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तुम भी वहीं के हो गए

जहाँ पहुँचकर सब कुछ खो जाता है

उस उजाले में जिसमें एक दिए की लौ का सत है

जिसमें हज़ारों चाँद और अनगिनत सितारों के वायदे शामिल हैं

जिसे निभाने के लिए वह सुबह ओस की बूँदों में भी

सतरंगी रोशनी उतार लाता है

उसे गौर से देखना

वो एक कसीदाकार है जो कपड़ों में झालर बुनकर

मन को जगमगाने का भ्रम रचेगा

हाँ भ्रम उजाले का एक अँधेरा कोना है

सब जानते हैं कि उजाले में भी एक अँधेरा होता है

जहाँ प्रवेश करते ही

पूरी देह अदृश्य हो सकती है

रोशनी की अधिकता से

अँधेरा कुछ नहीं बस काला रंग भर है

जिसे एक अबोध बच्चा बिना आँख खोले

अधनींद में ही रचता है

तब, जब वह बाहर सू-सू करने निकलता है

उजाले का होना अँधेरा है

और अँधेरे का ना होना उजाला

'मैं अब भी वहीं हूँ, जहाँ पहले था'

ये कहना भर ही

उजाले की साज़िश की पहचान है

कि वह तुम्हें अपनी ओर आकर्षित कर चुका...

अपनी जद में ले चुका है...

स्रोत :
  • रचनाकार : श्रीधर करुणानिधि
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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