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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

सामाजिकता लोकालय का प्राण है, लेकिन नगर में सामाजिकता सुदृढ़ नहीं हो सकती। नगर का आयतन विस्तृत होता है और स्वभावतः लोगों के पारस्परिक सामाजिक संबंध शिथिल से हो जाते हैं।

अनुवाद : विश्वनाथ नरवणे