शिवमूर्ति : अजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है

shiwmurti ha ajib shakhs hai pani ke ghar mein rahta hai

दिनेश कुशवाह

दिनेश कुशवाह

शिवमूर्ति : अजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है

दिनेश कुशवाह

और अधिकदिनेश कुशवाह

    मनुष्य जाति के उड़ने का सपना पहली बार साकार करने वाले हवाई जहाज़ के आविष्कारक राइट बंधुओं का वृहद् स्तर पर नागरिक सम्मान आयोजित किया गया। इस अवसर पर आयोजकों ने उन्हें अपना व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। पहले छोटे भाई से बोलने का निवेदन किया गया। उन्होंने आयोजकों और जनता का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि मैं तो सिर्फ़ हवाई जहाज़ बनाना जानता हूँ, बोलना तो मेरे बड़े भाई जानते हैं। यह कह कर लघुभ्राता ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। जब जेष्ठ राइट बंधु से उनके उद्बोधन के लिए आग्रह किया गया तो बड़े भाई ने कहा कि, ‘‘मेरे छोटे भाई ने इतना अच्छा व्याख्यान दिया है कि मेरे बोलने के लिए अब कुछ बचा ही नहीं है।’’

    यह कहानी मुझे उस समय याद आई जब प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति रीवा विश्वविद्यालय में ‘‘समकालीन हिन्दी कहानी दशा और दिशा’’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने बहुत सारे नामवर कहानीकारों और आलोचकों के बीच पधारे। सन् 1997 का वर्ष था। संगोष्ठी में कहानी के महामहोपाध्याय भंते राजेंद्र यादव तथा संजीव, मैत्रैयी पुष्पा, अर्चना वर्मा से लेकर महेश कटारे तक की सघन उपस्थिति दर्ज हुई थी। जब सायंकालीन सत्र में शिवमूर्ति को समकालीन हिंदी कहानी पर बोलने के लिए बुलाया गया तो बहुत ना-नुकुर करते हुए, किसी तरह मंच पर आए। वह सुबह से अनेक कथाकारों, आलोचकों और प्राध्यापकों को कहानी पर बोलते हुए सुन रहे थे। शिवमूर्ति ‘माइक’ पर आकर चुपचाप खड़े हो गए। फिर मेरे, पार्टनर बोलिए, कहने पर मंच को संबोधित कर बोले कि मैं अपने भाषण की जगह एक कहानी सुनाना चाहता हूँ। इसे ही मेरा कथन मान लिया जाए :

    ‘‘एक राजा थे। उनकी ख्याति थी कि राजा संगीत के अनन्य प्रेमी हैं। राजन प्रतिदिन एक गायक की पक्की गायकी का लुत्फ़ उठाकर ही रात्रि का अन्न-जल ग्रहण करते हैं। रोज़ सायंकाल उनके दरबार में एक गायक बुलाया जाता। एक दिन दरबारियों ने कोई व्यवस्था नहीं की थी। नियत समय पर महाराज पधार गए। सभासदों ने देखा कि राजन की आँखें और कान कलावंत की प्रतीक्षा में अधीर हो रहे हैं। उनके अधिकारी चिंतित होने लगे। काना-फूसी शुरू हुई। किसी को शीघ्र लाओ। महाराज क्रुद्ध हों। मुँहलगे दरबारियों ने राजमहल के बाहर राजपथ से गुजर रहे एक राही को पकड़ लिया। उसके साथ उसकी बीवी मायके जा रही थी। डर से थर-थर काँपते उस देहाती को बताया गया कि महाराज को गाना सुनाना है। वह हाथ जोड़कर रिरिआने लगा कि, ‘माई-बाप मैंने जीवन में कभी गाना नहीं गाया। मैं राजसभा में महाराज को कैसे गाना सुनाऊँगा। दुहाई सरकार की। इस बार बख़्श दें, फिर कभी इधर आने की गुस्ताख़ी नहीं करूँगा।’ सेनापति ने देहाती पर दो धौल जमाते हुए कहा कि, ‘गाना और रोना तो सब जानते हैं। चल और ध्यान से सुनऽ। अगर वहाँ तुमने महाराज को कुछ गाकर नहीं सुनाया तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा।’ वह देहाती किसान गायक के रूप में राजसभा में लाकर बिठा दिया गया। सेनापति ने उससे अनुरोध किया कि, ‘श्रीमन् कलावंत! अब आप महाराज को अपनी गायकी का आस्वादन कराएँ।’ देहाती के मुँह से बोल ही फूटें। सेनापति ने उसे इशारे से अपनी तलवार दिखाई और अंजाम का संकेत दिया। एकाएक उसके कंठ से एक गान फूटा :

    ‘मारि-मारि ससुरा गवावत बाटे।

    मारि-मारि ससुरा गवावत बाटे।।’

    उसका गाना सुनकर राजा के साथ दरबारी सिर हिलाने लगे। थोड़ी देर बाद राजा मगन होकर वाह! वाह! करने लगा। गायक ने पहले जो बोल उठाया था, उसके द्वारा निरंतर उसकी आवृत्ति हो रही थी। पास बैठी पत्नी ने सोचा कि पति जो गा रहा है उस पर अनर्थ हो सकता है। अतः पति को मना करना ज़रूरी है, पर कैसे मना करें? कुछ सूझा तो पत्नी ने भी उसके साथ गाना शुरू किया :

    ‘काहे के तू गरिआवत बाटे?

    आपन मूड़ कटावत बाटे!’

