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सृजनहार

srijanhar

कलानाथ मिश्र

कलानाथ मिश्र

सृजनहार

कलानाथ मिश्र

और अधिककलानाथ मिश्र

    आशक्ति-विरक्ति के

    संधि भाव में स्थित

    मृग मरीचिका के

    फैले इस भ्रम जाल में

    सतब्ध खड़ा मैं

    स्थिति प्रज्ञ-सा अचंभित

    देख रहा हूँ

    जगती के क्रीड़ा स्थल को

    सृष्टि के जन्म-स्थिति-विनाश खेल को।

    अभी-अभी तो आया है

    सुत-सुत

    नवजात मेरे अंक में

    वह निहार रहा

    माया के मोहक वन को

    चकित-चमत्कृत-सा

    हास-रुदन के इंद्रजाल में

    विस्मित-सा।

    वह देख रहा है मुझे

    और मुझ में व्याप्त सृष्टि को।

    मैं अनगिन विचारों के

    आरोह अवरोह के बीच

    देख रहा हूँ

    जगती के क्रीड़ा चक्र को।

    किसलय से गात उसके

    ज्यों स्वेत मेघ के फूल।

    निर्दोष स्पर्श से उसके

    रोमांचित होता अंतर्मन

    परम-पुरुष के स्पर्श-सा

    अनुपम आभास से भरा

    मेरा अवचेत-चेतन मन।

    वह अरुणाभ युक्त भोर-सा

    स्वच्छ, स्निग्ध,

    निर्मल, शीतल

    मैं अस्ताचलगामी

    मुक्ति की आकाँक्षा लिए

    माया के पाश से

    विरक्त होने के कगार पर खरा।

    किन्तु खींचता

    मोह के डोर पकड़

    सृजनहार सृष्टि का।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कलानाथ मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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