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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

एक दिन के प्रयोजन से अधिक जो संचय नहीं करता; हमारी प्राचीन संहिताओं में उस द्विज-गृहस्थ की प्रशंसा की गई है, क्योंकि एक बार हमने संचय करना प्रारंभ किया नहीं कि फिर हम धीरे-धीरे संचय करने की मशीन हो जाते हैं, तब हमारा संचय प्रयोजन को ही बहुत दूर छोड़कर आगे चला जाता है। फिर प्रयोजन को ही वंचित और पीड़ित करता रहता है।

अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी