तब एक किसान ने पूछा: श्रम का ध्येय क्या है?
अलमुस्तफ़ा ने उत्तर दिया :
तुम श्रम इसलिए करते हो कि धरती और आकाश, जगत् और जगदात्मा की गति के
साथ गतिमान रह सको।
श्रम के बिना तुम गतिशील चर-अचर से बिछुड़ जाओगे और जीवन की उस यात्रा से
पिछड़ जाओगे जो राजसी आन-बान और गर्वीले दान की भावना लिए अनंत की राह पर
चल रही है।
यह श्रम तुम्हें उस बंशी का रूप दे देता है जिसके अंतरंग में भरे गए श्वास-निःश्वास
संगीतमय बन जाते हैं।
तुममें कौन ऐसा होगा जो मूक, मूढ़ रहेगा, जबकि विश्व प्रांगण में अन्य सब स्वरों का
मेला लगा होगा।
तुम्हें सदा यही कहा गया है कि श्रम एक शाप है और दुर्भाग्य है।
मैं कहता हूँ: श्रम करके तुम पृथ्वी माता का चिरंतन स्वप्न पूरा करते हो, जिसकी पूर्ति
का भार उस स्वप्न के जन्म लेते ही तुम्हें सौंपा गया था।
श्रम में मन लगाना ही जीवन से प्रेम करना है।
और श्रम द्वारा जीवन से प्रेम करना जीवन के गूढ़तम रहस्यों से अंतरंग निकटता
पाना है।
कष्टों से घबराकर यदि तुम पैदा होने को ही दुर्भाग्य और देह को अपने ललाट पर
लिखा अभिशाप मानते हो, तो भी सुनो :
केवल तुम्हारे माथे का पसीना ही उस दुर्भाग्य-रेखा को मिटा सकेगा।
तुम्हें यह भी बतलाया गया है कि जीवन अंधकारमय है; थकान की घड़ियों में तुम
भी थके-हारे लोगों की यह बात दुहराने लगते हो।
मैं तो कहता हूँ, जीवन सचमुच अंधकारमय है यदि उसमें प्रवृत्ति, प्रेरणा न हो।
प्रवृत्ति ज्ञान के प्रकाश के बिना अंधी ही रहती है।
और सब ज्ञान मिथ्या है, यदि वह कर्मरहित हो।
प्रेम प्रेरित कर्म करके ही तुम अपने को अपने से, एक-दूसरे से और भगवान् से युक्त
करते हो।
जानते हो, प्रेमयुक्त कार्य का क्या स्वरूप है?
यह होता है, हृदय के कते सूत से वह वस्त्र बुनना, जो तुम्हारे प्रियतम को पहनना है।
यह अपने मनचाहे मीत के लिए अपने हाथों घर बनाना है।
यह है स्नेह से अपने हाथों बीज बोना और फ़सल काटना, जिसे तुम्हारे प्रेमी को खाना
हो।
यह है अपने सब कर्मकलाप को अपनी आत्मा के श्वासों से चेतन बनाना।
और यह आस्था रखना कि तुम्हारे चारों ओर खड़े जड़ जीव तुम्हें ध्यान से देख रहे हैं।
प्रायः मैंने तुम्हें यह कहते सुना है—जैसे नींद में बोल रहे हो—संगमरमर के श्वेत पत्थर में
अपनी कल्पना को साकार करने वाला शिल्पी उस खेत के किसान से श्रेष्ठ है, जो केवल
मिट्टी के खेत में अनाज बोता है।
और मनुष्याकृति में आकाश के इंद्रधनुष को उतारने वाला चित्रकार पैरों के जूते
बनाने वाले चमार से कहीं श्रेष्ठ है।
परंतु मैं स्वप्र में नहीं, बल्कि पूरे जागरण में यह कहता हूँ कि हवा आकाश में ऊँचे
वटवृक्ष तथा पृथ्वी पर बिछी घास, दोनों से एक समान व्यवहार करती है।
महान् तो वही है, जो अपने प्रेम से हवा के हाहाकार को मधुर संगीत में बदल दे।
श्रम है प्रेम को ही आकार देना।
यदि तुम प्रेम से श्रम नहीं करते, केवल लाचारी से करते हो—तो अच्छा है कि तुम वह
काम छोड़कर मंदिर की चौखट पर जा बैठो और प्रेमपूर्वक काम करने वालों से भीख
माँगकर उदरपूर्ति करो।
क्योंकि यदि तुम बेमन से रोटी पकाते हो, तो कड़वी पकेगी; जो आधे आदमी की भूख
भी नहीं मिटा सकेगी।
यदि तुम अनिच्छा से अँगूरों का रस निकालते हो, तो तुम्हारी उदासी उसमें विष
घोल देगी।
चाहे तुम गंधर्वो-सा गान करो, यदि उसमें प्रेम न होगा तो तुम केवल दिन और रात
के कलरव से मनुष्य के कान भरोगे।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.