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ज़िंदादिल बेढब बनारसी

zindadil beDhab banarsi

अमृतलाल नागर

अन्य

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अमृतलाल नागर

ज़िंदादिल बेढब बनारसी

अमृतलाल नागर

और अधिकअमृतलाल नागर

    मास्टर साहब के दर्शन तो पहले भी कई बार कर चुका था पर उनके निकट आने का सौभाग्य तभी मिला जब कि वे एम० एल० सी० बनकर लखनऊ पधारे। उनके जैसे मेह‌माननवाज़, उदार, हाज़िरजवान और सुलझे विचारो वाले व्यक्ति प्रायः कम ही देखने में आते हैं। मास्टर साहब जब भी बनारस से लखनऊ आते तो अपने साथ मिठाइयाँ अवश्य लाते थे। उनके आने पर 'भ्रमर' सूचना विभाग से फ़ोन करते वंदे, मगदल आए हैं। यह सूचना पाने के बाद हम लोग शाम के समय विधायक निवास में मास्टर साहब के कमरे पर पहुँचने का समय अपने-आप ही साध लिया करते थे। भगवती बाबू ज्ञानचंद जैन, भ्रमर और मैं—प्रायः यही चार जन मिलकर निष्ठापूर्वक मिठाइयाँ का क्रिया कर्म कर डालते थे। सर्दी के मौसम में उन्होंने कई वार स्वयं मटर-चिउड़ा बनाकर हम लोगो कों खिलाया।

    बातों के तो वे रत्नाकर थे। हल्की-फुल्की फुलझड़ियों से लेकर गंभीर साहित्यिक चिंतन तक उनकी विचारधारा सदा एक सी प्रवाहित होती थी। लाला भगवानदीन, जयशंकर प्रसाद, अपने चाचा रामदास गौड़, प्रेमचंद आदि पुराने दिग्गजों के संस्मरण प्रसंगवश वे ख़ूब सुनाया करते थे। वे छायावाद के प्रारंभिक पक्षधरों में रहे थे, और प्रसाद, पंत, निराला की कविताओं पर—अक्सर बड़े धार्मिक गंतव्य प्रकट किया करते थे। जहाँ तब मुझे मालूम है उन्होंने आरंभ में लाला भगवानदीन 'दीन' जी में छंदशास्त्र और रीतिकालीन कविता का अध्ययन भी किया था। 'छायावाद' या अपने समय की नवीन काव्यधारा के पोषक होते हुए भी वे पुरानी कविता के निंदक नहीं थे। गद्य साहित्य के अध्ययन में भी उनका वैसा ही चाव था। हालकेन, टॉमस हार्डी विक्टर ह्यूगो, तोल्सतोय, दोस्तोयेव्स्की और गोर्की आदि प्राचीन लेखकों से लेकर आधुनिक लेखक गिन्सवर्ग और जेंस कार्वक तक की रचनाएँ उन्होंने पढ़ी थी।

    उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि साहित्य के नए से नए स्वर को सुनने-समझते और उसकी ख़ूबियों की सराहना करने में अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे कभी पुराने पड़े। यह विशेषता बहुत ही कम लोगों में पाई जाती है। आमतौर से चालीस की उम्र के बाद लोग अपने आगे के 'नयो' को गंभीरता-पूर्वक समझे बिना ही उनके कटु आलोचक बन जाते हैं। मास्टर साहब आज की 'नई कविता' पर अपने विचार प्रकट करते हुए कटु नही होते थे। उन नए कवियों को भी, जिनकी रचनाएँ वे हज़म नहीं कर पाते थे, कभी कटु दृष्टि से देखते, यदि तपते तो उनका तेज़ व्यंग्य फूटता था अन्यथा उन पर उनकी नज़र ठीक ऐसे मास्टरनुमा ही होती थी जो अपन दगई विद्यार्थियों को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समझने का प्रयत्न करता है।

