स्त्रियों को भी महसूसना था प्रेम

striyon ko bhi mahsusna tha prem

ज्योति रीता

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स्त्रियों को भी महसूसना था प्रेम

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    वह प्रेम कमाल था

    जो बिस्तर से पहले

    बिस्तर के बाद भी रहा

    वह स्त्री जिसका प्रेमी बस देह तक रहा

    वह फिसलता हुआ एक दिन

    कहीं विलीन हो जाता

    बेहद निजी पलों में बालों को खींचते हुए कहता—

    तुम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत औरत हो

    उसके बाद दिन भर का ताना था

    मुझसे ज़्यादा ज़ाहिल औरत

    उसने कहीं नहीं देखी थी

    मैं दुनिया की सबसे बेवक़ूफ़ औरत थी

    मुझे रसोई से ज़्यादा का स्वाद नहीं पता था

    घर बैठे वह ना जाने

    किन-किन गलियों में घुमा देता

    हर तीसरा आदमी मेरा प्रेमी था

    हर घूरता हुआ आदमी मेरे द्वारा किया गया इशारा

    उदासी में कहता—याद रहा है वो

    हँसती तो कहता—बात हो गई लगता है

    समुद्री नमक से भी ज़्यादा नमकीन

    मेरी पीठ से रिसता पसीना था

    बालों की लटों से उलझाऊँ कोई ज़ंजीर कहाँ थी

    कयासों की दुनिया में अनेकों कहानियाँ थी

    मिश्रित भाव से गढ़ा गया पात्र मुझसे बँधा था

    उपले की आग-सा सुलगता जीवन

    द्वेष से भरा था

    कमल की जड़ में छिपे थे

    कई रहस्य

    कई प्रेमपत्र हथेली पर लिखे थे

    तालू से चिपकी थी कई दास्तान

    लड़की बोलने से ज़्यादा पढ़ने में सहज हुई

    लिखकर अंदर की सारी पीड़ा भूल जाती

    कॉलेज के दिनों में एक दिन

    धर्मवीर भारती आए

    कब चंदर से प्रेम हुआ

    सुधा का पात्र कब अंदर तक जा धँसा

    किसे पता है

    'एक चिथड़ा सुख'

    लेकर निर्मल वर्मा आए

    फिर विनोद कुमार शुक्ल

    'दीवार में एक खिड़की रहती थी' थमा गए

    लड़की ख़ामोश रही

    किताबों के पात्रों में हमेशा उलझी रही

    और अत्यधिक भावुक हुई

    एक कविता में निज़ार क़ब्बानी कहते हैं—

    प्रेमी की इच्छा करती स्त्री को

    क्या भाषा और व्याकरण के विद्वानों की

    शरण लेनी चाहिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति रीता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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