    इस जुगलबंदी पर राजा और मगन हो गया। और फिर दरबारियों और सभा का क्या कहना! सभी मगन। लेकिन दोनों देहाती पति-पत्नी बेचैन। पति को पत्नी की बात नागवार लगी। तो उसने दूसरा अंतरा कढ़ाया :

    ‘ई ससुरा कुछ समुझत नाहीं

    ससुरी समुझावत बाटे।’’

    अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा का सभागार ठहाकों से गूँज उठा। फिर संयत हुई सभा में शिवमूर्ति अपने जीवन और लेखन में मिली गहरी अनुभूतियों की चर्चा करते रहे। इस दौरान उनका गला कई बार रुँध गया और अंततः भावाविष्ट दशा में ही वह बोलना छोड़कर अपनी सीट पर आकर बैठ गए।

    मैंने सुना है कि संसार के और अपने देश के भी कई महत्त्वपूर्ण लेखक लिखते समय अपनी किसी किसी आदत के वशीभूत थे। जैसे राहुल जी बोलकर लिखाते थे। डॉ. नगेंद्र खड़े होकर लिखते थे और फणीश्वरनाथ रेणु पेट के बल लेटकर, छाती के नीचे तकिया लगाकर लिखते थे। शिवमूर्ति को मैंने जो देखा-सुना है, वह मेज़ पर एक मोटी कापी में निरंतर रोते हुए लिखते हैं। जो कथा वह लिख रहे होते हैं, उनके अंदर वह वास्तव में घटित होती दिखने लगती है। दरअस्ल, जिन अनुभूतियों से वह निरंतर घिरे रहते हैं; वे किसी के भी अंदर विस्फोटक तनाव उत्पन्न कर सकती हैं। इससे उबरने के लिए उन्होंने भारत की ग़रीब और दलित जनता की तरह रोने का रास्ता अख़्तियार किया। सच तो यह है कि तनाव व्यक्ति को अंदर से खोखला करता है और आँसू शक्ति देते हैं। शायद इसीलिए हमारे ग्रामीण समाज ने ख़ुशी और दुःख दोनों अवसरों पर रोने की परंपरा पाल रखी है। चाहे आत्मीय जन का बिछुड़ना-मिलना हो, बेटी की विदाई हो या किसी अपने का संसार से विदा हो जाना। वह हर अवसर पर आँसूओं की नदी में नहाकर जीवन के भावी कार्यों के लिए तत्पर हो जाता है। मैंने शिवमूर्ति को कई बार फफक-फफक कर रोते देखा है। यूँ तो उनकी आँखें अनवरत सजल रहती हैं।

    मेरे गुरु कथाकार काशीनाथ सिंह ने मुझे बताया कि एक बार वह कथाकार शैलेंद्र सागर के आमंत्रण पर, जिन दिनों वह झाँसी के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे, एक कहानी-संगोष्ठी में शिरकत करने गए। दूसरे दिन ओरछा भ्रमण और पिकनिक का कार्यक्रम बनाया गया। ओरछा को बुंदेलखंड की अयोध्या कहा जाता है। वह राम राजा की नगरी तो है ही पुरातत्व और पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जब सारे लेखक मुग्ध होकर जहाँगीर महल और प्रवीण राय के रंगमहल का अवलोकन कर रहे थे, उसी समय शिवमूर्ति की नज़र प्यार कर रहे एक श्वान-युगल पर पड़ी। यह सुखद संयोग कुछ देर बाद ही वियोग में परिणत हो गया। कुछ और कुत्ते आकर व्यवधान डालने लगे। फिर किसी ने पत्थर उठाकर कुत्ते पर चला दिया। चोट खाकर कुत्ता कॉय-कॉय करने लगा। क्रौंच-वध की तरह श्वान-वध की यह आवृत्ति देखकर शिवमूर्ति क्रुद्ध हो गए। इसी दौरान वह घटना घटी जिसे देखकर शिवमूर्ति के आँखों में आँसू गए। जिसने काशीनाथ सिंह को शिवमूर्ति का क़ायल बना दिया। हुआ यह कि व्यवधान से छिटक कर दूर जा खड़ी कुतिया ने अचानक फुर्ती से आकर अपने जोड़ीदार कुत्ते को चूम लिया, और फिर एक पतली गली की ओर भाग गई।

    कई बार मैंने इस बात पर विचार किया है कि शिवमूर्ति एक सफल, संपन्न और सुखी गृहस्थ हैं। सरिता भाभी का असीम स्नेह, प्रेम और साथ उन्हें अखंड सौभाग्य की तरह मिला है। वह सोने की वर्षा करने वाले एक सरकारी महकमे में ऊँचे ओहदे पर तैनात हाकिम थे। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की तरह बहुत कम लिखकर बहुत अधिक यश बटोरने वाले लेखक हैं। मैं बार-बार सोचता हूँ कि उन्होंने इन जीवन-स्थितियों में भी, उस ‘दुख की दुनिया’ को सहेजकर कैसे अपने भीतर बचा रखा है, जो उन्हें उनके बचपन में मिली थी। एक समय था, जब पहनने के लिए फटे और मैले कपड़े थे, खाने के लिए कुअन्न था, सोने के लिए चारपाई नहीं थीं, ओढ़ने-बिछाने को गुदरा था, माँ के आँसू और गीत थे, परिजनों की ज़िम्मेदारियाँ थीं, पिता आकाशवृत्ति के विश्वासी कबीरपंथी साधु थे। उनका संरक्षण उड़ते हुए मेघ की छाया से अधिक था। तो फिर क्या था शिवमूर्ति के अरुणोदय-काल में जो उनका संबल बनता रहा? कामायनी में प्रसाद की पंक्तियाँ याद आती हैं :

    ‘‘जहाँ मरु ज्वाला धधकती

    चातकी कन को तरसती।

    उन्हीं जीवन-घाटियों में

    मैं मधुर बरसात रे मन।

    तुमुल कोलाहल कलह में

    मैं हृदय की बात रे मन।।’’

    इस ‘हृदय की बात’ ने ही शिवमूर्ति के जीवन में पाथेय का काम किया। इसी ने उन्हें अनोखी संवेदना प्रदान की। मन-मुताबिक़ साहचर्य दिया। इसी ने उन्हें योगी और भोगी के बीच संतुलन बनाए रखने की शक्ति प्रदान की। इसी ने उनकी आँखों की नमी को कभी सूखने नहीं दिया। और इसी हृदय की धरती और भाव आकाश की बरखा के बीच शिवमूर्ति ने आज अपना घर बना लिया है :