    मास्टर साहब उर्दू काव्य के भी बड़े सर्मज्ञ थे। उन्होंने ग़ालिब की कविताओं का गहरा अध्ययन किया था। हाज़िरजवाबी में तो उनका कोई सानी ही था। बहुत पहले की बात है। तब शायद वे एम० एन० सी० नहीं हुए थे, हिंदी साहित्य सम्मेलन में आयोजित 'लिपि सुधार गोष्ठी' में भाग लेकर वे इलाहाबाद से कार्यवशात् लखनऊ पधारे थे, पंडित श्रीनारायण जी चतुर्वेदी के मेहमान थे। उस दिन मास्टर साहब ने लिपि सुधार गोष्ठी की ऐसी सुंदर रिपोटिंग की कि हँसते-हँसते हमारे पट में बल पड़ गए। 'ख' अक्षर का रूप परिवर्तित करने के संबंध में होनेवाली पद्म पर उनकी फब्ती मुझे अभी तक याद है। भदंत आंनद कौसल्यायन 'ख अक्षर के 'र' वाले भाग की पूँछ खींचकर 'व' वाली पाई में जोड़ने की ज़ोरदार वकालत कर रहे थे। उनका कहना था कि 'ख' अक्षर 'रव' का धोखा देता है। मास्टर साहब से चुप रहा गया, बोले, यदि यह लिखा हो कि 'औरत खड़ी है' तो क्या हमारे मित्र भदत जी यह पढ़ेगे कि औरत रवड़ी है, अथवा यदि में यह लिखूँ वि भदत जी हमारे सखा हैं तो क्या वे उस वाक्य को पढ़ने पर सखा के बजाए हमारे 'सरवा' हो जाएँगे। 'सरवा' बनारसी बोली में साले को कहते हैं। इस पर राजर्षि टंडन जी की घनी दाढ़ी मूँछें भी उनकी मुस्कुराहट को छिपा सकी थी।

    कराची हिंदी साहित्य सम्मेलन मे कविवर पंडित सोहनलान द्विवेदी की एक बात पर मास्टर साहब का एक हाज़िरजवाब यहाँ तक प्रसिद्ध हुआ कि कई जगह मसखरा ने उस लतीफे से सोहनलाल जी का नाम हटाकर मेरा नाम तक जोड़ दिया। बात यों हुई। बंधुवर सोहनलाल जी अपनी नई शेरवानी और चूड़ीदार पाजामे की छटा कराची की सड़कों पर छहराकर डेरे पर लौटे। किसी मित्र ने उनकी शेरवानी की दाद दे दी। सोहनलाल भाई जोश में गए, वहाँ कि समझते क्या हो, इसे देखकर लोंगो को यह भ्रम हो गया कि जवाहरलाल नेहरु चले रहे है। मास्टर साहब ऐसे ही मौक़ों पर तो बेढव हुआ करते थे, चट से बोल पड़े, हाँ, कल हमको भी इनके साथ देखकर लोंगो ने कहा था कि देखो जवाहरलाल और मोतीलाल चले रहे हैं। पंडित श्रीनारायण जी चतुर्वेदी ने एक बार मास्टर साहब के मुहल्ले 'बड़ी पिपरी' को लेकर मज़े में कहा कि अरे भाई, ये बड़ी पियारी में रहते हैं। मास्टर साहब चट से बोल पड़े, हमारी पियारी का नाम तो आपको मालूम होगा पर आपकी बड़ी पियारी को अब सब लोग जानते है कि जिसके बाग़ में आपको शरण मिली है। भइया साहब लखनऊ के ख़ुरशीद बाग़ मुहल्ले में रहते है। मास्टर साहब और भइया साहब की आपसी पुरमज़ाक़ पटाववेठी में ख़ूब मज़ा आया करता था।

