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तारीख़-तवारीख़

tarikh tavarikh

कौशल किशोर

अन्य

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कौशल किशोर

तारीख़-तवारीख़

कौशल किशोर

और अधिककौशल किशोर

    हमें तारीख़ों का इंतज़ार रहता है

    ज़िंदगी के काम उससे नत्थी रहते हैं

    पर वे आती हैं ऐसे जैसे हम प्लेटफ़ार्म पर खड़े हैं

    ट्रेन बिना रुके दनदनाती सामने से गुज़र जाए

    इन्हीं तारीख़ों में कुछ तारीख़-तवारीख़ बन जाती हैं

    दिल-दिमाग़ पर गड़ जाती हैं कील की तरह

    एक के बारे में सोचो तो उसके साथ

    कुछ और रिसने लगता है

    जैसे 7 सितंबर 2021 के बारे में सोचो

    तो सामने 16 मई 2014 खड़ा हो जाता है

    मानव सभ्यता सीधे-साधे रास्ते से नहीं गुज़री है

    उबड़-खाबड़, टेढ़ी-मेढ़ी राह का संग-साथ मिला है उसे

    जब भी राह खुली है, चौड़ी हुई है

    कि आगे बढ़ते ही वह अँधी गली में फँस गई है

    सभ्यता का इतिहास उठते-गिरते इसी तरह बना है

    इस विडंबना को क्या नाम देंगे

    कि एक है जो सभ्यता के घर को जलाता है

    यह सोचे बिना कि उससे सारी बस्ती राख़ हो जाएगी

    वह राख़ के ढ़ेर पर खड़ा खिल-खिलाता है

    और सौंप देता है जलती हुई लुकाठी

    अपने ही किसी हमक़दम को रिले रेस के धावक की तरह

    इतिहास में दर्ज़ हैं ये तारीखें

    घाव की तरह रिसती हैं

    इन्हीं में है 6 दिसंबर 1992

    और इन्हीं में है 2001 का मार्च का महीना

    कोई तारीख़...कोई और तारीख़

    इनके चेहरे अलग लग सकते हैं

    इनके दिल-दिमाग़, नीति-नीयत अलग नहीं हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कौशल किशोर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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