    ‘‘वो अश्क़ बनके मेरी चश्म-ए-तर में रहता है

    अजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है।’’

    शिवमूर्ति से मेरा पहला पाठकीय परिचय उनकी कहानी ‘सिरी उपमा जोग’ से हुआ। संभवत: सन् 1984-85 का वर्ष था। मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शोध-छात्र था। दीपावली की छुट्टियों में गाँव जा रहा था। वाराणसी से सलेमपुर के रास्ते में जब मऊ जंक्शन पर गाड़ी रुकी तो मैंने वहीं पत्रिकाओं के बिक्री-पटल से ‘सारिका’ ख़रीदी। मेरी निगाह शीर्षक के साथ ही कहानी में उतर गई। कहानी ख़त्म होने तक किसी और चीज़ का होश ही नहीं रहा। हालाँकि कहानी पढ़ते हुए मेरी आँखों से आँसू गिर रहे थे, लेकिन मुझे इस बात का रंचमात्र ध्यान नहीं था कि मैं सैकड़ों लोगों के साथ ट्रेन के डिब्बे में बैठा हूँ, गाड़ी चल रही है, स्टेशन आ-जा रहे हैं, लोग चढ़-उतर रहे हैं। कहानी के अंत में लेखक का पता छपा था। बिक्रीकर अधिकारी, मऊ (उत्तर प्रदेश)। मैं बहुत उद्विग्न हो गया। काश! यह कहानी मैंने कुछ देर पहले पढ़ ली होती तो ‘मऊ’ उतरकर लेखक से मिल आता। इस कहानी से पहले मैंने शिवमूर्ति का कुछ भी नहीं पढ़ा था। मुझे यह भी नहीं मालूम था कि वह ‘धर्मयुग’ में छपी अपनी कहानियों ‘कसाईबाड़ा’ और ‘भरतनाट्यम’ के ज़रिए काफ़ी मशहूर हो चुके हैं और ‘कसाईबाड़ा’ के सैकड़ों नाट्यमंचन देश भर में हो चुके हैं। कुल मिलाकर एक ही कहानी से शिवमूर्ति से लगन लग गई। लेकिन जाने सदियों से यह कौन-सा अभिशाप है कि जिससे लगन लग जाती है, वह जल्दी मिलता ही नहीं। और हमारे साथ भी यही हुआ। शिवमूर्ति से मुलाक़ात हुई, परंतु तब तक सन् 1989 का वर्ष गया था। वह मिर्ज़ापुर में बिक्रीकर अधिकारी के रूप में पदस्थ थे। नदिया-नाव-संयोग यह कि उन्हीं दिनों मेरे बहनोई भी मिर्ज़ापुर की पुलिस लाइन में पदस्थ हुए। उनसे मिलने गया तो शिवमूर्ति जी से भी मिलने चला गया। लगा ही नहीं कि मैं किसी बड़े लेखक से मिल रहा हूँ। मैंने शिवमूर्ति को बताया कि अब तक उनकी ‘सिरी उपमा जोग’, ‘भरतनाट्यम’ और ‘कसाईबाड़ा’ कहानियाँ पढ़ी हैं। उनकी किताबें खोज रहा हूँ, जो कहीं मिलती ही नहीं!

    वह मुस्कुराए, ‘‘जब छपी ही नहीं तो भला कैसे मिलेगी।’’

    उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘‘आपके प्रिय लेखक कौन हैं?’’

    मैंने कहा, ‘‘संजीव।’’

    ‘‘क्यों?’’

    ‘‘इसलिए कि उनके जैसा ‘कोई भी’ दूसरा नहीं लिखता और आज हिंदी की सारी लघु पत्रिकाएँ उनसे भरी पड़ी हैं?’’

    ‘‘ऐसी उदारता ठीक है क्या कि आदमी किसी को मना करें। मान लीजिए संजीव जी मेहरिया होते तो इस उदारता के कारण उनकी क्या गति होती।’’

    शिवमूर्ति मेरी तरफ़ देखकर हँसने लगे और मैं किंचित गंभीर मुद्रा में गया। शिवमूर्ति जैसे संजीदा लेखक से इस तरह की बात की उम्मीद नहीं थी। मैंने कहा, ‘‘बताइए एक तो बंगाल का बांग्लाभाषी लेखक हिंदी में इस तरह लिखता है जैसे हिंदी-पट्टी में ही उसकी नाल गड़ी हो। नक्सल मूवमेंट पर ‘अपराध’ जैसी कोई दूसरी कहानी हिंदी में है क्या? वह विचारक और लेखक दोनों हैं। हमारी युवा पीढ़ी आजकल उनसे अधिक किसी भी कथाकार को सक्रिय नहीं देख रही है।’’

    इतना कहने के बाद मैं कुछ ऐसी मुद्रा में विराजमान हुआ जैसे मैंने शिवमूर्ति को निरुत्तर कर दिया हो। तब मैं नहीं जानता था कि शिवमूर्ति चतुर सुजान हैं। हँसना-हँसाना उनका स्वभाव है। परिहास का माद्दा उनमें बहुत है। मेरे अज्ञान को वह बालक की ‘तोतरिबाता’ समझ रहे हैं। जिस हिंदी-पट्टी की बात मैं कर रहा हूँ, उसमें संजीव-शिवमूर्ति की ‘जुगलजोड़ी‘ राम-लक्ष्मण की तरह जानी जाती है। और यह जोड़ी किसी संपादक या आलोचक महान् ने नहीं बनाई। हिंदी के पाठकों ने बनाई है और नरेन, गौतम सान्याल, अवधेश प्रीत, सृंजय, आर.डी. सिंह जैसे लगभग पचासों कथाकार इस जोड़ी के दीवाने हैं।

