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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

हृदय की वीणा जड़ यंत्र नहीं है; प्राणवान है, इसीलिए वह एक ही बँधा हुआ सुर नहीं बजाती। उसका स्वर विस्तारित होता है, सप्तक बदल जाता है, तार बढ़ते जाते हैं। उसको लेकर जिस जगत् की सृष्टि होती है वह कहीं स्थिर नहीं है, वह कहीं जाकर रुकेगा नहीं। महारसिक इस हृदय-वीणा से नया-नया रस ले जाता है और इसका समस्त सुख-दुःख सार्थक कर देता है।

अनुवाद : विश्वनाथ नरवणे