दोपहर

dopahar

विनोद दास

विनोद दास

दोपहर

विनोद दास

और अधिकविनोद दास

    जून की दोपहर

    बैलगाड़ी पर चढ़कर रही है

    चीज़ों को तपाती हुई

    ख़ून को ललकारती हई

    एक औरत उठती है

    और गेहूँ के स्वच्छ और भीगे दानों को

    फैला देती है घर की छत पर

    दाने की खाल हो रही है सख़्त

    और उसकी चमक

    एक आदमी की भूख को पार कर रही है

    बहरहाल यह दोपहर है

    तपती ज़मीन पर नंगे पैर चल रहे हैं

    डाकिया साइकिल की घंटी बजाता

    चिट्ठियाँ बाँट रहा है

    बोझ सिर पर लादे एक औरत

    ललाट से पसीना पोंछ रही है

    धूल भरी हवा हमारे फेफड़ों में

    अपना घर बना रही है

    दोपहर सेंध लगाकर

    अब पहुँच रही है वहाँ

    दुनिया से बेख़बर जहाँ

    एक आदमी ऊँघ रहा है

    वह उसकी ऊँघ नष्ट करना चाहती है

    संसार की तमाम लिजलिजी वस्तुओं के ख़िलाफ़

    विचारों को धीरे-धीरे पकाते हुए

    वह दुनिया को बनाना चाहती है

    अपनी ही तरह पारदर्शी

    गरम और चमकीली

    दोपहर उतर रही है

    हमारे पसीने से माँगती हुई

    पूरे दिन का हिसाब

    स्रोत :
    • पुस्तक : ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : विनोद दास
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1986

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