    शिवमूर्ति ने उसी मज़े से कहा, ‘‘अच्छा तो संजीव बंगाली हैं। मैं नहीं जानता था।’’

    मैंने पूर्ववत् उत्साह में कहा, ‘‘वरिष्ठ रसायनज्ञ, ईस्को, कुलटी, पश्चिम बंगाल का पता हर जगह छपता रहता है। आपने कभी ध्यान नहीं दिया।’’

    शिवमूर्ति अँगड़ाई लेते हुए खड़े हुए; कहा, ‘‘अच्छा पार्टनर, कल इतवार है। दस बजे आइए। मैं आपको एक सरप्राइज गिफ़्ट दूँगा। कल अवकाश है, इसलिए दिन भर साथ रहेंगे।’’

    दूसरे दिन जब गया तो देखता हूँ कि एक व्यक्ति जो बहुत साधारण-सा दिख रहा है, छापवाली लुंगी तथा बिना कॉलर की रंगीन टी-शर्ट पहने है, केन की कुर्सी पर बैठा तम्बाकू चुभला रहा है। उसके बग़ल में बैठे एक लहीम-सहीम रुतबे वाले सज्जन उसकी हाँ में हाँ मिलाए जा रहे हैं। चंद मिनटों बाद शिवमूर्ति जी आए और हम लोगों का परिचय कराने लगे, ‘‘संजीव भाई, इनसे मिलिए, दिनेश कुशवाह, आपके अथक प्रशंसक, बीएचयू से।’’ मैं हतप्रभ। तो कल क्यों नहीं बताया शिवमूर्ति जी ने? अच्छा तो यही मेरा ‘सरप्राइज गिफ़्ट’ है। लेखकीय दुनिया का मेरा प्रिय लेखक, मेरा आदर्श लेखक, मेरा कहानीकार हीरो, मेरे सामने बैठा है और मैं उसे टुकुर-टुकुर भक्कू की तरह ताक रहा हूँ। मेरी जड़ता तब टूटी जब संजीव भाई ने अपना हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘दिनेश भाई! ये हैं मेरे मित्र, भोला सिंह। आप तो कवि हैं। मैंने आपकी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में देखी हैं। कुछ ठीक से याद नहीं रहा। परहैप्स! यू आर लेफ़्ट पोएट।’’

    मित्रो! उस दिन जाने कौन-सी तिथि थी! दिन चुटकियों में बीत गया। खाना-पीना, गाना-बजाना, क़िस्सा-कहानी और कविता का दिन। मिर्ज़ापुर के सुरम्य स्थलों का भ्रमण। गंगा नदी में नौकायन। गंगापार रेती पर मेरा काव्य-पाठ। कहना शायद झूठ लगे, पर उस एक दिन ने ही हमारे बीच जन्म-जन्मातरों की आत्मीयता पैदा कर दी। हमें एक अटूट बंधन में बाँध दिया। उस दिन हम साथ-साथ हँसे, कई बार गरमा-गरम बहसों में उलझे, आपस में घर-दुआर, मायके-ससुराल संघ—सीपीआई (एमएल) सब बतिया लिया। लगा ही नहीं कि इससे पहले कोई अपरिचय था। पता नहीं हमारे संबंधों का यह कौन-सा विश्वास है कि ‘कथादेश’ सितंबर 1997 के अंक में गौतम सान्याल को साक्षात्कार देते हुए संजीव ने कहा कि, ‘‘मेरी अर्थी में लगने वाले कंधों में दो कंधे शिवमूर्ति और दिनेश कुशवाह के होंगे।’’ इति।

    शिवमूर्ति के लिए दोस्ती दीन और ईमान दोनों है। परंतु अपने दोस्तों को वह रुलाते है, और हँसाते भी हैं तो रोना जाता है। मैं भी इससे अछूता नहीं रहा। एक बार ‘बाड़मेर‘ में मेरे सामने ही शिवमूर्ति ने विभूति नारायण राय से कहा, ‘‘दिनेश जी हमेशा दर्द में उबलते रहते हैं।’’ कही गई बात में ऐसा टोन था जो मुझे अच्छा नहीं लगा। समय-समय पर, अपने एकाध वाक्य से चुहल करना शिवमूर्ति की आदत है। एक बार भंते राजेंद्र यादव के हौज ख़ास वाले घर में मेरा और शिवमूर्ति का साप्ताहिक प्रवास था। सुबह मैं राजेंद्र जी के बाथरूम में बहुत देर तक नहाता रहा। जब बाहर आया तो भंते ने चुटकी ली, ‘‘नहाने में बहुत समय लगाते हो?’’ शिवमूर्ति कब चुप रहने वाले थे। बोले, ‘‘दिनेश जी एक-एक अंग चार-चार बार धोते हैं। इन्हें मालूम नहीं कि विरही काया पानी से ठंडी नहीं होती।’’

    मित्रो! इन कथनों में कितना सत्य है, कितना परिहास मैं नहीं जानता। लेकिन मैं इस सच से बख़ूबी परिचित हूँ कि शिवमूर्ति हमेशा अपने अंदर की आँच पर चढ़े अदहन में खदबदाते रहते हैं। उनके द्वारा किए गए हँसी-मज़ाक़ उस उबलती केतली पर रखा गया ढक्कन है। उनके मुँह से अक्सर फूटने वाले इन उद्गारों को आप भी देखिए। मुझे पता नहीं कि इन्हें ‘आप्त वाक्य‘ कहा जा सकता है कि नहीं!

