घर सँ बाहर नहि निकलैत छी
हठात अपन अस्तित्व सँ शिकाइत भ’ अबैत अछि
—आ डर लगैत अछि
लोक पुछिए दैत अछि, की करैत छह ?
आत्मीयताक लिफाफ सँ निकलल ई प्रश्न
हरियर घास नहि, असंख्य काँटक जंगल होइत अछि
लहूलहुआन अन्हार क्षितिज पर
अपन नाँगट रूप केँ टोबैत डर लगैत अछि
एकटा अरघनी विशेष छैक; आ ओ हम छी
लोक बेड़ा-पाँती, अपन तामस—
मैल कपड़ा जकाँ टाँगि
मुक्त भ’ जाइत अछि
कार्यालय केर फाइल मे डूबल पिता कहैत छथि
नहि आब ताकति नहि कि बन्हायल रही
धैर्य नहि कि जोतल रही, लगातार
आ तों ब्लेड धरिक पाइ मँगैत छह
कहिया धरि हम तोहर लाठी बनल रही
आँखि केर सूत सँ ल’ क’ डाँड़ धरि झुकि गेल अछि
आसरा केर तोरा नहि, हमरा अछि जरूरति
माँ केर आँखि मे बन्हल कोनो झील
कतोक बेर बदलि लैत अछि करौट
माँ आ पिता हमर दू टा ध्रुव थिक
अकस्मात कोनो दिन टूटि जेतैक
हम देखैत छी, फेर
कतोक टुकड़ी मे बँटि क’
कतोक अनिर्दिष्ट दिशा मे बहि जाइत छी
अन्हारक चीत्कार
अन्हारे मे दम तोड़ि दैत अछि
ई हमर संस्कार थिक जे हम
माथ केर उपर झुलैत जूता
नहि अपन जीह नमरा क’
चाटिए पबैत छी आ नहि
जूता छीनि क’ सरपट कोनो
निश्चित दिशा मे भागिए सकैत छी।
- पुस्तक : संग समय के (पृष्ठ 74)
- रचनाकार : महाप्रकाश
- प्रकाशन : अंतिका प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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