जे शूल पर झुलइछ तनिक पद, फूल अहँ कि चढ़ायबे?
जे मूल के रचइछ स्वयम् तनि चूल अहँ कि सजायबे।
जे वज्रभुज करवाल भँजइछ, तनि कनक-केयूर कीं?
जे गिरि-शिखर अभ्यस्त पद, रथ उपर तनि न चढ़ायबे॥
ज्वल अनल ज्वाला जनि नयन, सुरमा न चसमा तनि रुचिर।
जे शर-निकर उर पर सहथि, तनि हित न हार गढ़ायबे॥
जे कंटकित मुकुटक विकट भट, स्तवक कुसुमक स्तुति न तनि।
जे गिरिक निर्झर जल पिपासु, न कूप-जल भरि लायबे॥
जे सागरक उत्ताल लहरि विशाल तरइछ वितत-भुज।
पुनि तनिक क्रीड़ा-केलि हित गृह-वापिका न खुनायबे॥
जे मुक्त प्रकृतिक काननक संचरण-पटु पंचानने।
तनि घेर-बेढ़क हेतु पुनि पिंजर न हन्त रचायबे॥
जनि राजभवनक शयन, रानिक नयन, शिशु वयनहु रुचिर।
निष्क्रमण रोध न कय सकल, अनुरोध तनि न जनायबे।
जे पाशुपत उपलब्धि हित छथि पशुपतिक संधान मे।
तिय रूपसी छवि उर्वशी तनि आगु व्यर्थ नचायबे॥
जे महाभारत समर उत्कट शान्त चित गीता रचथि।
तनि सान्त्वना मे गुनगुना रस-गीत धनि की गायबे?
जनि भृकुटि तनितहिँ क्षुब्ध सागर शान्त, सेतु निबन्धने।
तनि सन्तरण हित काठ एकठा नाओ अकठ चलायबे॥
जे धूलि अणु-परमाणु गढ़इछ शक्ति गीत परम्परा।
तनि श्रम पुरस्कृत कर'क हित अहँ कनक-कन कि गनायबे॥
जे अन्तरिक्ष-परीक्षणक हित ग्रह गनक भ्रमनक रसी।
तनि श्रम हरण हित विश्रमक तृण-छाउनी न छरायबे॥
जे घनक धुनि रस-सजल साओन-भादवक सजइछ घटा।
पद-बिन्दु अनुपद सिंचना तनि पथ न हन्त! पटायबे!!
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 53)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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