सफ़र में महिलाएँ

safar me mahilayen

अंशू कुमार

अंशू कुमार

सफ़र में महिलाएँ

अंशू कुमार

और अधिकअंशू कुमार

    सफ़र में महिलाएँ कम दिखती हैं

    और सुबह की सैर में भी

    हर जगह पुरुष फैले पड़े हैं

    जैसे सब कुछ उन्हीं का है

    लड़की बस हर जगह पर

    सिकुड़ती हुई-सी है

    सुबह-सुबह उठना और

    सैर के हिसाब से कपड़े पहनना

    स्तनों के उभार को ज़्यादा से ज़्यादा

    ढकने की लिए कई अलग तरह के

    स्तन-वस्त्रों को अपने अंदर कोज लेना

    अंत:वस्त्रों को और अंदर तक

    धँसा के पहनना,

    दौड़ने की गति,

    चलने की चाल,

    और देखने की दिशा

    सब कुछ तय करते हुए

    कितना कठिन है दौड़ना!

    उन आँखों का सामना करना

    जो कह रही हो

    अरे लड़की दौड़ रही है?

    और ऐसे में सहजता खोज रही

    स्वीकार्यता ढूँढ़ रही—महिला

    कभी ख़ुद से कभी सामने वाले से

    सवाल-जवाब करती दौड़ लगा रही है

    उसका शरीर ही नहीं दिमाग़ भी भाग रहा है

    उसका पैर ही नहीं ख़ून भी दौड़ रहा है

    सफ़र में भी महिलाएँ तैयार होती हैं

    तो ठूँस-ठूँस के पहनती हैं कपड़े

    चिलचिलाती धूप में भी

    दुपट्टा, साड़ी और बुर्क़ा लेना अनिवार्य है

    नहीं तो—नहीं तो...

    शुरु होता है,

    पुरुषों का सवाल, आरोप और अनुमान

    कि नहीं होगी ये लड़कियाँ 'अच्छे घरों से'

    नहीं सिखाया गया होगा इन्हें

    कपड़े पहनने का ढंग और साथ ही

    जड़ दिया जाता है आरोप—

    बस इन्हीं लोगों के कारण

    हो रहा है भोला-भाला

    मर्द ख़राब

    समाज ख़राब

    संस्कृति ख़राब

    क्यों पुरुषों को महिलाएँ

    सैर पर, अकेले सफ़र में अजूबा-सी लगती हैं?

    या फिर नई-सी लगती हैं?

    और तभी महसूस होता है कि कितना ज़रूरी है

    औरतों का घर से बाहर मैदान, दुकान, खलिहान

    और क़स्बों में होना, पान-गुटखे की दूकान पर खड़े होना

    और सैर-सफ़र करना या यों कहें

    तमाम उन जगहों पर खड़ा होना

    जहाँ से तय करते आए हो तुम

    एक स्त्री का चरित्र!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अंशू कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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