छिताईवार्ता (सौंदर्य वर्णन)

chhitaa.iivaarta (sau.ndary var.nana)

नारायणदास

नारायणदास

छिताईवार्ता (सौंदर्य वर्णन)

नारायणदास

और अधिकनारायणदास

    कुटिल केस सिर सोहइ बाल।

    कच कांवरि (कोंवर?) जानि मधुकर माल।

    मोती मांग मदन की बाट।

    राज नीक सम तिलक निलाट॥

    सरद सोम ससि (सम?) बदन प्रकास।

    मदन चाप सम भुंहइ (भौंहइ) तासु।

    मृग सावक सम सोहइ लोल।

    उपइ (ओपइ) कंचन तिसो कपोल॥

    धन धन (धन्न धन्न) तेरी आखि।

    भरी ही (भरिही?) जाके जीउ की साखि।

    बूकी (बूकिय) हेम जन अमृत सान (सानि)।

    काक बक रीने (लीने?) कीन (कीने) बानि॥

    रतन जरित तरिका जे ताक।

    मनहु मदन रथ के [१] चाक।

    भूह (भौंह) पेच अनु खुटी अनप।

    मनहु छ[त्र] सिर दीन्हौ भूप॥

    नाक नकफूली रतन जराइ।

    रहौ मदन जानु बनसी लाइ।

    जाने सु तौ रसिक परवीन।

    चितइ चित्र तनु बध्यो मीन॥

    तिल कपोल परि विधना दीउ (दिओ)।

    मनहु (मानहु) मदन चिन्ह करि गयो।

    सुधा समान बिधि कीधे अधर।

    मानह (मानहु) बाल पबाली सधर॥

    हीरा मोति दुसन दरसाउ।

    कछु [१] दारिउं बीज सुभाउ।

    ठोढी लीला सोहइ अति बाल।

    केसरि मांझ मनहु जंगाल॥

    ग्रीव (ग्रीवा) रेख संख सम तीन।

    आपन बिरचि (बिरंचि बिरचि) रचि कीन।

    कंठहि कंठसरी (कंठसिरी) सोहंति।

    छट छूटी मोतिन की पंति॥

    कुच कठोर जोब [न] बर बढे।

    जाने नृप संधिह रन जे चढ़े।

    सुबन सुढार सुकंचन खंभ।

    श्रीफल सम सोहीइ (सोहियइ) सुयंभ॥

    रहे कुच कंचुकी उचाइ।

    मनहु गूडरी दुई तनाइ।

    गहिरी नाभि बखानइ कुन (कौन)।

    मानहु काम सरोवर भुवन॥

    बाहु जुगल जानि नलनी नाल।

    राजहंस [?] मधुरी चाल।

    नख राख्यौ बाई आंगुरी।

    सोहइ जानि कुंद की करी॥

    मध्य खीनता बररि समान।

    कुच भरि टूटइ ऊर (ओर) नियान।

    त्रिबली रेखा सुछ सुभाउ।

    कुच नख तिन [?] दीउ (दिओ) सुभाउ॥

    कटि मेखला खरु (खरो) सुंठान।

    मानह (मानहु) मदन तने नीसान।

    जांघ जुगल कदली विपरीत।

    कूकू (कुंकू) सम ति पींडरी प्रीति (पीति)॥

    गरुअ नितंब [?] गज गामनी।

    मुरछै देखि उर (और) कामनी।

    चलन(चरन?) पीडरी आंगुरी(?) नख की योति (जोति)।

    मनह (मन हु) कमल दुल ना(ता) महि मोति॥

    चित धरि चित्र गुपति जनु रची।

    सुंदरि जानु संचइ की संची॥

    पहिज्यौ अंगि दक्षन कौ चीर।

    चंपक दल तन सुबन सरीर।

    एक एक अभिरने उतारि।

    दीइ (दियइ) छिताई ऊपरि उरि (उवारि?)॥

    युवती के सिर पर घुँघराले केश शोभा दे रहे थे। वे कोमल कच मानो मधुकर-माल थे उसकी माँग में जो मोती पड़े थे, वे मदन का मार्ग थे और उसके ललाट पर लगा हुआ तिलक सिंहासन पर विराजमान न्यायप्रिय राजा के समान था।

    शरद के चंद्रमा के समान उसके मुख की कांति थी। मदन के धनुष के समान उसकी भौहें थीं, मृग शावक के नेत्रों के समान चंचल उसके नेत्र शोभित थे, और जिस प्रकार खरा सोना दीप्त होता है, वैसे उसके कपोल थे।

    कामिनियों ने कहा, “तेरी ये आँखें धन्य हैं, जिनमें तेरे जीव की साक्षी भरी हुई है। अमृत में सानकर जैसे सोने को पीसा गया हो, इस प्रकार उनकी दीप्ति है और जैसे कौवों और बकों के श्याम तथा श्वेत रंगों को लेकर उनका रंग निर्मित किया गया हो।

    जो रत्नजटित तरिवन (उसके कानों में) दिखाई पड़ रहे थे, वे मानों कामदेव के रथ के पहिए हों, उसकी भौहों की वक्रता ऐसी अनोखी और अनुपम थी मानों किसी भूपति (राजा) ने सिर पर छत्र धारण किया हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : छिताईवार्ता (पृष्ठ 18)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : नारायणदास
    • प्रकाशन : नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
    • संस्करण : 1958

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