प्रतीक्षा
शिशिर की अलसाई धूप
सूरज से आँखमिचौली करते तितलियों के संग उनके रंग में ही बीत गई
वसंत की मदमाती धूप गिलहरियों के संग
मंज़र चुगने के ढंग में ही ज्यों-त्यों रीत गई
कहाँ तो ग्रीष्म में होती चिलचिलाती धूप में नील अंजन नभ की अभिलाषा
कहाँ यह वैशाख में ही आषाढ़ जैसी मूसलधार वर्षा
बीतता मौसम और वही आँगन—
कितनी मानीख़ेज़ है जीवन में तुम्हारी यह अदृश्य मौजूदगी
कहीं भी रहूँ—मुझे रखता है आच्छादित मेघ की तरह यह तुम्हारा ख़याल
इस वर्ष यूँ ही विलम्बित होती जा रही हैं ऋतुएँ
ऐसा संग-रोध कि छूट ही गया
यकायक सब संग-साथ
इतना असंगत है सारा गणित कि
तुम्हें कोई दिलासा भी नहीं दे पाता कि कब होगी मुलाक़ात!
तुम्हारे और तुम्हारे गीतों के साथ
पता नहीं
इस बार देखूँगा भी कि नहीं चाँद
जब आएगा तुम्हारा प्रिय महीना कुआर
झरता है जिसमें तुम्हारी बातों से भी
खिलकर हरसिंगार
व्यर्थ है सौंदर्य से सौंदर्य में भेद करना
माना कि बहुत पसंद है—तुम्हें हरसिंगार
पर आँगन में गिरते हुए ये नीम के फूल भी
कुछ कम नहीं हैं यार!
अगर आतीं तो देखतीं तुम स्वयं
कितना मधुर है यह चहारदीवारी पर उछलते
कुरकुरइयों का समूहगान
कभी नीम तो कभी आम के गाछ से
स्वादानुसार आती हुई कोयल की आवाज़
सामने राजपथ पर लगातार चले जा रहे हैं लोग
जो थोड़े पैसे वाले हैं वह छुपते-छुपाते एम्बुलेंसों और ट्रकों में भरकर
जो फटेहाल हैं वह रिक्शा, साइकिल या पैदल ही चलकर
आ रहे हैं नियम तोड़
अपनों से मिलने
आ रहे हैं सब छोड़
मिलाता हूँ अपनी कथा में इस व्यथा का सार
बनते-बनाते
खाते-खिलाते
सुनते-सुनाते
तुम्हारे बिना बीत रहा है ग्रीष्म
तुम्हारे सब निर्देशों को मानते
प्रतीक्षा को प्रार्थना में दुहराते
- रचनाकार : सुधांशु फ़िरदौस
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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