युग-नवीन
प्राचीन जीर्ण जगतीक बीनमे-बाजि रहल अछि युग नवीन
झड़ रहल पुरातन पत्र-जाल, अंकुरित देखु नव-नव प्रवाल
पट पीत-धूसरित प्रकृति त्यागि, छथि पहिरि रहल परिधान लाल
जगतीक पड़ल उद्यान जीर्ण, छथि आगत युग ऋतुपति नवीन॥1॥
भूगर्भक संचित स्नेह सरल, शत-शत स्रोते उन्मुक्त तरल
अछि बहिर्भूत, कय जग चालित, बनि शक्तिक वाहन बेग प्रबल
चिर-रुद्ध प्रकृति-भण्डार पीन, खुजि गेल युगक हाथे नवीन॥2॥
नभ-विद्युत भूतल उतरि चलल, वशवर्ती कयलक अनिल-अनल
चञ्चला स्वयं छथि यन्त्र-बद्ध, ई नव विज्ञानक मन्त्र प्रबल
जगतक जड़ता चेतनाधीन, अणु अणु जागृत जीवन नवीन॥3॥
नहि नाभिजन्महिक पद्मासन, नहि शिवक हाथ भीखक भाजन
इन्दिरा क्षीरनिधि कौस्तुभमणि, नहि जनार्दनक हित सञ्चित धन
सभ वस्तु विराटक रूप लीन, अन्तर्दर्शी युग-दृग नवीन॥4॥
ने सिन्धु लंघ्य मारुति मात्रक, ने पुष्पक दशमुखहिक वाहक
पुनि मैथिलीक उद्धार हेतु ने राम बनथु निधि-पथ याचक
विज्ञान-सेतु रचइत प्रवीन, त्रेता-जेता ई युग नवीन॥5॥
ने विन्ध्य अगस्त्य मात्र लंघित, ने सिन्धु नलहि करसँ बन्धित
ने शत योजन गति पवनसुतक, ने सुर मात्रक गति व्योम-पथक
ने गज-सहस्र बल वैयक्तिक, ने सुधा-गरल दलगत यौगिक
ने लंकेशक गृह अग्नि-वायु, ने वरदानक बल स्ववश आयु
पार्थक शर वेधित भूमि-जले, ने आइ भीष्म केर तृषा शमन
ने वाह्य शत्रु-आक्रमण-बले, ककरहु सक पृथ्वीराज-दमन
घर-घर छथि बद्ध पवन-बेगी, घर-घर प्रकाश रवि-शशि सेवी
घर-घर निर्झर मानव-वशमे, छथि बन्दी अनल-शलाकामे
नहि भेद आइ अछि कतहु रहल, बदलल अमाक रुचि राकामे
आयल अछि नव द्रष्टा प्रवीण, युग वर्तमान स्रष्टा नवीन
टूटल अछि क्षुद्र देश-सीमा, भूगोल बनल एके खीमा
अछि दिशा संकुचित गति-वेगे, पुनि काल सन्तुलित यन्त्र-बले
परमाणु विभाजित अंश अंश, नव-सर्जन मूलक ध्वंस-ध्वंस
सहजहिँ अतीत टूटल सितार, जत युक्त वर्तमानहिक तार
प्राचीन जीर्ण जगतीक बीन—मे बाजि रहल अछि युग नवीन
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 40)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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