    • कहते हैं कि बारह साल बाद घूरे के दिन भी फिरते हैं। फिरते होंगे। पर अपने देश के किसान घूरे जैसे भाग्यशाली भी नहीं हैं।

    • ग़रीब कमज़ोर के हिस्से में कुत्ते से भी ज़्यादा दुत्कार आई है।

    • किसान कैसे जिएगा? उसकी फ़सल का मूल्य वे तय करते हैं जिन्हें यही पता नहीं होता कि चने का पेड़ बड़ा होता है या अरहर का।

    • अभी तक कोई मुल्क अन्न के दानों को फैक्ट्री में बनाने का नुस्ख़ा नहीं निकाल सका है।

    • यह इसी देश में है कि एक ओर सरकार लाखों टन गल्ला समुद्र में फेंकने का निर्णय लेती है, दूसरी ओर सस्ते गल्ले की दुकानों पर गेहूँ, चावल का मूल्य ड्योढ़ा करती है।

    • यह इसी देश में है, जिसमें पिछले कई वर्षों में हवाई जहाज़ के किराए में निरंतर घटोतरी और बस के किराए में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है।

    • यह इसी देश में है जहाँ पिछले बजट में सस्ती की गई वस्तुओं में शामिल हैं—कार, कम्प्यूटर, क़ालीन, सोना और सॉफ़्ट ड्रिंक तथा महँगी की गई वस्तुओं में शामिल हैं—बीड़ी, माचिस, चाय और पोस्टकार्ड।

    • यह इसी देश में है कि यहाँ की जेलों में बीसों साल से ऐसे लोग बंद हैं, जिनके बारे में अब ख़ुद सरकार को पता नहीं कि उनका अपराध क्या है?

    • जिनका हित यथास्थिति बनाए रखने में है, वे हमारे पाठक क्यों होंगें?

    • अपनी टाँग तोड़ने वाले की टाँग में दाँत गड़ाना हमारी नज़र में अपना बचाव है।

    डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि आज़ादी के पहले के भारत को जानना हो तो प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए और आज़ादी के बाद के भारत को जानना हो तो हरिशंकर परसाई को। इस बात से मुझे ख़याल आता है कि अगर आज़ादी के पहले के भारतीय किसान की दुर्दशा जानने के लिए प्रेमचंद को पढ़ना लाज़िम है तो आज़ादी के बाद के भारतीय किसान, ख़ासकर उत्तर भारत के किसानों की दुर्दशा, नियति और गाँव-देहात की फटेहाली को देखना हो तो शिवमूर्ति को पढ़ना ज़रूरी है। संवेदना और शिल्प के स्तर पर उनमें प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु का मणिकांचन योग है। शिवमूर्ति को पढ़कर ही यह पता चलता है कि स्वतंत्र भारत के गाँव और देहात आज भी किस तरह सामंतों, साहूकारों, नेताओं और हाकिमों के चक्रव्यूह में फँसकर कसाईबाड़ा बने हुए हैं। सीमांत किसानों के घर पैदा होने वाले गबरू जवान तो आज भी अपने अनंत दुःखों की ताल पर भरतनाट्यम कर रहे हैं।

    शिवमूर्ति में किसी से भी सीखने का सराहनीय गुण है। किसी के भी द्वारा बोली गई बात को वह चिड़िया की तरह दाना-दाना चुगते हैं। जिस तरह दत्तात्रेय ने अपने चौबीस गुरु बनाए थे, उसी तरह शिवमूर्ति ने भी अनेक लोगों को अपना गुरु बनाया। जिस तरह दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं में एक वेश्या थी, उसी तरह शिवमूर्ति की एक गुरु एक तवायफ़ थीं। (माफ़ करें, किसी पेशे में पड़ी स्त्री के लिए प्रयुक्त ये दोनों शब्द या इनके सारे पर्यायवाची स्त्री जाति का अपमान हैं) शिवमूर्ति मुझे उनसे मिलाने ले गए थे। मैंने देखा कि वह ग़रीब दुखियारिन शिवमूर्ति की फ़्रेंड, फ़िलॉस्फर, गाइड तीनों है। उनके गुरुओं में उनके गाँव के ‘संतोषी काका’ से लेकर विद्रोही जंगू और क्रांतिकारी कॉमरेड मंगल सिंह तक हैं। अपने लगभग सारे स्त्री-पुरुष दोस्तों से शिवमूर्ति ने मुझे मिलाया। लेकिन जिन दो स्त्रियों से मुझे मिलाने के लिए शिवमूर्ति ने पटना और पूर्णिया की अलग-अलग दो लंबी यात्राएँ कीं और कराईं, वह मुझे जीवन भर भूलेंगी। ये स्त्रियाँ उनकी नज़र में पूजनीय ही नहीं, साहित्य का इतिहास थीं।

    दरअस्ल, मैंने महसूस किया है कि रेणु शिवमूर्ति के सृजनात्मक क्षणों के परम आराध्य हैं। पहली बार जब वह मुझे फणीश्वरनाथ रेणु की प्रिया लतिका जी से मिलाने ले गए तो इतने भाव-विह्वल थे कि लगता था लतिका की चरण-धूलि अपने माथे पर चढ़ा लेंगे। दूसरी बार इलाहाबाद से कटिहार और कटिहार से पूर्णिया की यात्रा रेणु जी के गाँव ‘औराही हिंगना’ जाने और उनकी पत्नी पद्मा जी से मिलने के लिए की गई। रेणु के घर पहुँचे शिवमूर्ति जी उनकी एक-एक चीज़ को छू-छूकर ऐसे देख रहे थे जैसे रेणु से ‘देह मिलावा’ कर रहे हों, उनके गले लग रहे हों, उनके पाँव छू रहे हों। पद्मा जी बताशा और पानी लेकर हम लोगों के पास ही बैठी थीं। बुढ़ापे में भी वह बहुत सुंदर लग रही थीं। लतिका जी से भी थोड़ी अधिक सुंदर। जब काफ़ी देर हो गई और पद्मा जी उठकर कुछ देर के लिए कहीं चली गई तो मैंने शिवमूर्ति के कान में कहा, ‘‘पद्मा जी को भी छूकर देखना है क्या?’’ शिवमूर्ति ने मुझे बेरुख़ी से देखा। उनकी आँखे सजल थीं। मैंने बात बदलने के लिए पुनः पधारी पद्मा जी से पूछा, ‘‘आपके रहते हुए रेणु जी ने लतिका जी से दूसरी शादी की तो आप को बुरा नहीं लगा?’’ पद्मा जी की जगह शिवमूर्ति जी बोले, ‘‘चुप रहो पार्टनर, काठ की सौत भी जीभ चिढ़ाती है। कभी फँस गए बच्चू तो देखूँगा।’’

