मिथिला-महिमा
चारु-चिकुर अछि जनिक हिमवतक-वन-हरीतिमा
उर-माला कमलाक भरल स्वर्णाञ्चल महिमा
दहिन गण्डकी भुजा, वाम कोशी असीम बल
हलधर-अवनी, अमर-सिन्धु जल-धौत चरण-तल
लघु प्रतिमा भारतक ई, विधि शिल्पी कर-कौशले।
दर्शनीय रूपे रचल, जनक जनपदक छवि-छले॥1॥
जकर प्रथम वाणी श्रुति रूपे भुवन-पाविनी
तत्व-चिन्तना आरण्यक उपनिषद-वादिनी
वक्र वचनसँ प्रखर तर्क शास्त्रक निर्झरिणी
कण्ठ-स्वरसँ संगीतक रसमय तरंगिणी
श्वास-श्वाससँ शास्त्र, पुनि पुलक-पुलक कविता कलित।
भुक्ति-मुक्ति करगत सतत, तीरभुक्ति जनपद ललित॥2॥
शस्य-श्यामला, कमल-हस्त, पद-तल-गत गंगा
जे साक्षात वैष्णवी पुनि पावन श्रुति संगा
धारि सदा-नीराक कमण्डलु जे ब्रह्माणी
वृषभ-वाहिनी शिवक अन्नपूर्णा कल्याणी
छथि प्रतीक जे त्रिशक्तिक, भक्तिक अधिकारिणी प्रखर
जपबे 'मिथिला' मन्त्र जे त्रिपदा गायत्री हमर॥3॥
काशी जकर समान वयस्या, वंग सुशिष्या
मगध-कलिंग फराकहिसँ जनि' कयल नमस्या
काञ्ची, तक्ष-शिला की सख्य जोड़बे कारण
विद्यापीठ रचल यत्ने, नहि तुलित तदपि कण
वैशाली सहचारिणी, अंग अंग बनले जकर।
युग-युग ज्ञात त्रिभुक्ति कहि जय जननी मिथिला हमर॥4॥
तीरभुक्ति अछि बास, चास हिमवत सीमा धरि
अपन आङनक टाट बढ़ल बंगक खीमा धरि
कमला, त्रियुगा नित्य जनिक घर जल भरइत छथि
याज्ञवल्क्य चरवाह गोतमक संग चलइत छथि
जनिक जनक हरबाह छथि, सफल गृहस्थी अछि तनिक।
अन्नपूर्णा जानकी खेतक छथि उपजा कनिक?5॥
बड़-पाकड़ि-छाया पथ-शाला बाट-बाटमे
सर-सरिता खोलल पनिशाला घाट-घाटमे
दुर्वान्चल श्यामल आसन सभ थाम सुविस्तृत
दैछ वाटिका आमन्त्रण उद्यान-भोज हित
सतत जतय स्वागतक हित द्विजकुल कोमल सरस ध्वनी।
सत्कृत जन-जनके करथि यजन-अवनि मिथिला जननि॥6॥
ग्रीष्म धूप लय, लेसि दीप-विद्युत पावस घन
वर्षा हर्षित अर्घ्यक भरथि अछिञ्जल उन्मन
कास-हासिनी शरद सिङरहारक भरि डाली
लय नवान्न नैवेद्य रुचिर हेमन्त सुशाली
नव किसलय, नव-नव कुसुम लोढ़-लोढ़ि ऋतुपति मुदित
जनिक अर्चना हेतु से जगत्पूज्य मिथिला विदित॥7॥
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 31)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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