'प्रेम-महिमा'

प्रेम, प्रेम

प्रेम ही में

डूबा रहता यह संसार

यह प्रेम, जीव सबकी

स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

प्रेम औ' भूख

दोनों का यदि

वेग होता प्राणी में, तब

संसार कहाँ यह रह जाएगा

जला शमशान बन जाएगा

मौसम आते, खिलते फूल

उचित आयु में खिलता प्रेम

प्रेम के आगे जग में कौन

नहीं जो झुकता रे

तन से, मन से, दृढ़ रहते

चतुर लोग भी फँसते हैं

हलाहल विष नहीं यह रे

अमिय प्रेम है प्राणामृत।

'प्रेमोदय'

एक स्थान में कई बार आ—

जा मिलते रहने से,

परिचय से,

आवेग, अदम्य उठता मन में

प्रमोदय है तब से, जान।

जगता यद्यपि प्रेम भाव

शारीरिक सौंदर्य देख

मन भीतर यह पलता है।

स्थायी होना अगर इसे तो

अल्प परिचय काफ़ी है।

'प्रथम प्रेम'

सहसा उठना प्रथम प्रेम

वह जगता तन आकर्षण से,

परिचय बढ़ते जाने पर,

संभव है, वह घट जाए

आकर्षण यदि मन का हो औ'

शिष्ट, भव्य, हृदय से हो

दृढ़ बनने में समय लगे

पर सच्चा, ऊँचा प्रेम वही।

'प्रेम क्या है?'

प्रेम कहते जो नौजवान

प्रेम की बात नहीं जानते हैं।

अनन्य भाव से, अभेद्य चित्त से

दृढ़ता, विश्वास सहित

निष्कपट जो मिलन मन का

होता वह प्रेम जानो।

दो आत्माएँ एक होने

दो हृदय तड़पते हैं

पूरक एक दूसरे का

होने मन मचलते हैं

योग्य नर-नारी की

आपसी जो भूख सुख की

नव वय में, हृदय में वह

कलियाती प्रेम बनके

'ऊँचा प्रेम'

प्रेम की पौध बढ़ती

सहिष्णु औ' स्थिर मनों में

सफल उसके होने हेतु

समझ वांछित दो तरफ़ भी

अहित की भावना ले

पाया जो प्रेम, अस्थिर।

पछताए नहीं जिसमें

ऐसा ही प्रेम ऊँचा।

परिचय से बहुत दिन के

बहुतेरी कमी अपनी

जानकर लगाव घटती

परस्पर घृणा उभरती

मिल-जुल रह कई दिन औ'

कमियाँ पहचानकर भी

जो रहते जुड़े जग में

उनका ही प्रेम सच्चा,

कभी वह टूटता है।

'सच्चा प्रेम'

एक के हिय में बसा

दूसरी लाग जोड़ने पर,

एक के मन से मिली

अन्य में सुख खोजने पर

इच्छा वह पाशविक है

विकार उन्मत्त मन का;

प्रेम वह ऊँचा नहीं है।

एक नर औ' एक नारी

मिलन में जो प्रेम पलता

प्रेम वह है सफ़ल जानो।

'कथाओं का प्रेम भिन्न है'

कथाओ के प्रेम में औ'

कवि जनों के गीत में

मधुर कोमल वाणी में

सुखद सपने होते है।

पर यथार्थ जीवन का

दृश्य होता और ही।

समझ ले इस बात को

तो मधुर प्रेम सफल ही।

'प्रेम-भंग होने के उपाय'

प्रेमी जन दोनों भी

कमियों को पहचानें

संघर्ष उपजाएँ

उदारता दरसाएँ

त्याग भावना भी ले

मुसीबतें डट झेलें

होगा नहीं प्रेम-भग

काम-रति की जोड़ी बन

प्रेम का सुख भोगेंगे।

प्रेम फूल-सा कोमल है

कुचल उसे सूँघना है

वचन कठोर से भी वह

मुरक्षा, टूट जाता है।

नारी जन ख़ुशामद से

पुरुष स्नेहभावना पा

खिंचते और मिलते हैं।

कहते सब इसीलिए कि

प्रेम स्नेह पर खिलता है।

शत्रु प्रेम का और नहीं संदेह समान

शक उठते बस हो जाती है मृत्यु प्रेम की

जीवन भी नरक बन जाता

धरती में संदेह क्रूर से

मरे मिटे हैं कितने लोग

विश्वास एक ही है जग में

जो जीवन में अमिय भरता।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 299)
  • रचनाकार : ए. के. परंदामनार
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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