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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

डर यही है कि अपनी श्रेष्ठता, पुण्य या धन के अभिमान से हमारा दान अपमानित न हो, अधर्म में परिणत न हो। इसीलिए उपनिषद् में कहा है ‘भ्रिया देयम्’—भय करते हुए दान दो।