    भाइयो! काशी में कलिकाल का वह प्रथम चरण था, जब एक अप्सरा ने मोहिनी-मंत्र डालकर मुझे अपने वश में कर लिया। बचने के लिए मैंने आकाश-पाताल की शरण ली। पर उसके जादू के आगे सब बेकार। मेरे घर की लक्ष्मी ने तब तक एक कुमार और एक कुमारी को मेरे गोद में देकर, मुझे पिता होने का गौरव दे दिया था। लेकिन वह प्रेम ही क्या जिसमें आदमी के होश-हवाश दुरुस्त रहें। पुनर्जन्म भले हो, परंतु प्रेम पुनर्जन्म है। फिर तो अगले जन्म की कोई बात याद नहीं रहती। कबीर के शब्दों में अपना शीश उतारकर पहले हाथ में लेते हैं और फिर प्रेम के घर में प्रवेश करते हैं। यह ढाई आखर ब्रह्मानंद सहोदर है तो मरणोत्तर विजयोल्लास भी है—

    ‘‘बेख़ुद थे, ग़श थे, मह्व थे, दुनिया का ग़म था

    जीना विसाल में भी तो मरने से कम था’’

    मेरा यह मरना निरंतर चल रहा था। मेरा जीना मह-मह महक रहा था। मतवाली चाल और नशीली आँखें जगह-जगह अपना बयान दर्ज करा रही थीं। ज़माने को ख़बर हो हो, अपने जानने वालों को ख़बर हो गई। कुछ लोग खुले-ख़ज़ाना साथ खड़े थे तो कुछ लोग ताल ठोककर विरोध कर रहे थे। ऐसे में शिवमूर्ति कितनी बार मेरे पास आए। देश-दुनिया और दीन-ईमान की समझाइस देते रहे। बच्चों के अनाथ होने की दुहाई देते रहे और एक दिन कड़े लहजे में कहा कि, ‘‘एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहती हैं।’’ जब मैंने कहा, ‘‘यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। मैं दो म्यान रख लूँगा।’’ तो उन्होंने कहा, ‘‘हफ़्ते भर बाद आपकी भाभी को लेकर आता हूँ। हम दोनों आपकी पसंद को देखना चाहेंगे। सरिता जी की राय भी ज़रूरी है।’’ एक सप्ताह बाद जब एक पुस्तकालय में हम चारों की भेंट हुई तो शिवमूर्ति मेनका को इस तरह देखते रह गए, जैसे केदार शर्मा की फ़िल्म ‘चित्रलेखा’ में बीजगुप्त के घर ब्रह्मचारी श्वेतांक चित्रलेखा को देखता है। सरिता भाभी और शिवमूर्ति को जब हम दोनों छोड़ने गए, तब सरिता भाभी ने गहन-गंभीर मुद्रा में कहा, ‘‘ठीक है भाई साहब।’’ मैं इस बात से परेशान हो रहा था कि सरिता भाभी एक ब्याहता औरत की तरह सोच रही होंगी और अब शिवमूर्ति मुझसे मिलना-जुलना छोड़ देंगे। क्योंकि हमारे देश में विवाहित स्त्री या पुरुष द्वारा किए जाने वाले प्रेम को अधम कोटि में रखा गया है। मेरी उदासी भाँपकर अपना निर्णय बताने के लिहाज़ से शिवमूर्ति मुझे एक तरफ़ ले गए और कहा, ‘‘पार्टनर! यह कन्या तो किसी भी विश्वामित्र की तपस्या भंग कर सकती है। इसे छोड़कर तो आप जन्म भर के लिए दरिद्र हो जाएँगे।’’ रिक्शे से दूर होते हुए शिवमूर्ति भाई और सरिता भाभी की हँसी सुनाई दे रही थी। शिवमूर्ति तब उनसे वही सब ज़रूर कह रहे होंगे। तब मैं क्या जानता था कि सरिता भाभी उनके कई इश्क़ों की राज़दार हैं! कभी-कभी सोचता हूँ ‘त्रिया चरितर’ का यह अद्भुत चितेरा ‘पुरुष चरितर’ की प्रेम-कहानियों पर कुछ लिखने का साहस कर पाएगा?

    गुप्त प्रेम की बहुत समस्याएँ होती हैं, तो खुले प्रेम के ख़तरे भी हज़ार हैं। हमारे प्रेम को सामाजिक मान्यता दिलाने, घर-परिवार, मित्र-परिजनों को विश्वास में लेने तथा उसे एक बंधन का रूप देने के लिए एक अंतरंग पंचायत बैठी। दस-पाँच स्त्री-पुरुषों में शिवमूर्ति भाई भी शामिल थे। तमाम चर्चाओं को सुन रही मेरी लक्ष्मी जिन्हें स्वयं अपनी सुंदरता और शारीरिक सौष्ठव का बड़ा गुमान रहता है, मेनका के सौंदर्य-वर्णन और मेरे स्वयंवर अभियान पर ‘सरोष भुवंग भामिनि’ की तरह फुफकार उठीं, ‘‘उसकी उसमें... सोने का पालिश लगा है क्या?????????... सभा भंग हो गई। काली की कटार के सामने कौन टिक सकता है? जो जन जहाँ से आए थे, वहाँ के लिए प्रस्थान कर गए। शिवमूर्ति को रात भर मेरे घर में रुकना था और सुबह अपने शहर के लिए बस पकड़नी थी। गृहलक्ष्मी हम दोनों को भोजन करा रही थीं। मैं उनसे आँखे नहीं मिला पा रहा था। जब एक बार उनकी तरफ़ देखा तो उन्होंने जलती हुई दाल मेरे हाथ पर डाल दी। मैं सी-सी करते हुए फूँक मारने लगा। शिवमूर्ति भाई वीतरागी मुद्रा में बोले, ‘‘पार्टनर सौ फ़ीसदी खरा सोना देखा है? भाभी जी सौ फ़ीसदी खरा सोना हैं। बस कभी-कभी भदेस बोल देती हैं।’’

