जागो जोत महान्!

jago jot mahan!

तमिषमुडी

तमिषमुडी

जागो जोत महान्!

तमिषमुडी

और अधिकतमिषमुडी

    सूर्यास्त होते ही, छिपते प्रकाश को

    गत के अँधेरे मे भी पा सके हम।

    तापयुत किरणें पलक झिपते ही

    कोस हज़ारों दीप देती है।

    शक्ति उन्हीं से ले जीने को

    शतांयु, निरोग, सूक्ष्म विज्ञान

    भौतिक का विकसाएँ।

    घोर अँधेरा-घिरा संसार

    जगे, उठे, जागो जोत महान्!

    काला तम घिरा,

    काल समय सूझा नहीं

    परेशान मन

    फैला तम, आँखों पर छाया

    गोचर दिशा छिपाई।

    प्रकाश दरसाता सदा विश्व का

    दिग्दर्शक उन्नत तुम हो।

    तमहर, जोत दिखा! हमारा निवेदन—

    जागो तुम हे जोत महान्

    खोल रहे हैं मालिक मिलों को

    जा रहे मज़दूर काम करने को—

    उनकी दुनिया कारख़ाने को,

    किवाड़-अँधेरा बंद कर रहा

    जगे मज़दूर हुए उदास मन

    किरण छूकर खोल तम-ताला

    आओ दिनकर, जागो हे महान्!

    तमरूप दैत्य ने निद्रा-विष पिलाकर

    जग समस्त को वशीभूत किया:

    ज्यों प्राणहीन शरीर हो हाय!

    लेट गया मानव-कुल शिथिल मूर्छित तब

    तीक्ष्ण-कर-शूल से तम-पुरुष को तुम

    विनष्ट करो औ' ज्योति औषध से

    जागृत करो मानव को, नया जीवन दो

    ज्योतिर्मय कर दो विश्व को प्रकाश से,

    आदित्य सूर्य, जागो हे महान्!

    पृथ्वी कात तुम चले कहाँ

    शरण और वेदना दुसह,

    तड़प रहे हम हैं बिछोह में,

    नम-सागर में डूब दुखियारे

    तुम्हारे छिपते ही बुझा तेज आँखों का

    तजे प्राण हम, आओ पुरुषोत्तम

    किरण-पोत बन उबारने हमें

    आओ प्रभाकर, जागो हे महान्

    तमाधिराज के क़ैदी हुए तुम,

    मानव-मन दहला, भड़क उठे वे,

    भिड़े अँधेर से, छोड़ सब काम-काज

    करने हेतु धर्मयुद्ध लेट गए वे,

    तमराज देख तब भयभीत हो उठा

    किया तुम्हें भी स्वतंत्र पूर्ववत्।

    तेजोमय देवता! देश को निखारने

    जोत-कर बढ़ा दो! जागो हे महान्।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 321)
    • रचनाकार : तमिषमुडी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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