गए। थोड़ी देर तक एकदम शांत। अचानक उनके गले से रोने की आवाज़ फूटी। सुबोध ने देखा, दुनिया का सबसे दुःखी आदमी माँ के पैरों पर गिरा पड़ा है। करुण हिचकियों में गुरुदेव के शब्द डूब-उतरा रहे थे, “माँ, मेरे बेटे को प्रोफ़ेसर बना देना। हाँ माँ प्रोफ़ेसर! समूचा हिंदी जगह मेरे उपकार के बोझ से दबा है। लेकिन मुझे अब किसी पर भरोसा नहीं रह गया। मेरा दुर्दिन जानकर मेरे ऊपर दया करो माँ!

    यह क्या कह रहे हैं गुरुदेव!—सुबोध मिसिर थरथर काँप रहे थे। कृतघ्नता का यह चरम रूप देखकर वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।

    “अच्छा तो गुरुदेव, प्रणाम!—मैं जा रहा हूँ।

    आचार्य ने सुना और लेटे-लेटे पीठ के बल उलट गए, “मुझे इस तरह यहाँ अकेले छोड़कर सुबोध?” उन्होंने याचना के से स्वर में पूछा।

    “हाँ! इसी तरह। इसी अँधेरे में। यहीं पड़-पड़े रोते रहें। ”सुबोध के हाथ में एक हल्का सा झोला था। वे उसे उँगलियों में नचाते, ग़ुब्बारे की तरह हवा में लहराते चले जा रहे थे।

    अचानक उन्हें अपने पीछे किसी की हिचकियाँ और रोने की आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने मुड़कर देखा। उन्होंने देखा कि सिर पर भारी होल्डाल और अटैची लादे आचार्य चूड़ामणि भागते-भागते गिरते-पड़ते चले रहे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 38)
    • संपादक : उमाशंकर चौधरी-ज्योति चावला
    • रचनाकार : देवेंद्र
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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