    सन् '60 में कुछ वेश्याओं से इंटरव्यू करने के सिलसिले में मैं बनारस जाने की योजना बना चुका था। इलाहाबाद रेडियो में एक हास्य गोष्ठी आयोजित हुई थी, मास्टर साहब यही मिल गए। मेरे इलाहाबाद से बनारस जाने की बात सुनकर वे बोले, हमारे यहाँ ही ठहरना। मास्टर साहब के आग्रह को मैं टाल सका और मैं समझता हूँ कि यदि बनारस में उनका उचित निदेशन मुझे मिला होता तो वे दो-चार अच्छे इंटरव्यू जो मैं वहाँ से ला सका शायद मुझे सुलभ होते। सिद्धेश्वरी देवी के यहाँ वे मुझे स्वयं ले गए थे। बड़ी मोतीबाई से मेरी मुलाक़ात कराने का प्रबंध भी उन्होंने ही किया था। सबसे अधिक आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जबकि वेश्यावृत्ति-संबंधी दो-एक टेक्निकल पुस्तकों के नाम उन्होंने मुझे बतलाए। संयोग से ये पुस्तकें मेरी दृष्टि से भी गुज़र चुकी थी। मैंने उन पुस्तकों को अपने काम के लिए यह विषय उठा लेने के बाद ही पढ़ा था, किंतु मास्टर साहब ने तो केवल अपने अध्ययन के शौक़ के कारण ही उनका अध्ययन किया था।

    उनके स्वर्गवास से लगभग पंद्रह बीस रोज़ पहले ही मैं बनारस गया था। हिंदी रंगमंच शताब्दी समारोह के संबंध में कुछ पुराने नाटकों की जानकारी बटोरना ही मेरी उक्त यात्रा का उद्देश्य था इसलिए इस बार उनके यहाँ ठहरने के बजाए मैंने ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के अतिथि- कक्ष में ही ठहरने की योजना बनाई थी। भाई सुधाकर पांडेय को इसके लिए पत्र भी लिख दिया था। बनारस पहुँचने पर सभा मे अपना डेरा जमाकर मैं सीधे मास्टर साहब के घर गया। यह जानता था कि वहाँ ठहरने के कारण मुझे उनकी दो एक बुज़ुर्गों-चित झिड़किया सुननी पड़ेंगी और यही हुआ भी। फिर भी तीन-चार दिन जब तब में वहाँ रहा मास्टर साहब स्वयं सभा में आकर मेरी ख़ैर ख़बर ले जाया करते थे। उन्हें नाटकों का भी भारी शौक़ था। वे स्वयं शौक़िया रंगमंच के अभिनेता रह चुके थे। बनारस में होनेवाले पुराने रंगायोजनों के संबंध में भी मुझे उनसे उपयोगी सामग्री मिली थी। इस भेंट के कुछ ही दिनों बाद तीन अप्रैल, सन् '68 के दिन सभा मे हिंदी रंगमंच शताब्दी मनाने का आयोजन किया गया। इसकी योजना बनाने में भी मास्टर साहब हमारे साथ बैठे थे। चलते समय मैंने उनके पैर छुए, कहा कि अब पहली अप्रैल को भेंट होगी। वे बोले, 'हम लोग अप्रैल-फूल की शताब्दी नहीं मना रहे, एक-दो दिन पहले जाना। इसी बहाने से दो-चार दिन गपशप करने का अवसर मिल जाएगा। और सीधे घर ही आना। सभा मे उन दिनों भब्भड़ रहेगा, तुम्हें असुविधा होगी। उस समय कल्पना में भी नही सोच पाया था कि मैं उनके अंतिम दर्शन कर रहा हूँ।

    यो तो मास्टर साहब अपनी पूर्ण आयु भोगकर ही गए पर उनकी मृत्यु का आघात हम सबको ऐसा ही लगा मानो वे समय से पहले ही हमारा साथ छोड़कर चले गए हो, उनकी ज़िंदादिली, निर्मल प्रेम व्यवहार और 'नए' को ग्रहण करने की उदारता-भरी शक्ति के कारण ही किसी को यह महसूस नही होता था कि मास्टर साहब अब पुराने हो गए है। ठलुओं के बीच में वे परम ठलुए और विद्वानो के बीच में वे अंत तक गोष्ठी की शोभा बने रहे। मास्टर साहब का स्थान हास्य रस के लेखकों और कवियों में सदा अनन्य बना रहेगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जिनके साथ जिया (पृष्ठ 86)
    • रचनाकार : अमृतलाल नागर

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