स्मृतिशेष
धूम्रज्योति सलिलमरुतां संनिपातः क मेघः
संदेशार्थाः क पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः।
—मेघदूतम्
जो रंग दी गईं
नीले आकाश पर, कुछ
आकृतियाँ, धब्बों की तरह, चुभोने देती हैं
धूप को, साँझ होते ही
बाँह फैलाए पंडुकों पर जो
झिलमिलाती, गुदगुदा जाती हैं
उन आकृतियों को जिन्हें
रँगा न जा सका
दिन भर में—
केवल उकेरा गया
उँगलियों से
प्रेयस की गर्दन पर, अस्थिर
हाथ डटे रहे जिसके, बादलों जैसा कुछ थामने को
आतुर, धरती पर मेघ के आलसी चुंबनों के लिए।
उँगलियों पर धूप से लिपटी त्वचा
छोड़ जाती है मौसिकी
रेशों की जड़ों में लयबद्ध
सिहरने के लिए कि जिनके थम जाते ही
जैसे वो सब जो देखा गया अब तक
बिना चश्मे के देखा हो
कि ऐनक डालते ही
गगन की परछाई
जिन चेहरों पर पड़ती है
टूट चुके होते हैं वो
जैसे वक़्त के साथ टूटते हैं
पत्थर—आग, पानी और हवा से;
धूप, मेघ और गगन से।
फिर किस लय में
गाया जाए विरह का गीत
कि शरद की अंतिम वर्षा पत्तियों पर
ही, उतरे तो सही! और नसों को टोहती कोई बूँद
पत्तियों से गिरे धरती पर जहाँ सड़कों की चादर कम पड़ गई हो!
कि दूत जब धूम्र को
मान लिया जाता है प्रेमियों द्वारा,
मिट्टी में सने हाथ हर बार कलाई से
पसीना पोंछते वक़्त विलक्ष्ण हाथों से काढ़े गए
हर श्वेत बादल को कोसते हैं प्रकृति की सबसे दुर्लभ आकृति
होते हुए भी जो
धुएँ के अलावा कुछ
और न हो सकी—बूँद भी नहीं।
क्योंकि प्रेयसी की अँगुलियाँ जिन
आकारों की नक़्ल उतारती हैं गर्दन पर,
धब्बों के ही हो सकते हैं
वो जो आषाढ़ से ही डबडबा जाते हैं
कि धरती का गीत गगन के लिए लिखे होने
पर भी अपनी वेदना के लिए एक अक्षर नहीं छोड़ता—
कि हर कुछ जो है उसकी कोख का, केवल एक स्पर्श को तत्पर,
आँखों के धोखे से ही
स्वप्न पूरा करता गगन चूमने का।
तत्पश्चात सिहरता
प्रेयस होंठों पर आ चुकी
पसीने की बूँद का आस्वादन
पहले तो माथे की लकीरों को सिकोड़
और फिर आह भरे उच्छ्वास के साथ
करता है। उधड़े उन होंठों का हर श्वास पत्र है
प्रेयसी को मेघ उकेरा था जिसने गर्दन पर कहे अनुसार
अक्षरशः
जानते हुए कि बिखर जाने के बाद भी मेघ, बादल हो ही जाएँगे
लेकिन
नखों से रेशों पर
लिखा गया जो भी,
दिन ढलते ही
नई कोशिकाएँ बनते ही
भुला दिए जाएँगे।
- रचनाकार : उपांशु
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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