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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

कृच्छ साधना को ही उपलब्धि मान लेने से, अंततः आत्मघात पर पहुँचकर रस्सी खींचनी पड़ती है।

अनुवाद : अमृत राय