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ट्रंककॉल

trankkaul

अनामिका

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    रविवार को शाम सात बजे

    पीजी वीमेंस हॉस्टल से

    एक सौ आठ पकड़ के

    ईस्टर्न कोर्ट चली जाती थीं

    हम गुच्छा भर बिहारी लड़कियाँ

    चिंतित-महाचिंतित माता-पिता को

    ट्रंककॉल पर अपनी ख़ैरियत बताने कि

    बिल्कुल ठीक हैं, काम किए जा रही हैं,

    इधर-उधर नहीं देखतीं, बिना पढ़े फेंक देती हैं प्रेमपत्र,

    नहीं देखतीं नाटक-वाटक भी,

    मंडी हाउस मंडी है कौन-से गल्ले की,

    हम नहीं जानतीं।

    पढ़-लिखकर आएँगी वापस

    तो शादी कर लेंगी गर्दन झुकाकर

    उनके ही ढूँढ़े हुए

    दुनिया के सबसे भले आदमी से

    जो हम में देखेगा सार

    कायनात की स्त्रियों का

    इस घाट उस घाट कभी नहीं डोलेगी जिसकी हृदय-नौका।

    रह-रह कर हाथ भी नहीं जोड़ना होगा जिससे—

    ‘‘हभरा मार-उर मत कोई,

    हम खुट्टा चीरब लोई।’’

    यह क़िस्सा है सच बेरासी का!

    अब सन् सैंतालीस का सुनिए एक वाक़या!

    ट्रंककॉल भी थे तब—न्योतरही कपड़ों के ट्रंक की तरह

    पहुँच के बाहर और

    पोस्टकार्ड के भरोसे ही

    रहते थे परदेसी बेटियों के माई-बाप!

    एक लड़की थी—माँ की सहेली—

    शादी के पहले मनोयोग से उसने हिंदी की वर्णमाला सीखी थी,

    अब इसमें उसकी क्या ग़लती—

    ह्रस्वीकार, दीर्घाकार आदि घनचक्कर

    पल्ले नहीं पड़ते थे उसके!

    ‘हम ठीक बानी’ लिखना हो तो

    ‘हम ठक बन’ लिखती वो!

    लेकिन उस ‘हम ठक बन’ वाले एक पोस्टकार्ड का रस्ता देखते

    दस-दस दफ़ा पोस्ट ऑफ़िस हो आते थे

    उसके वे बेहाल माता-पिता

    कि जल्लाद निकल गया था उसका दूल्हा,

    दुनिया भर की खंदक उस पर निकालता!

    मरने के पहले सौ पोस्टकार्ड

    अगले सौ-एक महीनों तक गिराए चले जाने के वास्ते

    ‘हम ठक बन’ लिख-लिखकर

    थमा गई जिस डाकबाबू को वो,

    वह भी नहीं जानता था कि माज़रा क्या था!

    काम-काज में रहती होगी, उसने सोचा,

    हर महीने डाकघर आने की फ़ुरसत

    औरत को नहीं मिले, संभव था!

    उसके जाने के दसेक साल बाद तलक

    आती रही उसकी चिट्ठी—’हम ठक बन’ दुहराती।

    डाकिया बहुत प्यारा-सा आदमी था—

    एकदम भरोसे के क़ाबिल—

    औरतों का अपना आदमी—

    ज्योतिबा फुले, राणाडे, विद्यासागर का एक।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनामिका
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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