ग़ायब लोग
हम अक्षर थे
मिटा दिए गए
क्योंकि लोकतांत्रिक दस्तावेज़
विकास की ओर बढ़ने के लिए
हमारा बोझ नहीं सह सकते थे
हम तब लिखे गए
जब जन गण मन लिखा जा रहा था
भाग्य विधाता दुर्भाग्यवश हमें भूल गया
हम संख्याएँ थे
जिन्हें तब गिना गया
जब कुछ लोग कम पड़ रहे थे
एक तानाशाह को
कुर्सी पर बिठाने को
बसों में भरे गए
रैलियों में ठेले गए
जोड़ा गया जब
सरकारी बाबू डकार रहे थे
घटाया गया जब
देश में निर्माण कार्य ज़ोरों पर था
हम जहाँ खड़े दिखे
अदना-सा मुँह लिए
जिन पर मानो एक साइन बोर्ड लगा हो :
“कार्य प्रगति पर है;
असुविधा के लिए खेद है”
हम खरपतवार थे
पूँजीवादी खलिहानों में
यूँ ही उग आए थे
हमारे लिए कीटनाशक बनाए गए
पचहत्तर योजनाएँ छिड़क-छिड़क कर मारा गया
हम फटे हुए नोट थे
चिपरे सिक्के थे
चले तो चले
वरना मंदिरों, मस्जिदों के
बाहर की दीवारों पर चमकते रहे
कटोरियों में खनकते रहे
हम थे कि नहीं थे
यह भी कहना मुश्किल है
हम पराई जगहें छोड़कर
अपनी जगहों के लिए निकले थे
पहले पौ फटी
फिर पैर फटे
फिर आँत फटी
और आख़िर में
ज़मीन फटी
हम आगे बढ़ाए गए
पिछड़े लोग थे
मसानों में ज़िंदा थे
काग़ज़ों पर ग़ायब।
- रचनाकार : आदर्श भूषण
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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