    भदेस पर याद आया कि शिवमूर्ति ने मुझे देश भर की यात्राएँ कराईं। यह उन्हीं दिनों की बात है, जब काशी में कलिकाल के प्रथम चरण का अंतिम काल चल रहा था और मेनका विश्वामित्र को छोड़कर चली गई थी। उसके ग़म में विश्वामित्र सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग की इसी काया में विह्वल और उद्विग्न विचर रहे थे। भंते राजेंद्र यादव, शैलेंद्र सागर, संजीव, शिवमूर्ति, नरेन, गौतम सान्याल और सृंजय का सप्तर्षि मंडल उनकी बेचैन आत्मा के लिए शांति-पाठ कर रहा था। शैलेश मटियानी, कैफ़ी आज़मी, रामदेव सिंह और देवेंद्र ग़म का जाम पीकर मह्व हो जाने का मशविरा दे रहे थे; पर शिवमूर्ति का सोचना कुछ और था। वह कहते, “पार्टनर घूमो-घूमो-घूमो। चलने से दिमाग़ का ख़ून पाँवों की तरफ़ आता है। चलते-फिरते रहिए। नहीं तो दिमाग़ की नसें फट जाएँगी।’’ इस चक्कर में वह मुझे अपने गाँव से लेकर गोवा, मद्रास, बंगलूर, ऊटी, जयपुर, जोधपुर, पश्चिम बंगाल, यहाँ तक मेरी ससुराल, पटना, किशनगंज, आरा, टाटा जमशेदपुर, कटिहार, भागलपुर कहाँ-कहाँ नहीं ले गए। अपने ख़र्चे पर और सिर्फ़ घूमने के लिए। एक दिन मिर्ज़ापुर के एक होटल के कमरे में बंद कर बोले, ‘‘एक हफ़्ता यहाँ से निकलिए मत। नाश्ता-भोजन-चाय सब यहीं आएगा। मेरा ज़िम्मा। जो कुछ भी घटा है, पार्टनर सब लिख डालिए। पुराना पड़ जाएगा तो यह बात नहीं रहेगी। चौबीस घंटे बाद जब शिवमूर्ति मेरा हाल-चाल लेने आए तो रात का भोजन उसी प्रकार पड़ा हुआ था। कुछ देर चुप रहे। लगता था उन्हें क्रोध रहा है, लेकिन उन्हें मैं दया का पात्र भी लग रहा था। वह क्रोध और करुणा से बोले, ‘‘चलिए घर, आपका कुछ नहीं हो सकता। ‘क्रॅानिक पेशेंट’ तो देखा था, ‘क्रॅानिक प्रेमी’ नहीं।’’ मैंने बिलखते हुए कहा, ‘‘पार्टनर! मैं उसे इतना याद करता हूँ, क्या उसे मेरी याद नहीं आती होगी?’’

    ‘‘अन्न-जल छोड़ देने से जाएगी!’’

    ‘‘मैं जो पूछ रहा हूँ, वह बताइए न!’’

    ‘‘यह सारा अज्ञान सांइस पढ़ने का नतीजा है। मान लीजिए, उसका फ़ोन कहीं और इंगेज है तो आप चाहे उसे जितना डायल करें उसे ‘रिंग’ सुनाई पड़ेगी? नहीं न!! पार्टनर! प्रेम में जो प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, उनका उत्तर कभी नहीं मिलता।’’ फिर रुआँसे हो गए, कहा :

    ‘‘दामन-ए-यार की ज़ीनत बने हम अफ़्सोस

    अपनी पलकों के लिए कुछ तो बचाए रखिए’’

    हाँ तो मैं भदेस की बात कह रहा था। एक बार रामदेव भाई के संरक्षण में संजीव, शिवमूर्ति मैं और सृंजय आरा से मुग़लसराय रहे थे। गाड़ी में मनोरंजन के लिए अन्त्याक्षरी की बात चली। बहुत कम लोग जानते हैं कि प्राचीनकालीन समस्यापूर्ति वाली कविताई संजीव का प्रिय शग़ल है। उन्होंने कहा, ‘‘दिनेश भाई, किसी कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाइए।’’ हममें से हरेक व्यक्ति अपनी तरफ़ से एक-एक बंद जोड़ता चलेगा। मैंने कविता की जगह जगदीश गुप्त से सुनी एक ग़ज़ल के दो शे’र सुनाए :

    ‘‘आप तो रात सो लिए साहेब

    हमने तकिए भिगो लिए साहेब

    हम भी मुँह में ज़ुबान रखते हैं

    इतना ऊँचा बोलिए साहेब’’

    यह संयोग ही था कि ‘कॉमरेड का कोट’ के शिल्पी सृंजय की बारी सबसे पहले पड़ी। उसने उसी वज़न पर एक आशु शे’र रचकर कहा :

    ‘‘हम भी कुछ धारदार रखते हैं

    पहले नाड़ा तो खोलिए साहेब’’

    अपनी बारी का इंतजार छोड़कर शिवमूर्ति बीच में ही लपक पड़े, ‘‘बंद करो, बंद करो पार्टनर! यह तो भदेस हो गया।’’ महफ़िल उखड़ गई।

