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उल्लू

ullu

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

किस दूर पेड़ की डाल से

पत्तों के मेले में

बैठे हो संगोपन में तुम

कुलवृद्ध, ज्ञान उलूक?

निशीथ का अंधकार भेद

सिहरा धरा की देह, मन, स्नायु

निद्रालु प्राण अपनी धमनी, हृदय से

तैर आती तुम्हारी आवाज़

अशुभ, कर्कश, क्लांत

तुम्हारा कंठ स्वर।

सत्यद्रष्टा साधक की तरह

बैठकर थिर योगासन में

दे रहे क्या संदेश?

वह संदेश इतना अमंगल

अस्वाद्य, अप्रिय, तिक्त

मर्त्य के नर-नारियों में।

शायद वह कटु सत्य भाषा

ग्रहण करता, सुनने को मन नहीं आदमी का

उसे स्वाद्य-प्रिय

अंधकार-सुखकर नींद।

सहज साधन सुख में

अंदकार - नींद के आस्वाद में

लीलित था नहीं तन तुम्हारा

हे स्थविर ज्ञानवृद्ध उलूक?

जीवन का अभिशाप-

आदमी के पास-दुःख सारे

सिर पर उठा सारा क्लेश भार

अभिशप्त सत्यद्रष्टा-सम

तुम भी बैठे उलूक

एकांत में गुह्य मंत्र जप

रात-रात भर तुम

जीवन के जाग्रत प्रहरी?

करते क्या हो बैठ तुम

पृथ्वी की आयु-माप

जीवन और मरण तालिका

हे स्थविर कुलवृद्ध उलूक?

बैठकर देखते होगे

इस मर्त्य में ज्ञान-पापी क्रीड़ा

हत्या, मृत्यु, रुग्ण प्रजनन

चिरंतन मानव-यात्री का।

सड़े-गले आदमी के शव

दुर्गंध भरे शव श्वान-शृगाल के

उद्भिद और नक्षत्र लोक के

जन्म-मृत्यु लीला-पहेली

देखते निर्विकार बैठ।

फिर क्या नहीं देखते

जीवन का हानि-लाभ

प्रेम का अंतिम मूल्य

मिलन-वियोग का नाटक

कर्म-क्लांत-निद्राक्लांत

अभिशप्त मानव-शिशु का।

फिर क्या वह लोभ, व्याधि

कुष्ठ, मृत, गलित

सड़ाँध धकेलकर

तीरहीन सागर की लहरें लाँघ

बार-बार लौट आते

जीवन की बेलाभूमि पर

जीवन का स्वाद पाने—

जीवन की स्तुति गाने।

बार-बार मरकर जी उठते

नूतन साँस—नूतन विश्वास में

पढ़ने नक्षत्रों की लिपि

आँकने जीवन का मूल्य,

शायद ऐसा भी हो

शाश्वत यात्री की पटभूमि पर

भाग्य-लिपि मानव-शिशु की

तुम क्या नहीं जानते भाषा इस ग्रह की

रात का रहस्य

हे स्थविर ज्ञानवृद्ध उलूक?

निशीथ के अँधेरे में

नींद की गोद में जब अचेत

यह जगत

सपनों के हाथ में सौंप दो अंग

भुलाने दुःख दैन्य क्लांति

पार्थिव-जंजाल

तब तुम्हारी पलकों में

तिल भर भी होगी नींद

हे नाविक रात्रि-सागर के

कुलवृद्ध, ज्ञानवृद्ध उलूक?

दिवस के अध्ययन में

गति क्लांत यात्री मैं एक

मेरे प्राणों में ताप-केवल तृष्णा का

स्वार्थ का क्रंदन मेरा—निरर्थक हास

पथ भरा है निष्फल पादपों से

मैं एक मंत्र प्रचारक

लोभ, हिंसा, ईर्ष्या, विद्वेष का।

रख दी मैंने शीर्ण तनु-तरी

असीम इस रात के पारावार में

पाने को आशा - भरोसा

भुलाने दिवस की क्लांति

प्राणों का दाह, तीव्र शर पीड़ा।

फिर क्यों कुलवृद्ध उलूक

तोड़ देते मेरी सुखनिद्रा

हरण कर लेते अंधकार स्वादु

निद्रा का अंजन

क्यों सतकई कराते

नींद की सेज पर—स्वप्न अभिसार में?

इस रात के अँधेरे में

कैसी अशुभ वार्ता

जो भयंकर है दिवस से

पीड़ादायी-भीषण सर्पिल?

दिन-पंजिका रात से क्या अच्छी?

आलोक क्या अंधकार से अच्छा?

जागरण क्या नींद से अच्छा?

यह रहस्य जानते होगे तुम

दिव्यद्रष्टा रात के प्रहरी

कुलगुरु ज्ञानवृद्ध उलूक?

वह यदि नहीं जानते

कुछ तो रात का रहस्य

बोलो मुझे दिशाक्लांत,

ज्ञान क्लांत लोगों

की मैं क्षुद्रतरी एक

रख दूँ स्वप्न-पारावार में

या फिर लौटा लूँ मैं

कर्म वयस्त देश में—

दिवस आलोक में

मापने जीवन की व्यथा

निराशा-कलंक

करने आलोक के देश में

जीवन का नव आयोजन।

यह रहस्य बता दो मुझे

हे स्थविर ज्ञानवृद्ध उलूक।

बोलोगे रात में स्वप्न लोक की वाणी

नक्षत्र की भाषा?

सोए आदमी की आयु

स्वप्नरत आदमी की पीड़ा

संग रात आदमी का पाप

इस पृथ्वी पर रात की परमायु

बताओ, बताओगे मुझे

रूढ़ सत्य अपने कंठ स्वर में?

अपने स्थिर योगासन पर टिके

बता दो—क्यों आदमी के भाग्य में

लिखी है शाश्वत यंत्रणा

केवल ठिकाना-ठिकाना बदलने

केवल राह-राह चलने

जीवित मरण—फिर जीने को

हे स्थिर कापालिक उलूक?

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 102)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : चिंतामणि बेहेरा
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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