दृश्य यह है गाँव का!

drishya ye hai gaanv ka!

गोर्धन महबूवाणी ‘भारती’

गोर्धन महबूवाणी ‘भारती’

दृश्य यह है गाँव का!

गोर्धन महबूवाणी ‘भारती’

और अधिकगोर्धन महबूवाणी ‘भारती’

    सायंकाल को दिन और रात के खिंचाव में,

    डूब जाता नभ जब रक्तिमा में रुधिर-सी

    तब अचानक कूप पर आवें लालित्यभरी नारियाँ,

    सब ओर फैला देतीं छटा विचित्र विस्तार से—

    गाँव का सौंदर्य सारा पलटता पल में वहाँ

    निज नयनों से देखा किसी ने दृश्य यह है गाँव का!

    कमर पर है झज्झर, सिर पर मटका या घड़ा,

    पायल बाजे पाँवों में मस्तक पै टीका मदभरा

    नरगिसी नयनों से निकले यौवन की खुमारियाँ,

    सुधि नहीं, इन घातक नयनों के शिकार हुए कितने—

    तीरों से बढ़कर तीखे ये इशारे गाँव के

    निज नयनों से देखा किसी ने दृश्य यह है गाँव का?

    रस्सी उठाकर नाज से रखती रहट पर डोल वे,

    कूप से पानी निकाले माधुर्य-मय मुसकान से

    लचकता यौवन है यों झूमता झूला है ज्यों,

    क्रीड़ा करती है कमर की लोच में यौवन की कोमलता—

    यमुना-किनारा बन गया गाँव का यह कूप मानो,

    निज नयनों से देखा किसी ने दृश्य यह है गाँव का!

    चूड़ियों की झनकार में भरा हुआ है रस कितना!

    मानो सारंगी के तार में झंकारते कुछ गीत हैं

    पायल-ध्वनि की मोहकता मैं कैसे लिखूँ?

    हो सकता आकर्षण ऐसा किसी वाद्यविशेष में—

    चाहता मैं बन जाऊँ कोई कवि इस गाँव का।

    निज नयनों से देखा किसी ने दृश्य यह है गाँव का!

    कमर पर झारी लगाकर वे हैं अब चलने लगीं,

    छलकते पानी से उनकी भींज जाती छातियाँ

    दर्शकों के दिल में कुछ हलचल मचाती वे चलीं,

    स्वयं को चंचल कटाक्षों से बचाती वे चलीं

    लालित्य का करती अभी वे गाँव में प्रसार वे

    निज नयनों से देखा किसी ने दृश्य यह है गाँव का!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 741)
    • रचनाकार : गोर्धन महबूवाणी ‘भारती’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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