तुम मेरी अंतिम और

tum meri antim aur

चंचला पाठक

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तुम मेरी अंतिम और

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    तुम मेरी अंतिम और

    अनंतिम शरणस्थली हो वैखरी!

    जब जिह्वा की नोक पर

    आकर अवरूद्ध हो जाते हैं—

    वाणी के तीनों चरण

    तुम्हीं करती हो इन्हें मुक्त-उन्मुक्त!

    उतरती हो हहराती लहराती

    मातंगिनी किसी नदी-सी

    अनिमेष किसी बटोही-से उतरते हैं शब्द

    जैसे तज निकला हो कोई तरूण

    अपना घर-द्वार

    काशी करवट की दृढ़ इच्छा लिए

    काषाए डाले तन पर

    किसी भोगी ने रचे हों जैसे

    वैराग्य के सारे वंच-प्रपंच और

    ऐन कूप के जगत पर बैठते ही टूटी हो तंद्रा

    हुआ हो वह तरूण जीवंमुक्त...

    तुम्हारे मौन की ध्वनियों के

    आवेग से चंचल है सृष्टि

    नृत्यरत हैं शब्द

    तरल है जल और सुपुष्ट हैं धान्य

    जाने किस आकाश से झरे अक्षर

    बहे प्राण

    प्रविसे ऊनचास पर्वों में

    उतरी शीतलता

    चंद्रमा में

    बहा सोम, ठहरी अग्नि

    किसने भेजे आमंत्रण पर्जंयों को

    बरसे धारासार

    अन्न की अनंत संकल्पनाएँ किसने रची

    धान की गाभ में...

    तुम जाने कितने कंठों की काकली का

    मंत्र-मनन बन विस्तारित हो रही हो वैखरी...

    जब कहीं कुछ बचा हो शेष

    और डोलता हो जीवन जहाज विशाल तरंगों के बीच

    तुम मेरी अंतिम और अनंतिम शरणस्थली हो वैखरी!

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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