विपर्यय

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अर्पण कुमार

अर्पण कुमार

विपर्यय

अर्पण कुमार

और अधिकअर्पण कुमार

    दौड़ रहे हैं हम जिस सड़क पर

    सवार टैक्सी में

    पहले वे खेत थे

    मैं इन ऊँची सड़कों और पुलों को

    खेत की शक्ल में वापस ढलता हुआ पाता हूँ

    वह जो बदतमीज़ी कर रहा है सरेआम

    और डोले-शोले दिखला रहा है

    उसे उसकी माँ की योनि से

    निकलता और संघर्षरत

    बदहवास-सा एक शिशु में बदलता हुआ पाता हूँ

    कुत्ता

    जो मरा पड़ा और दबा कुचला है

    उसे ज़िंदा, खड़ा और अपनी ओर

    देखता पाता हूँ

    ट्रेन की पटरियों को

    लौह अयस्क में बदलता देखता हूँ

    मैं स्वयं को

    कुछ पीढ़ी पहले किसी पूर्वज में

    परिवर्तित होता पाता हूँ

    मनोज मरावी

    जो इस टैक्सी का ड्राइवर और

    मंडला का रहनेवाला है

    छह एकड़ की

    जिसके पास खेती है

    जहाँ मिट्टी काली है

    और जो यहाँ बिलासपुर-रायपुर के बीच

    टैक्सी चलाता है

    और दुःखी रहता है

    अपने कम वेतन से

    मैं उसे

    उसके गाँव में

    खेती-बाड़ी और पशुपालन करता

    पास के किसी स्कूल में

    पढ़ाता हुआ

    अपने परिवार-जनों के बीच

    हँसता-बतियाता देखता हूँ

    जब मुझे लगता है कि

    आने से पहलेकोई मंज़िल

    मुँह चिढ़ा रही है मेरा

    दूरी बढ़ने और खलने लगती है

    तब उस दूरी को

    टुकड़ों में बाँट कर देखता हूँ

    मसलन 100 किलोमीटर को

    25 किलोमीटर के चार टुकड़ों में

    बाँट कर देख लेता हूँ,

    जब कोई मंज़िल

    जल्दी आती दिखती है

    और मुझे आनंद लेना हो

    सफ़र का

    तब उसे लंबा कर देता हूँ

    मसलन 50 किलोमीटर को

    पाँच किलोमीटर के 10 टुकड़ों में

    विभाजित कर देता हूँ

    मैं अपने मस्तिष्क को

    खोलकर देखता हूँ

    रहा जहाँ-जहाँ, गया जहाँ-जहाँ

    वे सभी जगहें फैल जाती है

    दिमाग़ से निकल

    मेरी आँखों के सामने

    मैं दूरी को, चीज़ों को

    समय को, लोगों को

    परिस्थितियों को

    उनके अदेखे में देखता हूँ

    देखना यूँ उलट-फेर कर

    अच्छा लगता है

    कई भय भाग जाते हैं

    कई परिवर्तनों को

    अस्वीकार कर देता है मन

    अपना और किसी अन्य का दुःख

    कुछ कम हो पाता है शायद,

    शायद यह पलायन हो

    यथार्थ से

    मगर जब-तब

    उलट-पुलट कर देने से यूँ

    कई चीज़ें बदल सकती हैं

    यथार्थ की यथार्थ में

    या कि प्रति-यथार्थ में

    जब-तब ही सही

    झूठ-मूठ ही सही

    इस तरह से देखना-सोचना

    पसंद है मुझे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्पण कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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