वह दूर की सीमा के पार गया है
wo door ki sima ke paar gaya hai
विनोद कुमार शुक्ल के शिल्प में
बैठ गया था वह मेरे पास
अपना पूरा जीवन लिए हुए
उसी शिल्प में चाहता था व्यक्त होना
और जीवन जीना
सुंदर वाक्यों के मलहम से
जीवन के दुःख शायद कम हो जाते हों
पर कविता के शिल्पों की तरह
कहाँ होता है जीवन!
बस इसीलिए
जहाँ मिलता है
कविता के सुंदर शिल्पों-सा जीवन
उस दूर की सीमा के पार चला गया है वह
और दूर की सीमा के अंदर कहीं बैठा हुआ हूँ
मैं।
दूर की सीमा के अंदर बैठे हुए
मैं देखना चाहता हूँ
सीमा के पार का दृश्य
जानना चाहता हूँ कि रास्ते में
उसे क्या-क्या मिला होगा!
क्या सीमा के अंदर की तरह ही
सीमा के बाहर भी बना होगा कोई पुल
और उसके नीचे बहती होगी कोई नदी
नदी में पानी होगा कि नहीं
पानी होगा भी तो मछलियाँ होंगी कि नहीं
मछलियाँ होंगी तो उन पर पलने वाले
मछुआरे होंगे कि नहीं
मछुआरे होंगे तो उनका घर होगा कि नहीं
या वे खुले आसमान के नीचे रहते हों
तब आसमान साफ़ होगा कि नहीं
बस इन्हीं बातों से सुनिश्चित करना है मुझे
कि वह वहाँ सुरक्षित होगा
मिल जाता होगा उसे
दो जून का दाना-पानी
या करता होगा फाँके
या फिर यह कुछ नहीं होगा
नदी, पुल, मछलियाँ, मछुआरे, आसमान
और उसकी सुरक्षा
कुछ भी न होगा
हो सकता है रास्ता भी न हो
बस दूर की सीमा का पार हो
जहाँ से दूर भी न दिखाई पड़ता हो।
न दिखाई पड़ने वाले दूर की सीमा के पार के लिए दूर के अंदर से दौड़ता हूँ मैं। दौड़ता रहता हूँ। दौड़ते हुए दूर की कोई सीमा नहीं मिलती तो उस सीमा का पार भी नहीं मिलता। बस दूर मिलता है। मिलता रहता है मृत्यु तक। इस जन्म के छोड़े हुए दूर से अगले जन्म में फिर से दौड़ना। वह दूर की सीमा के पार गया है।
दूर की सीमा के पार
कविता के शिल्पों-सा सुंदर जीवन मिलता है?
- रचनाकार : प्रतीक ओझा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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