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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

मनुष्य का अपना मन अपने भीतर प्रविष्ट होकर अपने लिए सांत्वना रचता है। जो वस्तुगत चीज़ है वही मनुष्य के मन के स्पर्श से, उसी के मन की चीज़ हो उठती है।

अनुवाद : चंद्रकिरण राठी