    इसका यह मतलब क़तई नहीं है कि शिवमूर्ति को भदेस से बहुत परहेज़ है। नागर जनों में भदेस कहे जाने वाले लोकगीतों के वह रसिया हैं। मजाल क्या कि मैंने उन्हें कोई लोकगीत सुनाया हो और शिवमूर्ति ने उसे अपनी डायरी में नोट किया हो। मेरे सुनाए एक फाग को तो उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण ढंग से अपने ‘मैं और मेरा समय’ में उद्धृत किया था। गोपी; कृष्ण से कहती है कि, ‘‘हे नंदलाल! आज मैं घर का सारा काम निपटाकर, अपने पति परमेश्वर को भोजन कराकर, सेज लगाकर उन्हें सुलाने के बाद, हर तरह से फ़ुर्सत होकर उस कदंब-वृक्ष के नीचे मिलने आऊँगी।’’

    ‘‘ओही कदमे तरऽ हो नंदलाल

    आजु हम आइबऽ

    कंत जेंवाई, सोवाई सेज पर

    सब बिधि अवसर पाई

    आजु हम आइबऽ।’’

    इसी प्रकार बहुत सारे भद्र वंचित लोकगीतों के मुखड़े शिवमूर्ति गुनगुनाते रहते हैं। जैसे, ‘‘एक ठो चुम्मा दिहले जइहऽ हो करेजऊ।’’ अपनी सुप्रसिद्ध कहानी ‘त्रिया-चरित्तर’ जिसे लेकर एक समय ‘सेक्स और जनवाद’ की बहस छिड़ गई थी, जिस पर नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेता को लेकर बासु चटर्जी ने उसी नाम से फ़िल्म बनाई, में कहानी की नायिका ‘विमली’ के प्रति ट्रैक्टर ड्राइवर ‘बिल्लर’ के प्रणय-निवेदन के लिए जब कोई संवाद नहीं सूझ रहा था तो शिवमूर्ति ने एक लोकगीत का ही सहारा लिया। ट्रक ड्राइवर के पवित्र प्रेम में अनुरक्त, विवाह के बाद पति का अपरिचय और प्रवास झेल रही ‘विमली’ से ट्रैक्टर ड्राइवर ‘बिल्लर’ कहता है :

    ‘‘टूटही मड़ईया के हम हईंऽ राजा

    करीलां गुजारा थोरे मा।

    तोर मन लागे लागे पतरकी

    मोर मन लागल बा तोरे मा।’’

    एक बार तो ग़ज़ब ही हो गया। हम दोनों बंगलूर के सड़कों की ख़ाक छान रहे थे। पाँव पियादे। शिवमूर्ति आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे। कभी अलग-बग़ल। शिवमूर्ति मैथिल कोकिल विद्यापति के एक पद का मुखड़ा गुनगुना रहे थे, ‘‘पीन पयोधर दूबर गाता।’’ मगन मन डूबते-उतराते शिवमूर्ति से मैंने पूछा, ‘‘ई काऽ गा रहे हैं भई?’’

    ‘‘नागार्जुन विद्यापति के जिन पदों को कभी-कभी मगन होकर सुनाते थे, जिनका अनुवाद भी किया है। उन्हीं में यह पद संकलित है। आप विद्यापति को भक्त कवि मानते हैं शृंगारी?’’

    ‘‘मैंने हँसते हुए कहा कि वह कालिदास की तरह स्तनों के श्रेष्ठ कवि हैं।’’

    ‘‘और आपने ‘खजुराहों में मूर्तियों के पयोधर’ कविता में पयोधरों का जो इतना अद्भुत वर्णन किया है तो आप क्या हैं?’’

    ‘‘मैं अध्यापक और कवि हूँ। शृंगार हमारे अध्ययन और अध्यवसाय का विषय है।’’

    ‘‘हम कहानीकार इस पचड़े में नहीं पड़ते।’’

    ‘‘और मृदुला जी ने ‘चितकोबरा’ में क्या किया है?’’ शिवमूर्ति हँस पड़े। उन्होंने पेशेवर शाइरों की मुद्रा अभिनीत करते हुए कहा, मुलाहिज़ा हो, अर्ज़ किया है :

    ‘‘आँख दिखलाते हैं, जोबन भी दिखाएँ साहिब

    वो अलग बाँध के रक्खा है, जो माल अच्छा है।’’

    मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकल पड़ा—मरहबा-मरहबा-मरहबा!

    हिंदी में कहूँ—धन्य हैं! धन्य हैं शिवमूर्ति! आपकी जय हो!!

    अपनी रसिकता, रुतबे, चुहुलबाज़ी और बेबाक़ दुनियादारी के बावजूद शिवमूर्ति सिर्फ़ एक लेखक हैं। परदुखकातरता के मारे। वह परपीड़ा से पूर-पूर और दलितों-वंचितों-स्त्रियों के दर्द में दलित-द्राक्षा की तरह चूर-चूर होकर लिखते हैं। वह लिखते समय अपने लिए नहीं उनके लिए रोते हैं। उन्होंने लिखा है :

    ‘‘मिस्र के पिरामिड या ताजमहल के निर्माण के दौरान दबकर-पिसकर मरने वाले मज़दूरों के रूप में मैं ही मरा था। स्वतंत्र भारत में पुलिस द्वारा किए जा रहे फ़र्ज़ी इनकाउंटरों में मैं ही मारा जा रहा हूँ। बलात्कार और निर्वसन करके मेरी ही बहन बेटियाँ घुमाई जा रही हैं। पुनर्जन्म में मेरा विश्वास नहीं है, परंतु मानव-शृंखला में पीढ़ी-दर-पीढ़ी मैं ही भविष्य की हज़ारवीं पीढ़ी के रूप में पैदा होऊँगा। इसलिए आज इस दुनिया में जो कुछ कुत्सित है, गर्हित है, असुंदर है, अन्यायपूर्ण है उसके ख़ात्मे के लिए किया जाने वाला प्रयास वास्तव में अपने ही भविष्य को बेहतर बनाने के लिए किया जाने वाला प्रयास है...। मैं चाहता हूँ, ऐसी यात्रा पर निकले हर यात्री के लिए रोटी-पानी लेकर रास्ते में खड़ा मिलूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दिनेश कुशवाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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