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हजारीप्रसाद द्विवेदी के उद्धरण

कुछ और है, कुछ और है। पर क्या है? सीमाबद्ध मस्तिष्क की तरंगें पछाड़ खा-खाकर तीर पर सिर मार रही हैं—कुछ और है पर क्या है?