पुरातत्त्व के विद्यार्थियों को गले के नीचे ही दो ऊँचे-ऊँचे पहाड़ देखने की आदत पड़ जाती है। कुछ और नीचे जाते ही पहाड़ पलटकर दूसरी ओर पहुँच जाते हैं। यह सब समझने की दिव्य दृष्टि पुरातत्व के भोंदू-से-भोंदू विद्यार्थी को भी मिल जाती है। फिर वह बौद्ध विहारों को गोपुरम् और गोपुरम् को स्तूप समझने की ग़लती भले ही कर बैठे—नारी-मूर्ति को पुरुष-मूर्ति मानने की भूल नहीं कर सकता।