नगर की पुजारिन ने प्रश्न किया: तर्क और आवेश का जीवन में कया स्थान है?
अलमुस्तफ़ा बोले : तुम्हारी आत्मा प्रायः संघर्षभूमि बनी रहती है जहाँ तुम्हारे तर्क
एवं विवेक तुम्हारे आवेशों और अभिलाषाओं से युद्ध करते रहते हैं।
काश, मैं तुम्हारी आत्मा का शांतिदूत होता जिससे तुम्हारे मन के वैषम्य और
प्रतिस्पर्धा को एकरस बना देता।
पर जब तक तुम शांति की भावना से प्रेरित नहीं होते और अपने सम-विषम तत्वों से
एक सदृश अनुराग नहीं बनाते तब तक यह नहीं हो सकता।
तुम्हारे उद्वेग और तर्क तुम्हारे सागरवर्ती जीवन-नौका के पतवार हैं।
उन पतवारों में से कोई भी टूट जाए तो या तो वह नौका लहरों में बह जाएगी अथवा
मध्य सागर में गतिहीन होकर ठहर जाएगी। तुम अपने लक्ष्य तक न पहुँच पाओगे। कयोंकि
तर्क-प्रधान शक्ति अवरोधक होती है और अवरोधहीन आवेश ऐसी ज्वाला है जो अपने-
आपको भस्म कर डालती है।
अतः ऐसा मार्ग ग्रहण करो कि तुम्हारी आत्मा तुम्हारे तर्क को हृदयावेशों के ऐसे
शिखर पर पहुँचा दे कि तर्क स्वयं गीतों में खिल उठे।
तुम्हारी आत्मा से निर्देश पाकर तुम्हारी मेधा तुम्हारे आवेशों का पथ-प्रदर्शन करे
जिससे तुम्हारे सहज आवेश दिन-प्रतिदिन अपनी हो आत्माग्नि में तपें और फीनिक्स1 की
तरह, अपनी ही भस्म से नवीन जीवन लेकर प्रकट हों।
मेरी कामना है कि तुम बुद्धि-प्रधान विवेक और प्रवृत्ति-प्रधान उद्वेग, दोनों को अपने घर के
दो सम्मानित अतिथियों की तरह स्थान दो।
तब निश्चय ही तुम एक अतिथि के साथ दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व्यवहार नहीं
करोगे, क्योंकि यदि तुम एक की भी ऐसी अवज्ञा करोगे तो दोनों के प्रेम और विश्वास से
वंचित हो जाओगे।
जब तुम पर्वतों पर चिनार के घने वृक्षों की छाँह में बैठकर दूर के शांत खेतों और
चरागाहों के सौम्य सौंदर्य से साम्य स्थापित करो, तो तुम्हारे मौन हृदय में यह भाव
ध्वनित होना चाहिए : विवेक में विधाता की विश्रांति है।
और जब तूफ़ान आएँ तथा झंझावातों से जंगल काँप उठे, मेघ और दामिनी के गर्जन-
तर्जन में आकाश का गर्व चतुर्दिकू घोषित हो उठे, तब तुम्हारे भीति-त्रस्त हृदय से ये शब्द
ध्वनित होने चाहिए: आवेश में विधाता की गति है।
और क्योंकि तुम भी विश्व-प्राण के एक श्वास हो और विश्वोद्यान के एक पुत्रवत् हो,
तुम्हें भी बुद्धि में विश्राम लेना और आवेश में गतिमान होना है।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
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