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स्वयं को संवार लूँ

svayan ko sanvar loon

अरुणिमा अरुण कमल

अरुणिमा अरुण कमल

स्वयं को संवार लूँ

अरुणिमा अरुण कमल

और अधिकअरुणिमा अरुण कमल

    देख लो, संभाल लो

    जरा माँजी का हाल लो

    गाँव में अकेली वो बैठी है

    पता नहीं कितनी बेहाल हो

    बच्चों को देखो ज़रा

    कुछ ढंग से उन्हें पाल लो

    अपनी पढ़ाई का कुछ तो इस्तेमाल करो

    अनपढ़ों-सा ना व्यवहार करो

    ख़ुद से जो पढ़ते नहीं

    कुछ लिखने को सवाल दो

    दिन भर क्या करती हो

    बस बैठकर कुंहरती हो

    कुछ भी तो ढंग का बनता नहीं

    मजाल जो जीभ भी निहाल हो

    तुम्हीं जानो खाना क्या बनाया है

    मन जाने कहाँ रमाया है

    सूखी सब्जी गले में अटक रही

    थोड़ी तो गीली दाल दो

    तुम क्या जानो कैसी होती है नौकरी

    जीते जी हृदय को मारना पड़ता है

    बॉस के थूके को चाटना पड़ता है

    दिन भर ही खटता हूँ

    बेवजह भटकता हूँ

    तब भी यह हाल है

    खाने को जीता है आदमी

    क्या करे, जो जीने को खाना भी मुहाल हो!

    हिल गई हूँ मैं तो अब

    खो गया है सब्र सब

    दिन भर बस ऐसा ही सुनती हूँ

    साँस-साँस घुटती-तड़पती हूँ

    उलाहने ही मिलते हैं रात-दिन

    चाहे हो प्यार से, या फिर लताड़ से

    बाकी कोई इच्छा भी रही नहीं

    जाने कब मन की कटोरी यह

    खाली थी हो गई

    समय ने सोचने ही दिया नहीं

    जी ली है कितनों की ज़िंदगी

    अपनी तो बनने से पहले ही खो गई

    नहीं अब बोलना-बताना है

    ना ही कुछ सुनना-सुनाना है

    परिवार और बच्चों को संभालने में

    स्वयं को बिसार दिया

    उनकी ही जीत में

    अपना सब हार दिया

    मेरे साथ मेरा समय भी थक गया है

    चलते-चलते थोड़ा रुक गया है

    समय को सुस्ताने का वक्त दूँ

    इच्छाओं पर गौर करुँ, रुचियाँ तलाशूँ

    कभी तो फ़ुर्सत से, अपनी मर्ज़ी की साँस लूँ

    इससे पहले कि गिर जाऊँ कहीं चक्कर खाकर

    स्वयं को संवार लूँ

    मन के बोझे उतार लूँ

    प्यार से किसी को सौंपना नहीं

    क्योंकि, यह समाज ही स्वार्थी है

    उसी ढर्रे चलना है

    किसी की ख़ातिर किसी को

    हाथ क्यों मलना है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुणिमा अरुण कमल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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